झारखंड के विधायकों द्वारा मुख्यमंत्री चुन लिए जाने के बाद हेमंत सोरेन जब अपने शपथ ग्रहण समारोह का न्यौता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह को देने दिल्ली आए तो कई लोगों को हैरानी हुई क्योंकि उनकी पिछली पारी में इसी जोड़ी ने उनका राज करना मुश्किल कर दिया था और आखिर में लंबी जेल भी काटने को मजबूर किया था। चुनावी लड़ाई में भी चंपाई सोरेन और सीता सोरेन जैसे क़रीबी लोगों को तोड़कर भाजपा ने अपनी राजनैतिक लड़ाई को काफी हद तक सोरेन परिवार के खिलाफ निजी खुंदक जैसा बना लिया था।
पर जो लोग हेमंत सोरेन और झारखंड के आम आदिवासियों का स्वभाव जानते थे उनके लिए यह न्यौता न तो महज औपचारिकता था ना ही भाजपा के जले पर नामक छिड़कने की कोशिश। न ही इसमें यह जताने का भाव था कि आपने जितना परेशान किया मुझे आदिवासियों और झारखण्डियों का उतना ही पक्का समर्थन मिला। बताना न होगा कि मोदीजी और शाह की अनुपस्थिति के बिना भी हेमंत सोरेन का शपथ ग्रहण समारोह ग्रैंड था और उन्होंने चुनावी वायदों को पूरा करने का भरोसा दिया।
हेमंत ने इस अवसर पर ही नहीं, अपनी सरकार को गिराने की भाजपाई कोशिश के पूरे पाँच साल के दौर में बहुत ही मैच्योर पॉलिटीशियन होने का प्रमाण दिया, जो उनके पिता शिबू सोरेन अर्थात गुरु जी समेत कोई आदिवासी नेता नहीं देता था। आम स्वभाव में अन्याय का तगड़ा प्रतिरोध करने वाला आदिवासी अक्सर ऐसी स्थितियों में काफी उग्र प्रतिक्रिया देता रहा है जबकि उसके नेता लोभ और दबाव में टूट जाते रहे हैं। यह बात देश भर पर लागू होती है लेकिन झारखंड पर खास तौर से। लेकिन जनता का बगावती तेवर मद्धिम नहीं पड़ा है।
हेमंत ने इसी स्वभाव को पहचान कर उसे अपनी लड़ाई का मुख्य हथियार बनाया। उन्होंने झारखंड और आदिवासियों से भेदभाव का सवाल केन्द्रीय रखा और अपना दावा कभी कमजोर नहीं पड़ने दिया। और जब जेल जाने की स्थिति बनी तो सीधी टकराहट (जैसा दिल्ली में अरविन्द केजरीवाल ने दिखाया) या अपने परिवार के किसी को कुर्सी सौंपने की जगह कोलहान टाइगर नाम से मशहूर चंपाई सोरेन को गद्दी सौंप दी। जेल से छूटने के बाद उन्होंने गद्दी वापस ली तो भाजपा ने उसे भी मुद्दा बनाकर और कुछ लोभ देकर चंपाई को अपने पक्ष में किया। माना जाता है कि अगर उनके निर्वाचन क्षेत्र में आदित्यपुर और गमरिया जैसे जमशेदपुर के शहरी हिस्से न होते तो उनको भी आदिवासी नकार चुके होते।
चंपाई हों या सीता सोरेन, उनका व्यवहार पहले कांग्रेस या भाजपा या कहें सत्ता के प्रलोभनों और दबाव में टूटे अन्य आदिवासी नेताओं जैसा ही रहा। जबकि हेमंत ने तब भी दो पावर सेंटर न बनने देने की जबरदस्त व्यावहारिक सोच दिखाते हुए (कहा जाता है कि यह सुझाव सोनिया गांधी का था) मुख्यमंत्री की कुर्सी वापस ले ली।
हेमंत ने कितनी मुश्किल लड़ाई को किस आसानी से जीत लिया। शिवराज सिंह चौहान और हिमंत बिस्व सरमा जैसों की महीनों की कवायद और भाजपा का सारा संसाधन धरा रह गया।
घुसपैठ का मुद्दा बनाने के लिए भाजपा ने (जिसके असली सूत्रधार मोदी-शाह ही रहे) आखिरी दिन तक छापा, गिरफ़्तारी, कथित मनी-ट्रेल बनाने जैसी सारी तैयारियां पूरी कर ली थी, लेकिन कुछ काम न आया। बल्कि उसे अब तक आराम से मिलने वाला ओबीसी वोट भी इस बार पहले से कम हुआ और उसे सिर्फ शहरी और अगड़ा वोटरों का सहारा रह गया। आदिवासी वोट तोड़ने की सारी कवायद फेल हो गई और अंतिम समय में अपनी पार्टी का विलय करके भाजपा अध्यक्ष बने बाबूलाल मारांडी को भूमिहार वोट के सहारे जीतना पड़ा। इसके लिए नाराज पूर्व सांसद रवींद्र राय को मनाने और बागी नित्यानंद राय को बैठाने में जोर लगाना पड़ा। उल्लेखनीय है कि भाजपा की तरफ से सिर्फ बाबूलाल मारांडी और चंपाई सोरेन ही जीत पाए थे।
हेमंत की सफलता दो सीटों को छोड़कर सारे आदिवासी ठिकानों से अपने अर्थात झामुमो और इंडिया गठबंधन के उम्मीदवार जिताना ही नहीं है। उसे इनसे या अधिकांश आदिवासी वोट पाने भर से ठीक से समझा ही नहीं जा सकता। सारी रिजर्व सीटों पर तो भाजपा पिछली बार भी हारी थी। हेमंत का असली बड़ा काम है अलग अलग कबीलों में अब तक बंटे रहे झारखंड के आदिवासी समाज को एकजुट करना। आपको याद होगा कि मुख्यमंत्री रहते हुए भी शिबू सोरेन उरांव प्रभुत्व के तमाड़ इलाके में जाकर अनजान पीटर से हार गए थे।
आदिवासियों की नई एकजुटता तो भाजपा द्वारा पहला गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री (रघुवर दास) बनाने से ही शुरू हुई थी लेकिन उसे एक अंजाम तक लाना आसान न था। हेमंत न यह काम किया और आज वे शिबू सोरेन समेत किसी भी आदिवासी नेता की तुलना में बड़ा और ज्यादा ताकतवर बन चुके हैं। इसलिए अब उनकी जबाबदेही ज्यादा बड़ी है- झारखंड के साथ मुल्क भर के आदिवासियों की आवाज बनना और देश की राजनीति में आदिवासी स्वर को अधिक प्रमुख स्थान दिलाना। हेमंत ने अपना कौशल इंडिया गठबंधन के साथी दलों के दावों और उम्मीदवारों को संभालने में भी दिखाया। यह जरूर है कि राहुल गांधी ने उनको फ्री-हैंड दिया लेकिन झारखंड चुनाव अभियान लगभग पूरी तरह हेमंत के कंधों से ही चला।
और अगर कोई श्रेय में दावेदारी कर सकता है तो वह उनकी पत्नी कल्पना सोरेन ही हैं जिन्होंने घटक दलों की पंचायत या सरकारी कामकाज भी निपटाने जैसे जिम्मों से मुक्त होकर हेमंत से भी ज्यादा चुनावी सभाएं कीं। वे अच्छा बोलती हैं तथा कार्यकर्ताओं और खास तौर से महिलाओं के बीच अच्छे व्यवहार से असर छोड़ती हैं। बिना किसी राजनैतिक प्रशिक्षण के एक बार में ऐसी भूमिका निभाकर उन्होंने सबको हैरान किया है। भाजपा ने चाहे जिस रणनीति से हेमंत को जेल भेजा हो पर उसने कल्पना न की थी कि इस संकट से कल्पना सोरेन जैसी नेता उभर आएँगी।
झारखंड के आदिवासियों में औरतों का स्थान आम हिन्दुस्तानी परिवार से ऊंचा है, उनकी आर्थिक कामकाज में भी हिस्सेदारी ज्यादा होती है लेकिन विधायक-सांसद होकर भी आदिवासी महिलाएं पार्टी के नेतृत्व में या राज्य की राजनीति में नेतृत्व नहीं करती थीं। कल्पना सोरेन के रूप में इस बार उन्हें एक नया नेता मिला है तो हेमंत सोरेन को बोनस। और हैरानी नहीं कि लड़ाई में हेमंत सोरेन ने इस सहारे से हिमंत बिस्व सरमा को उनके राजनैतिक कैरियर का सबसे बड़ा झटका दिया है।