बीजेपी नेता शुभेंदु अधिकारी के ख़िलाफ़ एक मामले में जाँच पर रोक को आगे के लिए बढ़ा दिया गया है। 2024 के आम चुनावों से पहले भाजपा नेता प्रतिपक्ष शुभेंदु अधिकारी के खिलाफ उनके सचिव के नाम पर पंजीकृत आवास से नकदी और हथियार बरामद होने के आरोप लगे थे। इसकी जाँच हो पाती इससे पहले कलकत्ता उच्च न्यायालय का फ़ैसला आया कि जांच पर रोक रहेगी। अब इसी रोक को आगे बढ़ा दिया गया है।
लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार जस्टिस अमृता सिन्हा की एकल पीठ ने पहले जांच पर रोक लगाई थी और वर्तमान सुनवाई में 28 जून 2024 तक रोक बढ़ा दी।
पिछली सुनवाई में अधिकारी के वकील ने तर्क दिया था कि पुलिस द्वारा देर रात अधिकारी के आवास पर छापेमारी की कार्रवाई जानबूझकर लोकसभा चुनावों के बीच विपक्ष के नेता को परेशान करने के लिए की गई थी। आगे यह भी तर्क दिया गया कि हालांकि आवास अधिकारी के सचिव के नाम पर था, लेकिन विपक्ष के नेता ही परिसर का उपयोग आवासीय कार्यालय के रूप में कर रहे थे। उन्होंने तर्क दिया कि इसलिए पुलिस को अधिकारी के खिलाफ बलपूर्वक कदम उठाने से रोकने वाली पिछली रोक वर्तमान मामले में भी लागू होगी।
सरकार के वकील ने दावा किया कि पुलिस की कार्रवाई एक अलग मामले के सिलसिले में थी और पुलिस को इस बात की जानकारी नहीं थी कि अधिकारी द्वारा उस जगह का इस्तेमाल किया जा रहा था। यह दावा किया गया कि बलपूर्वक कार्रवाई पर रोक केवल विपक्ष के नेता के पक्ष में दी गई थी और अधिकारी के सचिव वाला परिसर समन्वय पीठ के आदेश के दायरे में नहीं आ सकता था।
जस्टिस सिन्हा ने अधिकारी के खिलाफ पुलिस की त्वरित कार्रवाई पर सवाल उठाया था और जांच के साथ-साथ छापे के बाद की कार्रवाई पर अगले आदेश तक रोक लगाने का निर्देश दिया था।
उस आवास से कथित तौर पर हथियार और बड़ी मात्रा में नकदी पाई गयी थी। यह कार्रवाई तब हुई थी जब चुनावी आचार संहिता लागू थी।
चुनाव आयोग के मानक के अनुसार किसी भी पार्टी कार्यकर्ता के पास पाए जाने वाले 50,000 रुपये से अधिक की नकदी को कब्जे में ले लिया जाना चाहिए, क्योंकि कहीं ऐसा न हो कि मतदाताओं को लुभाने के लिए इसका इस्तेमाल कर लिया जाए।
हाईकोर्ट की मंजूरी के बिना FIR नहीं
इससे पहले ही शुभेंदु अधिकारी को कोर्ट से बड़ी राहत मिली थी। स्क्रॉल की रिपोर्ट के अनुसार दिसंबर 2022 में कलकत्ता उच्च न्यायालय के जस्टिस राजशेखर मंथा ने एक अभूतपूर्व आदेश में न केवल अधिकारी के खिलाफ दर्ज 17 एफ़आईआर पर रोक लगा दी थी, बल्कि आदेश दिया था कि अधिकारी के खिलाफ दर्ज की जाने वाली किसी भी नई एफ़आईआर के लिए पुलिस को पहले उच्च न्यायालय की अनुमति लेनी होगी।
एफ़आईआर यानी प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज किए बिना, पुलिस किसी कथित अपराध की शिकायत की जांच नहीं कर सकती। रिपोर्ट के अनुसार जस्टिस मंथा का तर्क यह था कि अधिकारी के खिलाफ सभी शिकायतें राजनीति से प्रेरित थीं, उनका उद्देश्य उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता में बाधा डालना और उन्हें अपने सार्वजनिक कार्यों का निर्वहन करने से रोकना था।