बहुचर्चित पूर्व आईपीएस अधिकारी संजीव भट्ट को 1997 के हिरासत में यातना मामले में बहुत बड़ी राहत मिली है। गुजरात के पोरबंदर की एक अदालत ने उनको बरी कर दिया है। आरोप लगाने वाला पक्ष सबूत नहीं दे पाया और संदेह का लाभ देते हुए भट्ट को बरी किया गया। भट्ट पर कम से कम दो ऐसे मामले हैं जिनमें उनको बेहद लंबी सजा मिली है। इसमें से एक में तो आजीवन कारावास और दूसरे में 20 साल की सजा शामिल है। एक और मामले में वह आरोपी हैं।
संजीव भट्ट दो दशक से ज़्यादा समय से सुर्खियों में रहे हैं। पहले जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब से ही। भट्ट तब सुर्खियों में आए थे जब उन्होंने 2002 के गुजरात दंगों में तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की भूमिका का आरोप लगाते हुए शीर्ष अदालत में एक हलफनामा दायर किया था। एक विशेष जांच दल ने इन आरोपों को खारिज कर दिया। उन्हें 2011 में सेवा से निलंबित कर दिया गया था और अगस्त 2015 में गृह मंत्रालय ने अनधिकृत अनुपस्थिति के लिए उन्हें बर्खास्त कर दिया था।
संजीव भट्ट फ़िलहाल राजकोट सेंट्रल जेल में बंद हैं। उनको इससे पहले जामनगर में 1990 के हिरासत में मौत के मामले में आजीवन कारावास और पालनपुर में राजस्थान के एक वकील को फंसाने के लिए ड्रग्स रखने से संबंधित 1996 के मामले में 20 साल जेल की सजा सुनाई गई थी। उनको जिस मामले में बरी किया गया है वह उनके पोरबंदर में पुलिस अधीक्षक रहने के दौरान से जुड़ा है।
भट्ट उस समय पोरबंदर के पुलिस अधीक्षक यानी एसपी के रूप में कार्यरत थे। उन पर भारतीय दंड संहिता की विभिन्न धाराओं के तहत आरोप लगाया गया था, जिसमें कबूलनामा प्राप्त करने के लिए गंभीर चोट पहुंचाना भी शामिल था। पीटीआई की रिपोर्ट के अनुसार, अतिरिक्त मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट मुकेश पंड्या ने शनिवार को फ़ैसला सुनाते हुए कहा कि अभियोजन पक्ष संदेह से परे मामले को साबित करने में विफल रहा है। अदालत ने अपर्याप्त सबूतों के कारण भट्ट को संदेह का लाभ दिया।
अदालत ने माना कि अभियोजन पक्ष संदेह से परे मामले को साबित नहीं कर सका कि शिकायतकर्ता को अपराध कबूल करने के लिए मजबूर किया गया था और खतरनाक हथियारों व धमकियों का उपयोग करके आत्मसमर्पण करने के लिए मजबूर किया गया था।
अदालत ने यह भी नोट किया कि आरोपी, जो उस समय अपने कर्तव्य का निर्वहन कर रहे एक लोक सेवक था, पर मुक़दमा चलाने के लिए ज़रूरी मंजूरी नहीं ली गई थी।
बता दें कि भट्ट और कांस्टेबल वजुभाई चाउ पर भारतीय दंड संहिता की धारा 330 (स्वीकारोक्ति के लिए चोट पहुंचाना) और 324 (खतरनाक हथियारों से चोट पहुंचाना) के तहत आरोप लगाए गए थे। ये आरोप नारन जादव की शिकायत पर लगाए गए थे। उन्होंने आरोप लगाया था कि आतंकवादी और विघटनकारी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (टाडा) और शस्त्र अधिनियम के मामले में पुलिस हिरासत में कबूलनामा लेने के लिए उसे शारीरिक और मानसिक यातना दी गई थी। कोर्ट के निर्देश के बाद 15 अप्रैल, 2013 को पोरबंदर शहर के बी-डिवीजन पुलिस स्टेशन में भट्ट और चाउ के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की गई थी। 1994 के हथियार बरामदगी मामले में जादव 22 आरोपियों में से एक था।
अभियोजन पक्ष के अनुसार, पोरबंदर पुलिस की एक टीम 5 जुलाई, 1997 को अहमदाबाद की साबरमती सेंट्रल जेल से ट्रांसफर वारंट पर जादव को पोरबंदर में भट्ट के घर ले गई थी। जादव को उसके गुप्तांगों सहित शरीर के विभिन्न हिस्सों पर बिजली के झटके दिए गए। उसके बेटे को भी बिजली के झटके दिए गए।
बाद में शिकायतकर्ता ने न्यायिक मजिस्ट्रेट की अदालत को यातना के बारे में बताया, जिसके बाद जांच के आदेश दिए गए। साक्ष्य के आधार पर अदालत ने 31 दिसंबर, 1998 को मामला दर्ज किया और भट्ट और चाउ को समन जारी किया।
भट्ट 1990 के जामनगर हिरासत में हुई मौत के मामले में आजीवन कारावास की सजा काट रहे हैं। मार्च 2024 में, पूर्व आईपीएस अधिकारी को बनासकांठा जिले के पालनपुर की एक अदालत ने 1996 में राजस्थान के एक वकील को फंसाने के लिए ड्रग्स रखने के मामले में भी 20 साल कैद की सजा सुनाई थी।
वह कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ और गुजरात के पूर्व पुलिस महानिदेशक आर बी श्रीकुमार के साथ 2002 के गुजरात दंगों के मामलों के संबंध में कथित तौर पर सबूत गढ़ने के मामले में भी आरोपी हैं।
भट्ट ने तत्कालीन अतिरिक्त एसपी के रूप में अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के लिए भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी की 'रथ यात्रा' को रोकने के खिलाफ 'बंद' के आह्वान के बाद जामजोधपुर शहर में हुए सांप्रदायिक दंगे के बाद 30 अक्टूबर, 1990 को लगभग 150 लोगों को हिरासत में लिया था। हिरासत में लिए गए लोगों में से एक प्रभुदास वैष्णानी की रिहाई के बाद अस्पताल में मृत्यु हो गई थी।