महाबोधि मंदिर आंदोलन याद दिला रहा बौद्ध मंदिरों पर कब्जों का इतिहास!

03:23 pm Apr 02, 2025 | पंकज श्रीवास्तव

देश में आजकल मस्जिदों के नीचे मंदिर ढूँढने का अभियान चल रहा है, लेकिन बिहार के बोधगया में मामला उलटा है। वहाँ एक बौद्धमंदिर को हिंदुओं से मुक्त कराने का आंदोलन चल रहा है। दरअसल, मौजूदा क़ानून के तहत महाबोधि मंदिर की प्रबंध समिति में बौद्धों के साथ-साथ हिंदू प्रतिनिधि भी होते हैं। ऑल इंडिया बुद्धिस्ट फ़ोरम के नेतृत्व में चल रहा आंदोलन मंदिर पर पूर्ण बौद्ध नियंत्रण की माँग कर रहा है। यह मामला 2012 में सुप्रीम कोर्ट भी पहुँचा था लेकिन अभी तक मामला विचाराधीन है। आंदोलनकारी सवाल उठा रहे हैं कि अगर अयोध्या के राम मंदिर समेत तमाम हिंदू मंदिरों में ग़ैर हिंदुओं का प्रतिनिधित्व नहीं है तो फिर बौद्धों के इतने महत्वपूर्ण मंदिर में हिंदुओं को जगह क्यों दी जाती है।

यह आंदोलन 12 फ़रवरी से भूख हड़ताल की शक्ल में शुरू हुआ जिस पर 27 फ़रवरी को पुलिस एक्शन हुआ। भूख हड़ताल करने वाले भिक्षुओं को ज़बरदस्ती अस्पताल पहुँचाया गया। बहरहाल, अब वहाँ अनिश्चितकालीन धरना चल रहा है।आंदोलनकारियों की सबसे प्रमुख माँग है कि 1949 का बोधगया मंदिर एक्ट ख़त्म हो। इस एक्ट के तहत मंदिर का प्रबंध हिंदू-बौद्ध समिति करती है। इस समिति में चार हिंदू और चार बौद्ध होते हैं। ज़िलाधिकारी इस समिति का अध्यक्ष होता है। अध्यक्ष बनने के लिए ज़िलाधिकारी का हिंदू होना ज़रूरी था लेकिन 2013 में बिहार सरकार ने इसमें संशोधन कर दिया।

बोधगया। बिहार का वही शहर है जहाँ दुख के कारण की तलाश में निकले कपिलवस्तु के शाक्य राजकुमार सिद्धार्थ को ईसा पूर्व 531 में एक पीपल के पेड़ के नीचे बोध या ज्ञान प्राप्त हुआ था। तीसरी शताब्दी ईसापूर्व सम्राट अशोक ने बोधगया में मंदिर बनवाया था। लेकिन बौद्ध धर्म को नष्ट करने के अभियान में यह मंदिर भी खंडहर हो गया था। सोलहवीं सदी के अंत में 1590 में इस पर क़ब्ज़ा करके शैव मठ बना दिया गया। अंग्रेज़ों के समय भी इस मुद्दे पर विवाद हुआ था। महात्मा गाँधी ने तब वादा किया था कि यह मंदिर बौद्धों को सौंप दिया जाएगा, लेकिन पहले आज़ादी हासिल की जाए।

आज़ादी के बाद डॉ. राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता में एक कमेटी बनी जिसने बौद्धों के साथ हिंदुओं को भी प्रबंध समिति में रखने की सिफ़ारिश की। डॉ. राजेंद्र प्रसाद मानते थे कि हिंदू गौतम बुद्ध को विष्णु का नवाँ अवतार मानते हैं, इसलिए प्रबंधन में उनकी भूमिका भी हो। इसी को ध्यान में रखते हुए बिहार सरकार ने 1949 में एक्ट बनाया जिसे बौद्ध हिंदू बहुल व्यवस्था बताते हुए विरोध कर रहे हैं।

वैसे, आज भारत में बौद्धों की संख्या बेहद कम है। कई क़ानून ऐसे हैं जो उन्हें हिंदू धर्म की परिधि में ही मानते हैं। सवाल उठता है कि अगर 300 ईसा पूर्व सम्राट अशोक के समय भारत बौद्धमय था तो फिर बौद्ध धर्म को मानने वाले गये कहाँ..? वे 84000 बौद्धविहार कहाँ गये जो अशोक ने बनवाये थे? जिस बिहार का नाम बौद्ध विहारों के नाम पर पड़ा, वहाँ के हज़ारों मठ और विहार कहाँ और कैसे ग़ायब हो गये। 

सातवीं शताब्दी में चीनी यात्री ह्वेनसांग के समय मौजूद बौद्ध मंदिर और मठ कहाँ गये। उसने साकेत यानी आज की अयोध्या में भी बीस बौद्ध मठों की चर्चा की है जहाँ तीन हज़ार भिक्षु थे। ये मठ कहाँ गये, कोई नहीं जानता।

हक़ीक़त तो ये है कि दो सौ साल पहले हम जानते भी नहीं थे कि भारत में अशोक नाम का कोई सम्राट था जिसने भारत को बौद्धमय कर दिया था। यह खोज अलेक्ज़ेंडर कनिंघम ने की थी जो ब्रिटिश सेना में इंजीनियर थे लेकिन बाद में वे पुरातात्विक खोज के लिए मशहूर हुए। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की स्थापना का श्रेय भी कनिंघम को है। उन्होंने 1836 में सारनाथ की खुदाई करायी थी जिसमें धम्मेख स्तूप सामने आया था। 1878 में उन्होंने बोधगया की भी खुदाई करायी थी जिसमें बौद्धमंदिर, स्तूप और बुद्धकालीन अवशेष मिले थे। सारनाथ की खुदाई लंबे समय तक चली और 1904 में वहीं अशोक स्तम्भ मिला जो भारत का राजचिन्ह बना। इसी के साथ 1837 में अंग्रेज़ पुरातत्वविद जेम्स प्रिंसेप ने ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपि पढ़ने में क़ामयाबी हासिल की जिसके बाद अशोक के शिलालेख पढ़े जा सके और गौतमबुद्ध और उनकी शिक्षाओं के बारे में विस्तार से जानकारी हासिल हो सकी।

वैसे, जिस बनारस को इतिहास से भी पुराना बताया जाता है, जहाँ का जीवनप्रवाह सभ्यता के किसी चरण में स्थगित या समाप्त नहीं हुआ, वहाँ से सिर्फ़ बीस किलोमीटर दूर सारनाथ का स्तूप मिट्टी के टीले में बदल जाये और इसका कहीं ज़िक्र न हो, यह सामान्य बात नहीं लगती। सारनाथ में पहली बार धर्मचक्र-प्रवर्तन हुआ था यानी बुद्ध ने अपने पाँच शिष्यों को उपदेश दिया था। आष्टांगिक मार्ग से परिचित कराया था। उन्होंने बताया था कि जीवन में दुख है और इसका कारण है तृष्णा। दुख दूर होगा आष्टांगिक मार्ग से। लेकिन इस इतिहास से हम अपरिचित होते अगर जेम्स प्रिंसेप या कनिंघम जैसे पुरातत्वविद भारत न आये होते।

बौद्ध धर्म भारत से ग़ायब कैसे हुआ, इसका जवाब डॉ. आंबेडकर हमें देते हैं। डॉ. आंबेडकर मानते थे कि बौद्ध धर्म का आगमन भारत में एक क्रांति की तरह थी। बौद्ध धर्म में न ईश्वर की कल्पना है और न ऊँच-नीच वाली वर्णव्यवस्था को मान्यता। बुद्ध ने वेदों को ईश्वरीय प्रमाण मानने से इंकार कर दिया था। अहिंसा के प्रचारक बुद्ध ने यज्ञों में दी जाने वाली बलिप्रथा का विरोध किया। अशोक के समय बौद्ध धर्म को ‘राजधर्म’ घोषित कर दिया गया। ब्राह्मणों को राज्य का संरक्षण न रहा और उनका सम्मान घट गया। ऐसे में अंतिम बौद्ध सम्राट बृहद्रथ के समय प्रतिक्रांति हुई। ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने 180 ईसापूर्व सम्राट बृहद्रथ की हत्या कर दी। पुष्यमित्र शुंग ने सम्राट बनकर बौद्धों को निर्दयतापूर्वक कुचला। उसने मनुस्मृति का विधान लागू करके ब्राह्मणवाद को फिर से स्थापित किया। यहाँ तक कि बौद्धों के एक कटे हुए सिर की क़ीमत एक स्वर्णमुद्रा तय की गयी।

डॉ. आंबेडकर के मुताबिक़ इस प्रतिक्रांति से ब्राह्मणों को सर्वोच्च स्थान देने वाली कर्मकांडों और यज्ञों की व्यवस्था फिर से प्रतिष्ठित हुई। बौद्धों के ख़िलाफ़ घृणा अभियान चलाया गया। इसका प्रमाण इससे भी मिलता है कि वाल्मीकि रामायण में लिखा गया कि तथागत को मानने वालों को वही सज़ा मिलनी चाहिए जो चोर को दी जाती है। इससे यह भी पता चलता है कि रामायण की रचना गौतम बुद्ध के काल के बाद हुई। छठवीं शताब्दी में मिहिरकुल ने उत्तर भारत में बड़े पैमाने पर बौद्ध मठों और मंदिरों को नष्ट किया। गौड़ शासक शशांक ने सातवीं शताब्दी की शुरुआत में बोधगया के बोधिवृक्ष को जड़ समेत कटवा डाला। उसकी एक डाल अशोक के समय उनके बेटे महेंद्र के साथ श्रीलंका गयी थी। उसी पेड़ से वापस क़लम लाकर 1880 में कनिंघम ने बोधगया में फिर लगवाया।

बौद्धों का संहार और मंदिरों का विध्वंस एक स्थापित तथ्य है। स्वामी विवेकानंद ने लिखा है कि 

“जगन्नाथ मंदिर एक पुराना बौद्ध मन्दिर है। हमने इस पर और कई अन्य बौद्ध मन्दिरों पर कब्ज़ा कर लिया और उनका पुनर्हिन्दूकरण किया..” (दि कम्प्लीट वर्क्स ऑफ़ स्वामी विवेकानंद, खंड-4)।

वहीं राहुल सांकृत्यायन ने ‘हिमालय परिचय’  नाम की अपनी किताब में बद्रीनाथ मंदिर में मूर्ति को नहलाये जाने के दृश्य का विवरण दिया है। उन्होंने लिखा,

“मूर्ति काले पत्थर की थी जिसे शायद हथौड़े से जान बूझ कर तोड़ा गया या इसे पत्थरों में फेंकते समय कुछ हिस्सा टूट गया। पद्मासन में बैठी हुई मूर्ति के एक हाथ की हथेली पैरों पर थी जो भूमि स्पर्श मुद्रा में थी। यह मूर्ति पद्मासन अवस्था में भूमि स्पर्श मुद्रा वाली बुद्ध की है इसमें मुझे कोई संदेह नहीं लगा। महंत ने बताया कि मूर्ति की छाती पर जनेऊ की रेखा है। लेकिन हक़ीक़त यह है कि यह बुद्ध की मूर्ति है। एकांश चीवर पहने बुद्धमूर्ति के चीवर का रूप जनेऊ जैसा ही लगता है।”

कुछ इतिहासकारों का मानना है कि अयोध्या की बाबरी मस्जिद के नीचे दरअसल एक बौद्ध मंदिर ही था। लेकिन बाबरी मस्जिद विवाद को जन्म देने वाली राजनीति कभी नहीं चाहती कि खुदाई का काम मुग़ल या सल्तनत काल से पहले तक जाए। कई इतिहासकार मानते हैं कि आठवीं शताब्दी में शंकराचार्य के नेतृत्व में बौद्धों के ख़िलाफ़ व्यापक अभियान चला। इसके नतीजे में तमाम बौद्ध मंदिरों को हिंदू मंदिरों में बदला गया। राहुल सांकृत्यायन तो ‘नाथ’ शब्द लगे मंदिरों को मूलतः बौद्ध धर्म से जोड़ते हैं। जैसे जगन्नाथ या बद्रीनाथ। इस अभियान के बावजूद जो कुछ बौद्ध मंदिर या मठ बचे हुए थे, उनका नाश तुर्क हमलों के दौरान हो गया। बड़ी तादाद में बौद्ध आबादी या तो हिंदू हो गयी या फिर उसने इस्लाम स्वीकार कर लिया।

2011 की जनगणना के मुताबिक़ भारत में बौद्ध भारत की आबादी महज़ 84 लाख है। ‘हिंदू पैदा हुआ लेकिन हिंदू मरूँगा नहीं’ जैसी घोषणा करने वाले डॉ. आंबेडकर ने 14 अक्टूबर 1956 को पाँच लाख समर्थकों के साथ नागपुर में बौद्धधर्म की दीक्षा ली थी। इसके बाद, ख़ासतौर पर दलित समाज में बौद्ध बनने की गति बढ़ती दिख रही है। ऐसा लगता है कि भारत में एक बार फिर बौद्ध धर्म अंगड़ाई ले रहा है। ‘अप्पदीपो भव’, यानी किसी की बात का अंधानुकरण न करो, अपना दीपक या प्रकाश स्वयं बनो, तर्कशील लोगों को आकर्षित कर रहा है। दलित वर्ग बौद्ध धर्म अपनाकर वर्णव्यवस्था के दुश्चक्र से निकलना चाहता है। गौतम बुद्ध को विष्णु का नवाँ अवतार मानने को डॉ. आंबेडकर ने पागलपन कहा था और इस बोधगया का आंदोलन बता रहा है कि नवबौद्धों की ओर से इस पागलपन को गंभीर चुनौती दी जा रही है।