मीर तकी 'मीर' हमारे सबसे पसंदीदा शायर हैं। उनके एक एक शेर को मैं हज़ार हज़ार बार पढ़ सकता हूं।
'ज़िक्र ए मीर' के फोरवर्ड में मीर लिखते हैं:-
'यह फ़कीर मीर मोहम्मद तकी जो 'मीर' के नाम से जाना जाता है कहता है कि मैं इनदिनों बेकार था और सबसे अलग थलग एक कोने में पड़ा हुआ था। इन्हीं दिनों ये आपबीती जिसमें जग बीती और क़िस्से कहानियां भी आ गई हैं, लिख डाली और ये क़िताब जिसका नाम ' ज़िक्रे मीर' है रक़म की। दोस्तों से उम्मीद है कि अगर कोई ग़लती पाएं तो नज़र चुरा लें और ठीक कर दें!
'मीर' का तस्सवुर है कि , 'न कोई मुसलमान है, ना कोई हिंदू है, ना कोई मोमिन है और ना कोई काफ़िर! इंसान बस इंसान है और वजूद ख़ुदाबंद की परछाईं!'
'मीर' शायद पहले शायर थे जिन्होंने अपनी आपबीती 'ज़िक्र ए मीर' लिखी। इससे पहले किसी और शायर की आपबीती का कोई डॉक्यूमेंट नहीं है। मीर के दौर में फ़ारसी दरबार की ज़ुबान थी तो मीर ने 'ज़िक्रे मीर ' भी फ़ारसी में ही लिखी। उस दौर में प्रिंटिंग तो थी नहीं लिहाज़ा लोग अपनी राइटिंग्स या क़िताबों की नक़ल करवा लेते थे। मीर की 'ज़िक्रे मीर' की भी कई नक़ल हुई होंगी लेकिन वो बड़े ज़माने तक लोगों की अलमारियों में दबी पड़ी रहीं। किसी को इल्म ही नहीं था कि उनके पास एक बेशक़ीमती क़िताब है सिवाए एक डॉक्टर इशप्रिंगर के। इटावा के ख़ान बहादुर मौलवी बशीरुद्दीन के हाथ ये नक़ल 1921 में लगी जिसे मौलवी अब्दुल हक़ ने 1928 में अपने फोरवर्ड के साथ छपवाया।
मीर ने 'ज़िक्रे मीर' 1783 में लिखी थी जब वो 60 साल की उम्र पूरी कर चुके थे। 'ज़िक्रे मीर' 1730 से 1790 के बीच के दौर की दिल्ली की कहानी भी है जिसे मीर तकी 'मीर' ने अपनी समझ और ज़ुबान में पेश किया है। इसको पढ़ने से इस दौर की हिस्ट्री का एक अलहदा पर्सपेक्टिव हासिल होता है।
मीर को लोग तुनुक़ मिज़ाज मानते हैं। दरअसल तुनुक़ मिज़ाजी के साथ तो बहुत ख़ुद्दार इंसान थे। मीर को ये खुद्दारी उनके वालिद से मिली थी। मीर एक 'सेल्फ मेड' इंसान थे। बचपन में बाप का साया उठ गया। सौतले भाइयों ने इनसे बुरा सुलूक़ किया। दिल्ली आए बादशाह ने एक रुपया रोज़ की इमदाद तय करी जिससे कुछ वक़्त गुज़ारा हो सका। कम उम्र में अपने बाप का कर्ज़ उतारा। आगरा दोबारा छोड़ना पड़ा और फिर दिल्ली आ गए। दिल्ली में नादिर शाह और अहमद शाह अब्दाली के ज़ुलमात देखे। दिल्ली को उजड़ते - तबाह होते देखा। ग़ुरबत और भूख ने दरबदर कर दिया। इनके पास जो था वो इनका फ़न था जिसको बहुत नाज़ से समेटे रहे और उस पर कोई समझौता नहीं किया। ना उस पर कोई आंच आने दी।
मीर जब 16 बरस के थे तो दिल्ली में नादिर शाह के लगातार तीन दिनों तक चले क़त्ल ए आम के गवाह बने। इस क़त्ल ए आम में दिल्ली के तीस हज़ार लोग मौत के घाट उतार दिए गए थे और नादिर शाह मुग़लिया सल्तनत की बे शुमार दौलत को 10 हज़ार ऊंट, 10 हज़ार घोड़ों और 3 हज़ार हाथियों पर लाद कर ईरान ले गया।
इसके तक़रीबन 9 साल बाद दिल्ली एक बार फिर अहमद शाह अब्दाली की लूट का शिकार हुई। अहमद शाह अब्दाली ने हिंदुस्तान को 20 सालों तक लूटा। इन 20 सालों में उसने हिंदुस्तान पर आठ बार हमला बोला। 'ज़िक्रे मीर' में नादिर शाह, अहमद शाह अब्दाली या दुर्रानी, पानीपत की तीसरी लड़ाई, मरहठों, सिखों, जाटों, दक्कनी फ़ौज की दिल्ली पर चढ़ाई और तमाम लड़ाइयों का ग्राफ़िक डिटेल्स मौजूद है। मीर ने कई हिन्दू - जाट राजाओं का भी ज़िक्र किया है जिनकी सरपरस्ती में ये रहे। मीर के ये डिस्क्रिप्शन्स उस दौर के फर्स्ट पर्सन एकाउंट हैं जिसमें 'पावर' के लिए छल - कपट और धोखे पर खुल कर बात की गई है। 'ज़िक्रे मीर' में इन तमाम वाक़्यात को पढ़िए किसी हिस्टोरियन से कम दर्ज नहीं किए गए हैं!
मीर जब दिल्ली से आगरा आए तो उनको अपनी एक रिश्तेदार की बेटी से इश्क़ हो गया। ये कोई एक तरफ़ा इश्क़ नहीं था। जितना मीर उससे मुब्तला थे कमोबेश वो लड़की भी उनसे उतना ही इश्क़ करती थी। मीर की ज़िंदगी को समझने के लिए उनका ज़िन्दगीनामा 'ज़िक्रे मीर' तो है ही साथ में मोहम्मद हुसैन आज़ाद की 'आबे हयात' भी उतनी ही ज़रूरी है। मोहम्मद हुसैन आज़ाद, मीर तक़ी मीर के कंटेम्पोरेरी रहे हैं और उर्दू लिट्रेचर का एक बेहद जाना पहचाना नाम हैं जिन्होंने उर्दू शायरी के साथ उर्दू नस्र को एक नया डायरेक्शन दिया। 'आबे हयात' 1880 में लिखी गई जिसे उर्दू पोएट्री की पहली क्रोनोलॉजिकल हिस्ट्री माना गया है।
तो मीर का अपनी रिश्तेदार से इश्क़ उनका पहला इश्क़ था। सही मायनों में मीर को एक ही इश्क़ हुआ जिसका उन्होंने बाक़ायदा ज़िक्र किया है। किसी और इश्क़ का ज़िक्र उनकी आपबीती में नहीं मिलता है।
मीर कहते हैं कि इस इश्क़ ने उन्हें पागल बना दिया था। दरअसल, उन्हें पागल क़रार करने में उनके सौतेले रिश्तेदारों का भी हाथ था जिन्हें मीर की ये रिलेशनशिप क़तई रास नहीं आई।
'ज़िक्रे हयात' में मीर लिखतें हैं:-
'जब चांदनी फैलती तो एक हसीन जिस्म अपनी सारी ख़ूबसूरती के साथ चांद की दुनिया से मेरी ओर आता और मुझे बेहोश कर देता। जिस ओर भी मैं देखता इसी पर नज़र पड़ती। जिधर भी आंख उठती मुझे वही वह दिखाई देता। मेरे घर की दर दीवार गोया आंगन तस्वीर का एक वरक़ हो गए थे। जिधर देखिए वही होश उड़ा देने वाला चेहरा नज़र आता। ...दिन भर यही जुनून रहता सुर हाथ में पत्थर लिए लड़खड़ाता फिरता। लोग मेरी सूरत देख कर भागते। ऐसा लगने लगा जैसे उस परी का मुझ पर साया पड़ने लगा हो। इतना बेहोश हुआ कि किसी काम का ना रहा। ...आख़िर मुझे कोठरी में बंद कर दिया गया और मेरे पैरों में ज़ंजीर डाल दी गई!'
आगे मीर कहते हैं कि उनकी एक रिश्तेदार ने, जिनपर उनके वालिद के एहसानात थे, उनका इलाज कराया। इलाज पर तमाम पैसे ख़र्च किए जिससे वी ठीक हो गए और उनके सिर से इश्क़ का भूत उतर गया।
एक दिन मीर बाज़ार में क़िताब के कुछ हिस्से लिए बैठे थे कि एक शख़्स मीर जाफ़र उनतक आए और कहा कि, 'लगता है तुम्हें पढ़ने का शौक़ है। अगर ठीक समझो तो तुम्हारे पास बैठ जाया करें!' मीर ने कहा, 'मेरे पास आपको देने के लिए कुछ भी नहीं है!' उसके बाद मीर जाफ़र से उनकी मुलाक़ातों का सिलसिला चल निकला।
मीर के अनुसार मीर जाफ़र ने ही उन्हें दोबारा शायरी की तरफ़ मोड़ा। फिर कुछ दिनों बाद मीर जाफ़र पटना चले गए।
कुछ समय बाद उनकी मुलाक़ात अमरोहा के सआदत अली से हुई। सआदत अली ने मीर को रेख़्ता में शायरी के लिए इंस्पायर किया। मीर कहते हैं कि रेख़्ता की शायरी फ़ारसी की शायरी और बादशाह के क़िले और लश्कर की ज़ुबान की शायरी है। मीर कहते हैं,'मैंने बहुत जतन किया और लिखते लिखते इस मरतबे पर पहुंच गया कि शहर के शायरों में सनद माना जाने लगा। मेरे शेर शहर में फैल गए और हर छोटा बड़ा उन्हें सुनने और पढ़ने लगा।'
उर्दू लिट्रेचर में ये एक टर्निंग पॉइंट था। मीर का ये रंग, रेख़्ता में और लश्कर की ज़ुबान उर्दू लिट्रेचर की सबसे बड़ी धरोहर मानी जाती है! उर्दू आज जिस रूप में है उसमें मीर तक़ी मीर का बड़ा भारी कॉन्ट्रिब्यूशन है।
अब मीर इश्क़ के पागलपन से उबर तो चुके थे लेकिन उनका पहला इश्क़ उनके अंदर पूरी तरह जज़्ब हो चुका था। ये वही दौर था जिसमें अपनी माशूक़ के लिए मीर के बेहतरीन क़लाम हुए और जिनसे आजतक कोई टक्कर ना ले सका।
'क्या तन-ए-नाज़ुकी है, जान को भी हसद है
क्या बदन का रंग है, तह जिसकी पैराहन पे है'
(such is tenderness of her body that even the life is jealous,
such is the colour of her body that its visible within the covering )
'शौक़-ए-कामत में तेरी ए नौ निहाल
गुल की शाखें लेती हैं अंगड़ाइयां'
(Enamored of your slender body, o nubile ,
the flower stems are stretching themselves)
'नाज़ुकी उसके लब की क्या कहिये
पंखुड़ी इक गुलाब की सी है'
'मीर' उन नीमबाज़ आँखों में
सारी मस्ती शराब की सी है'
'गूंथ के गोया पत्ती गुल की वो तरक़ीब बनाई है
रंग बदन का तब देखो जब चोली भीगे पसीनें में'
'हम हुए, तुम हुए कि मीर हुए
उसकी ज़ुल्फ़ों के सब असीर हुए'
'उस के फ़रोग़-ए-हुस्न से झमके है सब में नूर
शम-ए-हरम हो या हो दिया सोमनात का'
'गुल हो महताब हो आईना हो ख़ुर्शीद हो 'मीर'
अपना महबूब वही है जो अदा रखता हो'
'हमारे आगे तिरा जब किसू ने नाम लिया
दिल-ए-सितम-ज़दा को हम ने थाम थाम लिया'
'मीर' प्राइमेरिली इश्क़ के शायर थे। शुरुआती दौर में इश्क़ मजाज़ी थे बाद में इश्क़ हक़ीक़ी हुए। कहतें हैं कि, 'हक़ीक़ी इश्क़ की इश्क़-ए-मजाज़ी पहली मंज़िल है!'
'मीर' ने कहा है,
'सख़्त काफ़िर था जिन ने पहले 'मीर'
मज़हब-ए-इश्क़ इख़्तियार किया '
मीर की शायरी में बड़ी ईमानदारी से इश्क़ का ऐतराफ़ है-
'आग थे इब्तिदा-ए-इश्क़ में हम
अब जो हैं ख़ाक इंतिहा है ये'
'याद उस की इतनी ख़ूब नहीं 'मीर' बाज़ आ
नादान फिर वो जी से भुलाया न जाएगा'
'हमारे आगे तिरा जब किसू ने नाम लिया
दिल-ए-सितम-ज़दा को हम ने थाम थाम लिया'
'आँख बे-इख़्तियार भर आई
हिज्र सीने में जब तेरा सिसका'
'रात मज्लिस में तिरी हम भी खड़े थे चुपके
जैसे तस्वीर लगा दे कोई दीवार के साथ'
'मीर' नाम इक जवां सुना होगा
उसी आशिक़ के यार हैं हम भी'
तो इश्क़ की नाक़ामियों का कन्फेशन भी!
'इश्क़ इक 'मीर' भारी पत्थर है
कब ये तुझ ना-तवाँ से उठता है'
'बैठने कौन दे है फिर उस को
जो तिरे आस्तां से उठता है'
'यूं उठे आह उस गली से हम
जैसे कोई जहां से उठता है'
'फिरते हो मीर ख्वार, कोई पूछता ही नहीं
इस आशिकी में इज्ज़त-ए-सादात भी गयी '
*ख्वार - dishonoured/shame
*इज्ज़त-ए-सादात - honour of being a sayyed.
मीर शिया मुसलमान थे। उनके वालिद बहुत नमाज़ी इंसान थे और एक सूफ़ी संत के तौर पर जाने जाते थे। मीर पर अपने वालिद की टीचिंग का बड़ा असर था। मीर इस्लाम के क़ायदों को मानते थे लेकिन एक खांटी नमाज़ी कभी नहीं रहे। उनका मज़हब प्राइमेरिली इश्क़ था जो मजाज़ी से हक़ीक़ी में तब्दील हुआ।
'सख़्त काफ़िर था जिनने पहले मीर
मज़हब-ए-इश्क़ इख़्तियार किया'
एक वक़्त तो ऐसा भी था जब महजब का उनके लिए कोई मायने नहीं रह गया था।
'मीर' के दीन-ओ-मज़हब को अब पूछते क्या हो उन ने तो
क़श्क़ा खींचा दैर में बैठा कब का तर्क इस्लाम किया'
• क़श्क़ा खींचा - जनेऊ पहना
• दैर - मंदिर
मीर का सबसे बड़ा दर्द दिल्ली के उजड़ने का था।
मीर लिखतें हैं:-
'एक दिन घूमता फिरता शहर के खंडहरों में हो लिया। जैसे जैसे आगे बढ़ता जाता मेरा दुख भी बढ़ता जाता। ...घर के घर मिसमार,ख़ानक़ाहों में फ़क़ीर नहीं मिले, शराब ख़ानों में पीनेवाले न दिखाई दिए, जिस तरफ़ देखिए एक हू का आलम था। ... इसी बीच उस मोहल्ले में आ निकला जहां कभी रहता था। अब ऐसा कोई जाना पहचाना चेहरा नज़र नहीं आया जिससे दो बात करूं। दिल इतना घबराया कि गली के बाहर निकला और सूनसान रास्ते पर आ खड़ा हो गया। आख़िर ये अहद किया कि अब इधर न आऊंगा। जब तक रहूंगा शहर की ओर मुंह ना करूंगा!'
मीर ने जो अपनी ज़िंदगी में जो तक़लीफ़ें सहीं, जो क़त्ल ओ गारद देखा, जो नाकामियां बर्दाश्त कीं वो सब उनकी शायरी में नुमाया होता है।
मीर का दायरा शाहजहानाबाद का था। तब दिल्ली ही शाहजहानाबाद थी। उनकी मुलाकातें जामा मस्जिद के आस पास तक ही महदूद थीं। यही वजह है कि मीर अपनी ज़ुबान को जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर बोली जाने वाली ज़ुबान का नाम दिया।
हालांकि अपनी आपबीती ज़िक्रे मीर में मीर तक़ी मीर कहते हैं कि उनके पहले उस्ताद मीर जाफ़र नाम का एक शख़्स था जो उन्हें दिल्ली के एक बाज़ार में मिला जब वो किसी क़िताब के पन्ने पलट रहे थे। मीर जाफ़र की इस्लाह पर ही मीर तक़ी मीर ने शायरी शुरू की। ये वो दौर था जब मीर अपने पागलपन से तो उबर चुके थे लेकिन बिलकुल तन्हा थे। उनके पास करने को कुछ नहीं था। पढ़ने का शौक़ था लेकिन किताबें नहीं थीं। उनके वालिद की सारी किताबें उनके सौतेले भाइयों ने हड़प ली थीं। ये मीर का सबसे बुरा दौर था। उधर मीर जाफ़र भी ख़ाली हाथ थे। उन्होंने मीर से इतना ही अर्ज़ किया कि अगर वो नाश्ते का थोड़ा इंतज़ाम कर दिया करें तो मुलाक़ात का सिलसिला आगे बढ़ सकता है। मीर तक़ी मीर ने अपनी हैसियत भर मीर जाफ़र की ख़िदमत की। मीर जाफ़र ने भी मीर तक़ी मीर को शेर कहने का क़ायदा सिखाया। कुछ समय बाद मीर जाफ़र के घर से कोई ख़त आया और वो पटना चले गए। शुरुआती दौर में मीर तक़ी मीर ने फ़ारसी में शायरी की। शायरी का सिलसिला तो चल निकला था लेकिन ज़ुबान की वजह से मीर को पॉपुलैरिटी हासिल नहीं हो सकी थी। कुछ समय बाद उनकी मुलाक़ात अमरोहा के एक सय्यद से हुई जिसका नज़्म सआदत अली था। सआदत अली ने ही मीर को रेख़्ता में शायरी करने के लिए सलाह दी। मीर कहते हैं कि रेख़्ता की ज़ुबान बादशाह के क़िले और लश्कर की ज़ुबान थी जो उन दिनों की दिल्ली में रवां थी।
मीर कहते हैं कि, 'मैंने बहुत जतन किया और लिखते लिखते इस मरतबे पर पहुंच गया कि शहर के शायरों में सनद माना जाने लगा। मेरे शेर सारे शहर में फैल गए और हर छोटा बड़ा उन्हें पढ़ने और सुनने लगा!'
लेकिन मीर की ये शोहरत उनके घर वालों, खासकर, उनके मामू को रास न आई। एक दिन खाने के वक़्त उन्होंने इनको बहुत डांटा फटकारा। मीर खाना छोड़कर उठ गए और जामा मस्जिद के रास्ते निकल पड़े। भटकते भटकते हौज क़ाज़ी पर निकल आए और वहीं बैठ कर नहर से पानी पिया। इतने में उन्हें एक शख़्स ने पहचान लिया। उसका नाम अलीम उल्लाह था। उसने देखते पूछा, ' क्या तुम मोहम्मद मीर तक़ी हो?' मीर ने कहा, 'आपको कैसे मालूम?' अलीम उल्लाह ने कहा, ' तुम्हारी दीवानगी की धूम पूरे शहर में है!' अलीम उल्लाह ही मीर को एतेमाद्दौला क़रीमउद्दीन खां के भांजे अज़ीमउल्लाह खां के पास ले गए। मीर के साथ मीर जाफ़र की भी उनके दरबार में हाज़िरी का सिलसिला शुरू हो गया। अब मीर को रेआयत खां की सरपरस्ती में कर दिया गया। इस तरह मीर तक़ी मीर के ग़ुरबत के दिन निकल गए।
मीर तक़रीबन 60 की उमर में दिल्ली छोड़ कर लखनऊ आ बसे। उनके दोबारा दिल्ली जाने जा रिफरेंस हमें नहीं मिला। शायद नहीं ही गए होंगे।
दिल्ली से मजबूर होकर मीर लखनऊ नवाब आसिफुद्दौला के बुलावे पे आए थे। नवाब ने दिल्ली से लखनऊ आने का ख़र्चा दिया था। मीर फ़रुखाबाद होते हुए लखनऊ पहुँचे थे। लखनऊ आने के पांचवें दिन मुर्गबाज़ी की एक लड़ाई के दौरान इनकी नवाब आसिफुद्दौला से मुलाक़ात हुई। नवाब आसिफुद्दौला ने इन्हें तुरन्त पहचान लिया आए लपक के गले लगाया और फिर सालार जंग की दरख़्वास्त पर इन्हें अपने मुलाज़िमों में शामिल कर लिया। लखनऊ में मीर को ख़र्चे की कोई दिक़्क़त नहीं आई बस इनका दिल उचाट रहने लगा।इसकी वजह दिल्ली की यादें थीं जो इनको खाए लिए जा रहीं थीं।
'फिर मैं सूरत-ए-अहवाल हर इक को दिखाता याँ
मुर्रवत कहत है, आँखें नहीं कोई मिलाता याँ '
'खराबा दिल्ली का दह्चंद बेहतर लखनऊ से था
वहीं मैं काश मर जाता, सरासीमा न आता याँ '
मीर को अपनी जुबान पर बहुत नाज़ था। उनका मानना था कि उनकी पुरानी दिल्ली, जामा मस्जिद की सीढ़ियों की, ख़ालिस ज़ुबान के आगे लखनऊ वाले क्या कह पाएंगे! यही वजह है कि लखनऊ की आम महफिलों में उनका बहुत कम आना जाना हुआ करता था।
'किस किस अदा से रखते मैं कहे वले
समझा न कोई मेरी जबान इस दयार में'
ज़ुबान के साथ वो अपनी तहज़ीब को भी लखनऊ से बहुत अलहदा मानते थे। लखनऊ अपनी जिस नाज़ों - अदा और 'पहले आप' पर नाज़ करता था मीर उसे औरताना क़रार देते रहे। अक्सर महफ़िलों में वो लखनऊ वालों से भिड़ तक जाते थे। एक दफ़ा का ज़िक्र है कि किसी बात पर उनका लखनऊ वालों से झगड़ा बढ़ गया तो मीर इतने नाराज़ हो गए कि बोले, ‘हनोज़ (अभी तक) लौंडे हो, कद्र हमारी क्या जानो? शऊर चाहिए इम्तियाज़ (भेद) करने को।’
'ज़िक्रे मीर' से मालूम होता है कि मीर तक़ी मीर बहुत ख़ामोश, संजीदा और सेंसिटिव इंसान थे। अदब और आदाब के बड़े क़ायल थे और बहुत धीमें धीमें बोलते थे।
दिल्ली से बेज़ार होकर मीर ने कई शहरों का रुख़ किया लेकिन आख़िर में नवाब आसिफुद्दौला की इसरार पर लखनऊ को अपना ठिकाना बनाया।
हालांकि मीर ने अपनी पूरी ज़िंदगी लखनऊ में बिताई लेकिन मीर को लखनऊ ना पसंद था। मीर ने जब लखनऊ के रुख़ किया तो उनके पास पूरी सवारी के किराए के पैसे नहीं थे। लिहाज़ा लखनऊ के एक साहिब ए इल्म उनके साथ हो लिए और सवारी के पैसे भी उन्होंने ही देना तय कर लिया। रास्ते भर मीर उनसे मुंह फेर कर बैठे रहे। जब वो साहिब उनसे मुख़ातिब हों तो मीर कोई जवाब ना दें। जब उन्होंने मीर से कहा, कुछ तो फ़रमाइए। रास्ता कट जाएगा!' तब मीर ने जवाब दिया, 'जनाब रास्ता तो कट जाएगा लेकिन मेरी ज़ुबान ख़राब हो जाएगी!'
यही नहीं पहली मुलाक़ात में ही लखनऊ वालों ने उनका दिल दुखा दिया। लखनऊ के इसी पहले इंप्रेशन को मीर ताउम्र दिल से लगा कर बैठ गए।
हुआ कुछ यूं कि जिस दिन मीर लखनऊ आए उसी दिन उन्हें एक मुशायरे में जाना हुआ। मीर लखनऊ के तौर तरीक़ों, नवाबी तहज़ीब से नाआश्ना थे। तो वह अपने पुराने जमाने कपड़ों में ही उस मुशायरे में पहुंच गए। हालांकि उन्होंने अपने लिहाज़ से उन्होंने सबसे अच्छे कपड़े पहनें थे जिसमें पचास ग़ज़ कपड़े का जामा, ऊंची दस्तार, ढीला सिल्क का पायजामा और नक़्क़ाशी दार नोंक से घूमे जूते थे। ये सब नवाबी रवायत से एकदम अलग था। महफ़िल में जब लोगों ने उन्हें देखा तो सब हंस दिए। मीर बहुत दुखी हो गए। उनका दिल टूट गया। दरअसल कोई उन्हें पहचान ना सका कि ये दिल्ली के अज़ीम शायर मीर तक़ी मीर हैं। जब उनके आगे शमा रखी गई और उनसे पूछा गया कि वो कहां से तशरीफ़ लाए हैं तो मीर ने ये शेर पढ़ कर अपना तार्रुफ़ कराया।
'क्या बाद-ओ-बाश पूछो हो, पूरब के शकीनों
हमको ग़रीब जान के, हंस-हंस पुकार के'
'दिल्ली जो एक शहर था, आलम में इंतेख़ाब
रहते थे मुंतख़ाब ही जहां रोज़गार के'
'उसको फलक ने लूट के वीरान कर दिया
हम रहने वाले हैं उसी उजड़े दयार के'
मीर की ग़ज़ल सुन कर लखनऊ वाले बहुत शर्मिंदा हुए और उन्होंने मीर साहब से अपने सुलूक़ के लिए माज़रत चाही।
नवाब आसिफुद्दौला ने उस ज़माने में दो सौ रुपया महीनें की इमदाद मुकर्रर की और रहने के लिए बड़ा कुशादा घर दिया जिसकी खिड़कियां बहुत ख़ूबसूरत बग़ीचे में खुलती थीं। लेकिन मीर अपने घर की खिड़कियां बंद रखते थे। जब लखनऊ वालों ने इनसे कहा कि, 'खिड़कियां तो खोलिए बाहर का नज़ारा किसी बहिश्त से कम नहीं। तो मीर ने कमरे के कोने में पड़े अपनी लिखे कागज़ के पुलिदों की ओर इशारा कर जवाब दिया कि, 'मेरे लिए जो बहिश्त है वो इधर है!'
एक दफ़ा मीर नवाब से मिलने गए तो नवाब ने कहा, 'मीर साहब मैंने कल नई ग़ज़ल के लिए कहलवाया था। ज़रा सुनाइए तो!' मीर ने जवाब दिया, 'हुज़ूर आपने कल हुक़्म दिया तो ग़ज़ल आज कैसे होगी। ग़ज़ल मेरी जेब में तो रहती नहीं जो निकाल कर हुज़ूर की शान में पेश कर सकूं!'
एक बार मीर नवाब आसिफुद्दौला से मिलने गए। नवाब तालाब में मछलियों से खेल रहे थे। नवाब ने कहा, 'मीर साहब कोई ताज़ा ग़ज़ल हुई हो तो सुनाइए।' मीर ने शेर पढ़ने शुरू किए। नवाब तालाब में छड़ी के साथ मछलियों से खेलते रहे। मीर चौथे शेर पर रुक गए। नवाब ने कहा आगे सुनाइए। मीर ने कहा, 'हुज़ूर तो मछलियों से खेल रहे हैं। अगर तवज्जोह हो तो आगे बढ़ें!' नवाब ने कहा, 'जब कोई उम्दा शेर होगा तवज्जोह मिल जाएगी।' मीर को इतना बुरा लगा कि ग़ज़ल मोड़ कर जेब में रख ली और वहां से वापस आ गए। और दोबारा नवाब के पास नहीं गए।
कुछ दिनों बाद नवाब उन्हें बाज़ार में मिले। लपक कर कहा, 'मीर साहब आपने तो हमें बिलकुल छोड़ ही दिया। कभी हमारी ओर भी रुख़ करिए।' मीर ने जवाब दिया, 'हुज़ूर, अदबी औऱ इखलाक़ पसंद के लिए बाज़ार में खड़े होकर बात करना मुनासिब नहीं!'
कहतें हैं मीर ने इसके बाद नवाब के यहां जाना बंद कर दिया और ग़ुरबत की ज़िंदगी बिताना तय किया।
जिगर मुरादाबादी की ग़ज़ल की के दो शेर है:-
राज़ जो सीना-ए-फ़ितरत में निहाँ होता है
सब से पहले दिल-ए-शाइ'र पे अयाँ होता है
जब कोई हादसा-ए-कौन-ओ-मकाँ होता है
ज़र्रा ज़र्रा मेरी जानिब निगराँ होता है
जो बताते हैं कि एक शायर का दिल इतना सेंसिटिव होता है कि उस पर उसके दौर में घटे तमाम इवेंट्स का सबसे पहले और सबसे गहरा असर होता है।
जिगर के ये अशआर मीर पे पूरी तरह से चस्पां होते हैं और उनके क्रॉनिकलेर होने की ताईद करते हैं।
मीर का ज़िन्दगीनामा महज़ उनकी आपबीती ही नहीं उस दौर के हादसात / वाक़्यात का बहुत ज़रूरी दस्तावेज़ भी है। मीर हिस्टोरियन नहीं हैं लेकिन उन्होंने जो देखा वो लिखा। ये उनका फर्स्ट पर्सन एकाउंट है। जिसको निगेट नहीं किया जा सकता। मीर के हिस्टॉरिकल एकाउंट्स को उस दौर के प्राइमरी सोर्सेज़ में शामिल किया जाना जरूरी है। मीर का दौर वो दौर था जब हिंदुस्तान यानि दिल्ली बाहरी हमलावरों के लगातार हमलों का शिकार हो रहा था।
दिल्ली छोड़ने के बावजूद उनके दिल से दिल्ली कभी नहीं निकली। इतने सेल्फ रिस्पेक्टिंग थे कि उन्होंने ज़िंदगी ग़रीबी - मुफ़लिसी में बिताना मंज़ूर किया लेकिन अपनी सेल्फ़ रिस्पेक्ट से कोई समझौता नहीं होने दिया। ज़ईफ़ी और लाचारगी के आलम के बावजूद उनकी ठसक कभी नहीं गई।
एक दफ़ा लखनऊ में कुछ शायर मीर के घर पहुंच गए और कहलवाया कि वो मीर साहब को सुनने आए हैं। मीर ने घर के बाहर टाट की पट्टी बिछवा दी और सबको ज़मीन पर बिठवा दिया। कुछ समय बाद जब वो बाहर निकल कर आए तो शायरों ने कहा, 'मीर साहब कुछ सुनाइए!' मीर ने कहा, ' आप हज़रात हमें कहां समझ पाएंगे? हमारी ज़ुबान अलग है आपकी अलग।' शायरों ने कहा, 'ऐसा नहीं है मीर साहब, हम भी साहिबे इल्म हैं। अनवरी और ख़ाकानी को बाक़ायदा समझ की क़ुव्वत रखते हैं!' तब मीर ने अपना एक शेर सुनाया:-
' इश्क़ हमारे ख़्याल पड़ा है ख़्वाब गया आराम गया
जी का जाना ठहर चुका है सुबूं गया या शाम गया'
और कहा , 'आप लखनऊ वाले इसे कैसे समझ सकते हैं!'
मीर ने अपने जीते जी लखनऊ को ना तो कभी तवज्जोह दी और ना ही पसन्द किया।
आसिफुद्दौला की मौत के बाद मीर का वज़ीफ़ा बंद हो गया था और दिन बड़े ख़राब दौर से गुज़र रहे थे। आसिफुद्दौला के बाद सआदत अली ख़ान तख़्त नशीन हुए। बहुत अरसे तक उन्होंने मीर का कोई हाल नहीं लिया। एक दिन नवाब सआदत अली ख़ान सड़क से गुज़र रहे थे मीर लखनऊ की तहसीन मस्जिद पर बैठे थे। नवाब को देखकर भी वो खड़े नहीं हुए। नवाब ने पूछा कि ये कौन है जो उनको देख कर भी खड़ा नहीं हुआ। नवाब को बताया गया कि ये मीर तक़ी मीर हैं जो बड़ी मुफ़लिसी में जी रहे हैं लेकिन इनका मिज़ाज ही ऐसा है। सआदत अली ख़ान ने मीर को तुरंत अपने कोर्ट में एक हज़ार के वज़ीफ़े पर रखने की दावत उन तक पहुँचवाई। मीर ने मना कर दिया और कहा कि इस रक़म को किसी मस्जिद में दे दें। मीर इस बात से नाराज़ थे कि उनको जानते हुए भी नवाब ने इतने दिनों तक उनकी सुध क्यों ना ली और ये पैग़ाम एक दस रुपये महीने की तनख्वाह वाले कारिंदे के हाथ भिजवाया। नवाब उन्हें लेने खुद क्यों नहीं आए!
कहतें हैं मीर की बेहतरीन शायरी का दौर दिल्ली तक ही रहा। लखनऊ में उन्होंने कुछ ख़ास नहीं लिखा सिवाए मसनवीं और आसिफुद्दौला के शिकारनामों के।
मीर तक़ी मीर बहुत बड़ा इंसान था। बिला शक़ शायरी का खुदा था जिसे आज भी 'खुदा-ए-सुखन' कहते है!
मिर्ज़ा ग़ालिब की वरस्टैलिटी को कोई चैलेंज नहीं कर सकता लेकिन मिर्ज़ा ग़ालिब भी मीर नहीं थे! और इस बात को ग़ालिब ने ख़ुद क़ुबूल किया है:-
'ग़ालिब अपना यह अकीदा है बकौल-ए-नासिख
आप बेबहरा है जो मोताकिद-ए-मीर नहीं '
• नासिख- लिखने वाला
• बेबरहा है- ग़रीब हैं
• जो मोताकिद-ए-मीर नहीं - अगर मीर के मानने वाले नहीं
या
'रेख्ता के तुम ही उस्ताद नहीं हो 'ग़ालिब'
कहते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था'
ग़ालिब के ही कॉंटेम्परेरी एक बहुत बड़े शायर थे शेख इब्राहिम ज़ौक़। ज़ौक़ ने मीर तक़ी मीर पर कहा है:-
'न हुआ पर न हुआ मीर का अंदाज़ नसीब
" ज़ौक" यारों नें बहुत जोर ग़ज़ल में मारा'
मीर गिफ़्टेड इंसान थे। ऐसे गिफ़्टेड जो एक क्या कई सदियों में बमुश्किल एक या दो ही सामने आ पाते हैं। ज़िंदगी के तमाम तजुर्बात से भरे थे। इश्क़ की दीवानगी और नाक़ामी ने उन्हें सेंसिटिविटीज़ से लबरेज़ कर दिया था। जब आम फ़हम ज़ुबान में शायरी करने लगे तो उनका कोई सानी न रहा।
'ज़िक्रे मीर' के आख़िर में मीर ने लिखा:-
'ये दुनिया अजीब आफ़तों की जगह है। ... इन आँखों ने क्या क्या कुछ देखा। इन कानों ने क्या क्या कुछ सुना।
...ये दुनिया एक बड़ी कहानी है जिसका एक टुकड़ा हमने बयां किया। बाक़ी टुकड़ा कोई दूसरा बयान करेगा।
एक छोटी सी मुद्दत में खून के इस टुकड़े ने, जिसे दिल कहते हैं, रंग रंग के दुख झेले हैं और ख़ूना ख़ून हो गया। तबियत उचाट हो गई है। सबसे मिलना जुलना बंद कर दिया है।
... अब दामन खींच लेना ही अच्छा है। अगर मर जाऊं तो यही आरज़ू है। और अगर ना मरूं तो सब ख़ुदा के हाथ है!'
आख़िरी दम तक ये लखनऊ में रहे और यहीं इनका इंतकाल हुआ। कहतें हैं इनको गोला गंज के आस पास कहीं दफ़नाया गया था। कुछ समय बाद उधर से कोई रेलवे लाइन निकलनी थी या रेलवे स्टेशन बनना था तो मीर की क़ब्र वहीं कहीं दब कर खो गई।
(रमन हितकारी के फ़ेसबुक पेज से साभार)