“यह बहुसंख्यकों का कर्तव्य है कि वे अल्पसंख्यकों के विरुद्ध भेदभाव न करें। अल्पसंख्यकों का (देश में) निरंतर होना या मिटना बहुसंख्यकों के व्यवहार पर निर्भर करता है।” -डॉ. आंबेडकर, नवंबर 4, 1949
“हम, जोकि बहुसंख्यक हैं, अल्पसंख्यकों के संबंध में सोचें कि उनकी भावना क्या है। यह भी विचार करें कि यदि हम लोग उनकी जगह हुए होते और उनके साथ आज जैसा व्यवहार हो रहा है, वैसा ही हमारे साथ होता तो हमें कैसा लगता।” -सरदार पटेल, 25 मई, 1949
हाल ही में देश के विख्यात वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे की छोटे पर्दे पर गहरे तक दिल-दिमाग़ को झकझोरने वाली ‘पुकार’ सुनी। क्षण थे जब वे जामामस्जिद (संभल), ज्ञानव्यापी मस्ज़िद (बनारस), ख्वाज़ा दरगाह शरीफ़ (अजमेर) जैसे सदियों पुराने अल्पसंख्यक धार्मिक स्थलों को लेकर हिन्दुत्ववादियों द्वारा उठाये जा रहे आक्रामक विवादों पर अपने उद्गार व्यक्त कर रहे थे। जाने-माने वरिष्ठ पत्रकार करण थापर के साथ इंटरव्यू में सुप्रीम कोर्ट के वकील दवे की पीड़ा छलक गई और रुआंसे स्वरों में उन्होंने हैरानी जताई कि ये लोग पांच हज़ार साल पुराने भारत को क्या बनाना चाहते हैं? “मुझे गर्व है मैं हिन्दू हूं, ब्राह्मण हूँ। लेकिन, मेरी संस्कृति-सभ्यता तमाम संस्कृतियों को आत्मसात करने की रही है। यह विभाजनकारी नहीं है। ऐसे विवादों से देश का विकास नहीं होगा।” अक़्सर वक़ील व्यावहारिक व यथार्थवादी माने जाते हैं। उनकी भावना, भावुकता और संवेदनशीलता के साथ मित्रता संकोच के साथ ही होती है। लेकिन, टीवी स्क्रीन पर दवे के रुंधे स्वर और चेहरे से संवेदनशील नागरिक व देशभक्त भारतीय द्रवित हुए बिना नहीं रहेंगे। सोचने के लिए विवश हो जाएंगे कि कहीं 140 करोड़ के भारत राष्ट्र को किसी अंधी सुरंग में धकेला तो नहीं जा रहा है, जिसमें दीवारों से टकरा टकरा कर लहूलुहान होने के अलावा कुछ नहीं है!
ख्वाज़ा ग़रीब नवाज़ दरग़ाह शरीफ के साथ साथ अब ‘ढाई दिन का झोंपड़ा’ भी विवादों में घिर गया है। अजमेर में दोनों स्थान आस-पास ही हैं। कट्टरपंथी तत्वों की मांग है कि दोनों स्थानों पर हिन्दुओं के मंदिर थे। मुग़लों ने 16वीं सदी में उन्हें तोड़ कर ही दरग़ाह और झोंपड़े को बनाया है। इस विवाद ने मुझे भी हिला दिया। मुझे याद है, मैंने 1970 में दोनों स्थानों का दौरा किया और तत्कालीन प्रतिष्ठित पत्रिका ’दिनमान’ की आवरण कथा लिखी थी। काफी चर्चित हुई थी। वह दरग़ाह के ‘उर्स’ का समय था। सभी समुदाय के स्त्री-पुरुष -बच्चों का जमावड़ा था। किसी भी प्रकार का तनाव नहीं था। सम्पादक रघुवीर सहाय चाहते थे कि दर्शनार्थियों के सामाजिक तानेबाने को ध्यान में रख कर कथा लिखूं। निश्चित ही दरग़ाह परिसर में इंद्रधनुषी सौहार्द की छटा छाई हुई थी। सबसे पहले दोनों स्थानों को 1956 में देखा था। लेकिन, अब दोनों स्थानों को लेकर सर्वे की मांग की जा रही है। यह कितनी चिंताजनक मांग है।
कट्टर हिंदुत्ववादी और बौद्ध मठ
इतिहास के सफ़ों पर उत्सव और त्रासदी, दोनों के दृश्य दिखाई देते हैं। किसे देखना, किसे अस्वीकार करना है, यह आपकी वैचारिक दृष्टि पर निर्भर है। क्या बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय का हिंदुत्ववादी तबक़ा प्राचीन भारत में बौद्धों के साथ किये गए अत्याचारों पर भी नज़र डालेगा? इतिहास साक्षी है, उत्तर मौर्य काल में कट्टर हिन्दुपंथियों और शैववादियों ने हज़ारों बौद्ध स्तूपों, मठों व अन्य पूजास्थलों को जलाया, धवस्त किया। इतना ही नहीं, गौतम बुद्ध के हज़ारों अनुयायिओं को मारा। सम्राट अशोक -शासन के पतन के पश्चात् कट्टर ब्राह्मणवादी पुष्यमित्र शुंग ने चुन चुन कर परधर्मियों या श्रावकों का दमन किया, उनके पूजास्थलों को ध्वस्त किया। कल्हण की राजतरंगिणी में बौद्ध पूजास्थलों के ध्वंस के उल्लेख मिलते हैं। इतना ही नहीं, ऐसे भी उल्लेख हैं कि ब्राह्मणवादी राजाओं ने श्रावकों की हत्या पर मुद्रा-पुरस्कार भी रखा था।
व्याकरणाचार्य पातंजलि ने अपने महाभाष्य में लिखा है कि ब्राह्मण और श्रावकों के सम्बन्ध शत्रुतापूर्ण थे। पाटलीपुत्र (पटना) में अशोक स्तम्भ सभागार को नष्ट किया गया। बोधगया में बोधि वृक्ष को गिराया गया। बुद्ध की प्रतिमा को हटाकर उसके स्थान पर महेश्वर की मूर्ति लगाई गयी। चीनी यात्री हून त्सांग (7वीं सदी) ने लिखा है कि नालंदा विश्वविद्यालय के पुस्तकालय को कट्टर हिन्दुपंथियों ने आग के हवाले कर दिया था। (कई सौ साल बाद प्रचारित किया गया कि बख्तियार खिलज़ी के कमांडर ने जलाया था।) ब्राह्मणवादियों को यह विश्व विख्यात बौद्ध शिक्षण संस्थान पसंद नहीं था। विदेशी यात्री यह भी कहता है कि शिवभक्त हूण शासक मिहिरकुला ने 1,600 बौद्ध स्तूपों को गिराया और हज़ारों बौद्ध संन्यासियों को मारा भी।
ऐतिहासिक साक्ष्य हैं कि 12वीं सदी में पुरी में प्रसिद्ध जगन्नाथ मंदिर का निर्माण भी बौद्ध पूजाघर के स्थान पर हुआ है।
इतिहास यह भी बतलाता है कि पुरी में ही “ पूर्णेश्वर, केदारेश्वर, कंटेश्वर, सोमेश्वर और अंगेश्वर मंदिर का निर्माण भी बौद्ध विहारों और उनकी निर्माण सामग्री से हुआ है।” शिव भक्तों ने सबसे अधिक बौद्ध पूजा स्थलों को ध्वस्त किया था। मध्य प्रदेश की खजुराहो में भी बौद्ध पूजाघर थे। चंदेला शासन के दौरान (9 - 10 वीं सदी) उन्हें ध्वस्त कर हिन्दू मंदिर बनाये गए। उत्तर प्रदेश के कौशाम्बी में मठ जलाये गए। इसी प्रकार गांधार (अब अफगानिस्तान) में करीब 1000 संघ आश्रम थे। उन्हें खंडहरों में तब्दील कर दिया गया। गुजरात में सोमनाथ मंदिर के नीचे भी बौद्ध पूजा स्थल बताया गया। (पढ़ें, भारत के विख्यात इतिहासकार डी.एन. झा की पुस्तक - Against The Grain: Notes On Identity, Intolerance And History)। दैनिक भास्कर के अनुसार, पुरातत्व विभाग ने खुलासा किया है कि सोमनाथ मंदिर के नीचे तीन मंज़िला ढांचा और बौद्ध गुफाएं हैं, ज़मीन से 12 मीटर अंदर तक जांच की गयी है। 2017 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आदेश पर गांधीनगर आईआईटी और पुरातत्वविभाग ने सोमनाथ मंदिर के नीचे के ढांचे का सर्वे किया था। 32 पेज़ी रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि वहां एक ढांचा और बौद्ध गुफाएं हैं।
बेशक़, मुस्लिम काल में मंदिर गिराए गए थे। सोमनाथ मंदिर को भी तहस-नहस किया गया था। संभल और अयोध्या को लेकर 16 वीं सदी के बाबर को भी कटघरे में खड़ा किया जा चुका है। बाबर सेंट्रल एशिया का था। रास्ते में बामियान क्षेत्र में गौतम बुद्ध की विशाल आदम कद मूर्ति थी। वह पांच सौ साल तक सुरक्षित रही। इस सदी में तालिबानों ने उसे गिराया था। सेंट्रल एशिया के देशों में अब भी बुद्ध की मूर्तियां हैं। जहाँ तक बाबर, औरंगज़ेब जैसे बादशाहों का सवाल है, इसके संबंध में इतना ही कहा जा सकता है कि शासकों (सभी धर्मों के) का एक ही धर्म होता है और वह है -’सत्ता धर्म’। आगरा पहुँचने से पहले बाबर ने हज़ारों सहधर्मियों को मारा था, जो उसका विरोध कर रहे थे। काबुल में मज़ार गिराई थी। इस संबंध में बाबर की आत्मकथा ‘बाबरनामा को पढ़ना उपयोगी रहेगा। भारत में भी हिन्दू राजा सत्ता के लिए परस्पर लड़ते रहे हैं। राजस्थान में ऐसी लड़ाइयां आम रही हैं। कर्नल जेम्स टॉड की पुस्तक - :: एनल्स एंड एंटिक्विटीज ऑफ़ राजस्थान में ऐसी घटनाएं प्रचुर मात्रा में हैं। दक्षिण में भी ऐसा होता रहा है। राजसत्ता के लिए धर्म-मज़हब का इस्तेमाल वैश्विक परिघटना है।
धर्म-मज़हब राष्ट्र की एकता की गारंटी नहीं
गंभीरता से देखें-सोचें, कोई भी धर्म-मज़हब राष्ट्र की एकता की गारंटी नहीं होता है। 1947 में भारत का विभाजन धर्म-मज़हब के नाम पर हुआ था। लेकिन, क्या मुस्लिम पाकिस्तान एक रह सका। 1971 में इसकी पूर्वी भुजा (पूर्वी पाकिस्तान) टूटकर बांग्लादेश में परिवर्तित हो गई। यह जानना दिलचस्प रहेगा कि पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान, दोनों ही जगह सुन्नी मुस्लिम समुदाय सत्ता में थे। अब भी पाकिस्तान अशांत है और बलोचिस्तान के मुस्लिम आज़ादी की मांग कर रहे हैं। एक समय आज़ादी के लिए सिंध में ‘जियो सिंध’ आंदोलन चल चुका है। इस्लाम पाकिस्तान की आर्थिक दुर्दशा को ठीक नहीं कर सका है। अब बांग्लादेश भी पाकिस्तान की राह पर चल पड़ा है। इसके साथ ही क्या अफ़ग़ानिस्तान में विभिन्न मुस्लिम समुदायों के बीच लड़ाइयां नहीं हो रही हैं? ईरान और इराक़, दोनों ही शिया प्रधान देश हैं। पिछली सदी में दोनों ही देश 8 -10 साल आपस में लड़ते रहे हैं। लाखों लोग मारे गए थे।
ईरान में धर्माधिकारियों की हुकूमत होने के बावज़ूद वहां बेरोज़गारी व ग़रीबी बदस्तूर है। क्या अरब के मुस्लिम देशों में शांति है?
इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक और सीरिया जैसी कट्टरपंथी संस्था ने तबाही मचा रखी है। क्या रोहिंग्या मुसलमानों को मुस्लिम देश अपने यहां नागरिकता प्रदान करेंगे? यदि धर्म ही सब कुछ है, तब पड़ोसी देश नेपाल और भारत को एक हो जाना चाहिए। नेपाल में हिन्दू बहुसंख्यक हैं। क्या यूरोप के ईसाई देश आपस में नहीं लड़ते रहे हैं? क्या ईसाई हिटलर ने फ्रांस पर कब्ज़ा नहीं किया था? क्या पोलैंड को उसने गुलाम नहीं बनाया था? आज़ इसराइल के साथ फिलिस्तीनी मुस्लिमों की जंग ज़ारी है। हज़ारों लोग मर चुके हैं। क्यों नहीं मिश्र, सऊदी अरब, जॉर्डन, तुर्की आदि मुस्लिम देश अपने सहधर्मियों की खुलकर मदद कर रहे हैं?
सारांश में, धर्म-मज़हब और उनके अस्तित्व प्रतीक (पूजाघर या इबादतगाह) किसी भी राष्ट्र की एकात्मकता का एकमात्र आधार नहीं होता है। यह कई आधारों में से एक है। अतः इस सदी के हाई-टेक युग में मध्ययुगीन मानसिकता से लैस हो कर ‘चुके- हुए -प्रतीकों‘ को पहचान की राजनीति का माध्यम बनाना, कहां तक तर्क संगत है? क्या इन प्रतीकों के सहारे चांद पर उतरेंगे और मंगल ग्रह पर थाप देंगे? क्या प्रतीकों के युद्ध और इतिहास में हुए अन्यायों को पुनर्जीवित कर विश्व की तीसरी ‘आर्थिक शक्ति’ बन सकते हैं? क्या प्रतीक -जंग के माहौल में कभी ‘ओलम्पिक गेम’ खेले जा सकेंगे? क्या बाबरी मस्ज़िद गिराने से गरीबी व बेरोज़गारी दूर हो गई है? क्या ज्ञानव्यापी मस्ज़िद , संभल जामामस्जिद, ख्वाज़ा शरीफ व ढाई दिन का झोंपड़ा आदि स्थानों के सर्वे से ग्रॉस डोमेस्टिक प्रोडक्ट यानी जीडीपी 5.7 से छलांग लगा कर 8 -10 तक पहुँच जायेगा? क्या भारत ग़रीबी -सूचकांक में नीचे 102 स्थान से ऊपर उछाल लगा कर पचास पर पहुँच सकेगा? क्या भुखमरी और मृत्यु दर से मुक्ति मिल सकेगी?
मैं पुनः दुष्यंत दवे के सवाल पर लौट रहा हूं। उन्होंने यह भी सवाल देश के कट्टर पंथियों के सामने रखा था : आप 15 -20 करोड़ मुसलमानों का क्या करेंगे? क्या विवादास्पद मस्ज़िद को ध्वस्त करने और उसके स्थान पर मंदिर बनाने से भारत तरक़्क़ी कर लेगा? इसी से जुड़ा इस लेखक का सवाल भी है- 6 दिसंबर, 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्ज़िद के ध्वस्त होने के पश्चात् देश की मूलभूत समस्याओं का हल हो सका है?