अपने देश भारत में सत्ताधारी राजनीतिक पार्टियों के लिए महात्मा गाँधी के राजनीतिक दर्शन को अपनी राजनीति का आधार बताना फ़ैशन है। कांग्रेस, बीजेपी और ग़ैर-कांग्रेस सरकारें इस देश में राज कर चुकी हैं। इंदिरा गाँधी के समय में तो कांग्रेस भी गाँधीवाद के रास्ते से बिछड़ गई थी। आरएसएस ने तो ख़ैर गाँधी को कभी अपना नहीं माना। लेकिन सत्ता में आने के बाद कांग्रेस के बड़े नेताओं, महात्मा गाँधी, सरदार पटेल और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को अपनाने का सत्ताधारी पार्टी की तरफ़ से अभियान चल रहा है। इस बात की पड़ताल करना ज़रूरी है कि क्या बीजेपी महात्मा गाँधी को अपना बना पायेगी।
महात्मा गाँधी को गुज़रे 71 साल हो गए। 30 जनवरी 1948 के दिन दिल्ली में प्रार्थना के लिए जा रहे महात्मा जी को एक हत्यारे ने गोली मार दी थी और ‘हे राम’ कहते हुए वह स्वर्ग चले गए थे। 30 जनवरी के पहले भी उनकी जान लेने की कोशिश हुुई थी। बीस जनवरी 1948 के दिन भी उसी बिरला हाउस में बम काण्ड हुआ था, जहाँ दस दिन बाद उनकी हत्या कर दी गई। उनकी हत्या के बाद पूरा देश सन्न रह गया था। आज़ादी की लड़ाई में शामिल सभी राजनीतिक जमातें दुःख में डूब गई थी। ऐसा इसलिए हुआ था कि 1920 से 1947 तक महात्मा गाँधी के नेतृत्व में ही आज़ादी की लड़ाई लड़ी गई थी। लेकिन जो जमातें आज़ादी की लड़ाई में शामिल नहीं थीं, उन्होंने गाँधी जी की शहादत पर कोई आँसू नहीं बहाए। आरएसएस पर यह आरोप है कि उसने गाँधी की हत्या के बाद आँसू नहीं बहाए थे।
गाँधी की हत्या की साज़िश
आरएसएस की सहयोगी राजनीतिक पार्टी उन दिनों हिन्दू महासभा हुआ करती थी। हिन्दू महासभा के कई सदस्यों की साज़िश से ही महात्मा गाँधी की हत्या हुई थी। हिन्दू महासभा के सदस्यों पर ही महात्मा गाँधी की हत्या का मुक़दमा चला और उनमें से कुछ लोगों को फाँसी हुई, कुछ को आजीवन कारावास हुआ और कुछ तकनीकी आधार पर बच गए। नाथूराम गोडसे ने गोलियाँ चलायी थीं, उसे फाँसी हुुई।
नाथूराम के भाई गोपाल गोडसे को साज़िश में शामिल पाया गया था, लेकिन उसे आजीवन कारावास की सज़ा हुई थी। बाद में वह छूट कर जेल से बाहर आया और उसने गाँधी जी की हत्या को सही ठहराने के लिए कई किताबें वगैरह लिखीं।
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हत्या के बाद मिठाइयाँ बँटीं?
आरएसएस के लोगों के ऊपर आरोप है कि उन्होंने महात्मा जी की हत्या के बाद कई जगह मिठाइयाँ भी बाँटी। इस बात को आरएसएस वाले शुरू से ही ग़लत बताते रहे हैं। उस वक़्त के आरएसएस के मुखिया एम. एस. गोलवलकर को भी महात्मा गाँधी की हत्या की साज़िश में शामिल होने के आरोप में गिरफ़्तार किया गया था। तफ़्तीश के स्तर पर उनके शामिल होने का सबूत नहीं मिला, लेकिन गोलवलकर जेल में बंद रहे और तत्कालीन गृह मंत्री सरदार पटेल ने गोलवलकर से अंडरटेकिंग लिखवाकर और उनसे कुछ शर्तें मनवा कर जेल से रिहा किया था।
- बाद के दिनों में आरएसएस ने हिन्दू महासभा से पूरी तरह से किनारा कर लिया था और भारतीय जनसंघ नाम की एक पार्टी को अपनी राजनीतिक शाखा के रूप में स्वीकार कर लिया था और इस तरह आरएसएस के प्रभाव वाली एक नई राजनीतिक पार्टी तैयार हो गई।
आरएसएस के प्रचारक दीन दयाल उपाध्याय को आरएसएस के नागपुर मुख्यालय से जनसंघ का काम करने के लिए भेजा गया था। बाद में वह जनसंघ के सबसे बड़े नेता हुए।
हर परेशानी का कारण गाँधी-नेहरू?
1977 तक आरएसएस और जनसंघ वालों ने महात्मा गाँधी और जवाहर लाल नेहरू की नीतियों की ख़ूब जमकर आलोचना की और गाँधी-नेहरू की राजनीतिक विरासत को ही देश में होने वाली हर परेशानी का कारण बताया। लेकिन 1980 में जब जनता पार्टी को तोड़कर जनसंघ वालों ने भारतीय जनता पार्टी की स्थापना की तो पता नहीं क्यों उन्होंने अपनी पार्टी के राजनीतिक उद्देश्यों में 'गाँधियन सोशलिज्म' को भी शामिल कर लिया।- ऐसा शायद इसलिए हुआ होगा कि आज़ादी की लड़ाई में आरएसएस का कोई आदमी कभी शामिल नहीं हुआ था। नवगठित बीजेपी को कम से कम एक ऐसे महान व्यक्ति की तलाश थी जिसने आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा लिया हो। हालाँकि अपने जीवन भर महात्मा गाँधी कांग्रेस के नेता रहे लेकिन बीजेपी ने उन्हें अपनाने की योजना पर काम करना शुरू कर दिया।
गाँधी को क्यों अपना रही है बीजेपी?
महात्मा गाँधी को अपनाने की अपनी योजना को अमली जामा पहनाने के लिए बीजेपी ने मुंबई में 28 दिसंबर 1980 को आयोजित अपने पहले ही अधिवेशन में अपने पाँच आदर्शों में से एक गाँधियन सोशलिज़्म को निर्धारित किया। बाद में जब 1985 में बीजेपी लगभग शून्य हो गयी तो गाँधी जी से अपने आपको दूर भी कर लिया गया लेकिन आजकल फिर महात्मा गाँधी को अपनाने की योजना पर काम चल रहा है। अब तो बीजेपी वाले खुलेआम कहते पाए जाते हैं कि महात्मा गाँधी कांग्रेस की बपौती नहीं हैं। आजकल बीजेपी वाले महात्मा गाँधी को अपना बताने में कोई कसर नहीं छोड़ते लेकिन सच्चाई यह है कि महात्मा गाँधी और आरएसएस के बीच इतनी दूरियाँ थीं जिनको कि महात्मा जी के जीवन काल और उसके बाद भी भरा नहीं जा सका। अंग्रेज़ी राज के बारे में महात्मा गाँधी और आरएसएस में बहुत भारी मतभेद था।
महात्मा गाँधी अंग्रेजों को हर क़ीमत पर हटाना चाहते थे जबकि आरएसएस वाले अंग्रेजों की छत्रछाया में ही अपना मक़सद हासिल करना चाहते थे।
वास्तव में 1925 से लेकर 1947 तक आरएसएस को अंग्रेज़ों के सहयोगी के रूप में देखा जाता है। शायद इसीलिए जब 1942 में भारत छोड़ो का नारा देने के बाद देश के सभी नेता जेलों में ठूँस दिए गए थे तो आरएसएस के सरसंघचालक एम. एस. गोलवलकर सहित उनके सभी नेता जेलों के बाहर थे और अपना 'सांस्कृतिक काम’ चला रहे थे।
गोडसे से किनारा क्यों?
महात्मा गाँधी की हत्या में आरएसएस के बहुत सारे लोगों की गिरफ़्तारी हुई थी लेकिन नाथूराम गोडसे से अपनी दूरी साबित करने के लिए आरएसएस, जनसंघ और बीजेपी के नेताओं ने हमेशा से ही भारी मशक्क़त की है। महात्मा गाँधी की विरासत पर क़ब्ज़ा पाने की संघ की जारी मुहिम के बीच कुछ ऐसे तथ्य सामने आ गए हैं जिससे उनके अभियान को भारी घाटा हुआ। आडवानी समेत सभी बड़े नेताओं ने बार-बार यह कहा था कि जब महात्मा गाँधी की हत्या हुई तो नाथूराम गोडसे आरएसएस का सदस्य नहीं था। यह बात तकनीकी आधार पर सही हो सकती है लेकिन गाँधी जी की हत्या के अपराध में आजीवन कारावास की सज़ा काट कर लौटे नाथू राम गोडसे के भाई , गोपाल गोडसे ने सब गड़बड़ कर दी। जेल से निकलने के बाद उन्होंने अंग्रेज़ी पत्रिका ‘फ्रंटलाइन’ को दिए गए एक इंटरव्यू में बताया कि आडवानी और बीजेपी के अन्य नेता उनसे दूरी नहीं बना सकते। उन्होंने कहा, ‘हम सभी भाई आरएसएस में थे। नाथूराम, दत्तात्रेय, मैं और गोविन्द सभी आरएसएस में थे। आप कह सकते हैं कि हमारा पालन-पोषण अपने घर में न होकर आरएसएस में हुआ। वह हमारे लिए एक परिवार जैसा था।'- नाथूराम आरएसएस के बौद्धिक कार्यवाह बन गए थे। उन्होंने अपने बयान में यह कहा था कि उन्होंने आरएसएस छोड़ दिया था। ऐसा उन्होंने इसलिए कहा, ‘क्योंकि महात्मा गाँधी की हत्या के बाद गोलवलकर और आरएसएस वाले बहुत परेशानी में पड़ गए थे। लेकिन उन्होंने कभी भी आरएसएस छोड़ा नहीं था।’
गाँधी और ज़्यादा प्रासंगिक
महात्मा गाँधी की शहादत के इकहत्तर साल बाद वह और अधिक प्रासंगिक हो गए हैं और वे लोग भी उनके प्रशंसक हो गए हैं जिनके नेताओं के ऊपर उनकी ह्त्या की साज़िश में शामिल होने के मुक़दमे चले। ये लोग भी उनको अपनाने में जुट गए हैं। सवाल यह है कि देश की एक बड़ी आबादी के प्रति नफ़रत की राजनीति करने वालों को अपने साथ रखकर क्या बीजेपी महात्मा गाँधी को अपना बना सकेगी?