देश चलाने के लिए लीडर चाहिए या 'चीयरलीडर'?

10:48 am Jul 31, 2022 | वंदिता मिश्रा

लोकतंत्र में किसी नेता का चुनाव करने के लिए जनता/वोटरों के पास क्या विकल्प हो सकते हैं? वह कौन सा ‘टिपिंग पॉइंट’ होता होगा जहां से जनता किसी व्यक्ति विशेष को अपना नेता मान लेती होगी? संभवतया किसी नेता की ‘छवि’ वह पहलू है जिससे जनता को चुनाव करने में आसानी होती है।

इस प्रक्रिया में मीडिया, ‘अफवाह’ और ‘सूचना’ के सही मिश्रण से किसी सामान्य नेता को भी जनता का विश्वास हासिल करने में मदद कर सकता है (जैसे किसी नेता को अवतार, संत या तपस्वी साबित करने के कारनामे) और इसी तरह से किसी विशेष गुण वाले नेता को हाशिये पर भी धकेला जा सकता है (जैसे किसी नेता को कमजोर, बचकाना, परिवारवादी और भ्रष्ट साबित करने के कारनामे)।

आज भारत में मीडिया का संचालन बहुत बड़े-बड़े कॉर्पोरेट घराने कर रहे हैं। जिनका अस्तित्व सिर्फ़ मीडिया में न होकर अन्य कई व्यापारिक गतिविधियों में भी होता है। सरकार के पास ईडी और सीबीआई जैसे ‘मज़बूत’ संस्थागत ढाँचे उपलब्ध हैं जिन्हें केन्द्रीय नेतृत्व अपने निजी फायदे के लिए कठपुतली या ‘तोते’ की तरह इस्तेमाल कर सकता है। अफवाह और सूचना, सोशल मीडिया के अंतर्निहित हथियार हैं। किसी अफवाह या झूठी सूचना की सोशल मीडिया में गैर-आनुपातिक बहुलता, पहले लॉन्च होने की काबिलियत और पहुँच ही उसे एक बड़े वर्ग के लिए ‘सत्य’ या ‘वास्तविक सूचना’ का आभासी एहसास दिला देती है। सोशल मीडिया में बहुलता में वही दल या नेता रह या दिख सकता है जिसके पास हाइटेक लेवियाथन कंपनियों के पेट भरने के लिए अत्यधिक धन की उपलब्धता हो। चूँकि ईडी और सीबीआई जैसे संस्थान सत्ता पक्ष के नेताओं को हाथ भी नहीं लगाते इसलिए धन की गैरआनुपातिक बहुलता सत्ता पक्ष के पास ही होती है। राजनैतिक पार्टियों को चंदा देने वाले बड़े धनपति ज्यादा से ज्यादा धन सत्ताधारी पार्टी को ही देते हैं। यह बात मेरे कहने के लिए नहीं छोड़ी जानी चाहिए कि वो ऐसा क्यों करते होंगे?

ऐसे में, जो भी व्यक्ति नेता का रूप लेकर जनता के सामने उभरता है वह वास्तविक नेता भी हो सकता है और आभासी भी। एक बार उलझ चुकी जनता के सामने फिर से एक मौका होता है कि कैसे पहचाने कि कौन नेता वास्तविक है और कौन आभासी? यह इस ‘लिटमस टेस्ट’ पर निर्भर होता है कि नेता या किसी दल द्वारा किए गए वादे क्या थे? कोई नेता चुनाव पूर्व जो वादा करता है और उसे जिस सीमा तक निभाता है वह उसी सीमा तक ही वास्तविक नेता होता है उसका बाकी हिस्सा आभासी होता है जिसका निर्माण मीडिया और अफवाहें करती हैं। 

चुने जाने के बाद एक आभासी नेता हर दिन नए वादे करके पुराने वादों को भूलने के लिए अफवाहों के माध्यम से उलझने को बाध्य करता है। ये वही पुराने वादे हैं जिनके आधार पर उस नेता का ‘वास्तविक नेता’ के रूप में चयन हुआ था। हो सकता है, यह थ्योरी थोड़ा जटिल प्रतीत हो रही हो लेकिन उदाहरणों से यह आसानी से मस्तिष्क में बैठ जाएगी।

लोकतंत्र में किसी भी संघर्ष को ‘छापामार’ लड़ाई के माध्यम से नहीं किया जा सकता। यह न ही मध्यकाल का दौर है और न ही जंगलों में चलने वाला नक्सलवादी आंदोलन। लेकिन स्वयं को ‘ईमानदार’ राजनीति का ‘अवतार’ समझने वाले अरविन्द केजरीवाल शायद यही समझ रहे हैं। अन्ना आंदोलन में मुख्य भूमिका निभाने वाले अरविन्द केजरीवाल आरोप लगाकर भाग जाने वाले लड़ाई के राजनैतिक प्रतिनिधि बनकर उभरे हैं। केजरीवाल ने अन्ना आंदोलन की शुरुआत में ही दिल्ली की तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित पर तमाम भ्रष्टाचार के आरोप लगाए। राजनैतिक दल, आम आदमी पार्टी, बना लेने के बाद और दिल्ली विधानसभा चुनाव से पूर्व यह ‘वादा’ किया कि शीला दीक्षित के खिलाफ सभी मामलों की जांच होगी, उन्हें जेल भेजा जाएगा, साथ ही यह दावा भी किया कि उनके पास ‘पर्याप्त’ सबूत उपलब्ध हैं। 

केजरीवाल ने शीला दीक्षित सरकार पर कई आरोप लगाए थे, लेकिन 2013 में पहली बार मुख्यमंत्री बनने से लेकर 2020 में तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने तक केजरीवाल ने इस तथाकथित भ्रष्टाचार के मामले में कोई कार्रवाई नहीं की।

एक जागरूक नागरिक होने के नाते मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं कि अरविन्द केजरीवाल के पास ‘पर्याप्त’ सबूत जैसा कुछ नहीं था। साथ ही यह भी कि उन्होंने जो ‘वादा’ किया था वह पूरी तरह झूठ निकला। अरविन्द केजरीवाल ने दावा करते हुए वादा भी किया था कि उनके पास मुकेश अंबानी के खिलाफ पर्याप्त सबूत हैं और सत्ता में आते ही वो इसे उजागर करेंगे, लेकिन उन्होंने नहीं किया, उनका वादा झूठा निकला। केजरीवाल ने भरतीय जनता पार्टी के नेता नितिन गडकरी पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाया, स्वर्गीय अरुण जेटली पर भी DDCA में भ्रष्टाचार के आरोप लगाए लेकिन जब इन दोनों नेताओं ने अरविन्द केजरीवाल के खिलाफ मानहानि का मुकदमा दायर किया तो मुख्यमंत्री केजरीवाल ने माफी मांग ली। पंजाब के नेता विक्रम मजीठिया के खिलाफ ड्रग्स तस्करी के आरोप लगाए और कहा कि उनके पास ‘पर्याप्त’ सबूत हैं। लेकिन जब मजीठिया द्वारा केजरीवाल को मानहानि का सम्मन भेजा गया तो एक बार फिर से केजरीवाल ने माफी मांग ली। ऐसे ही आरोप कांग्रेसी नेताओं प्रणव मुखर्जी (जो बाद में देश के राष्ट्रपति भी बने) और पी चिदंबरम पर भी लगाए, मंच से खड़े होकर अपमानजनक भाषा में उनके बारे में बोला लेकिन जब सत्ता हाथ आई तो किसी के खिलाफ कोई भी मामला नहीं चलाया। 

जनता के बीच भ्रष्टाचार विरोधी अवतार की छवि बनाने की लगातार कोशिश में केजरीवाल ‘आरोप लगाओ और पीछे हट जाओ’ के फॉर्मूले पर चलते रहे। कभी किसी का भ्रष्टाचार साबित नहीं कर पाए। केजरीवाल ने भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन शुरू किया था इसलिए लगातार वह विभिन्न नेताओं और उद्योगपतियों के भ्रष्टाचार की ही बात करते थे। लेकिन लगता है कि अरविंद केजरीवाल की ईमानदार छवि दूसरों को ज़बरदस्ती बेईमान साबित करने से ज़्यादा जुड़ी हुई प्रतीत होती है। इससे उन्हें खुद की कमियों को छिपाने के मौक़े आसानी से मिल जाते हैं।

शायद सबकुछ सोचा समझा और टार्गेटेड था। दिल्ली विधानसभा चुनाव में उनका मुकाबला कांग्रेस की शीला दीक्षित और भाजपा से था। जनता को अपनी तरफ करने का एक ही तरीका उन्हें समझ आया कि सभी मजबूत पक्ष के नेताओं के खिलाफ सनसनीखेज आरोप लगाओ, उन्हें मीडिया में जाकर प्रचारित करो, जनता में सबको भ्रष्टाचारी साबित कर दो और जब स्वयं ‘फँसने’ लगो तो घर जाकर माफी मांग लो। जनता के बीच ‘अफवाहों’ के माध्यम से अन्य नेताओं की बुरी छवि को लंबे समय के लिए बिठा दिया गया और इस तरह सत्ता का ‘लक्ष्य’ हासिल हो गया। हो सकता है कि मोहल्ला क्लिनिक, सरकारी स्कूलों के हालात बेहतर हो गए हों, लेकिन मेरा मानना है कि कोई नेता सत्ता हासिल करने के प्रयास में जिन वादों का इस्तेमाल मुख्य रूप से करता है जनता को उस नेता का आकलन उन्हीं सनसनीखेज वादों और दावों पर करना चाहिए। क्योंकि ये वही वादे/दावे होते हैं जिनसे एक स्थापित सरकार पहले गिराई जाती है और दूसरी सरकार बनाई जाती है।

विकास संबंधी कार्य देश की सभी सरकारों का एक नियमित काम होता है, कोई सरकार कम काम करती है कोई थोड़ा ज़्यादा। बनावटी कहानियाँ बनाकर उन्हें सोशल मीडिया पर शेयर करना बचकाना ही नहीं आपराधिक भी है। वर्ष 2019 में लोकायुक्त ने राज्य विधानसभा से सभी विधायकों को उनकी संपत्ति और देनदारियों की वार्षिक घोषणा करने के लिए नोटिस जारी करने के लिए कहा था। जनलोकपाल और भ्रष्टाचार के मुद्दे को लेकर राजनीति की गंगा बनने की कोशिश करने वाली आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविन्द केजरीवाल को चाहिए था कि वो दिल्ली लोकायुक्त के आदेश का पालन करते ताकि भ्रष्टाचार पर उनका रुख साफ समझ आता। झूठ और अफवाह तो मानो केजरीवाल जी के लिए ‘हार्ड करन्सी’ बन चुके हैं जब चाहो मार्केट में उड़ा दो लोग सच समझ कर लूट लेंगे। उन्होंने दावा किया था कि उनके रोजगार पोर्टल से 10 लाख रोजगार दिए गए जबकि द हिन्दू  की एक रिपोर्ट के अनुसार 1 मई 2022 तक मात्र 12,588 रोजगार ही दिए गए। मतलब उन्होंने अपने काम को 100 गुना झूठ के साथ पब्लिक डोमेन में फेंक दिया। अब उनका नया ‘वादा’ है 20 लाख रोजगार देने का। अंदाजा लगाया जा सकता है कि असल में कितने लोगों को रोजगार मिलने वाला है। केजरीवाल जी पंजाब चुनावों के पहले मोहाली में एक और ‘वादा’ करके आए थे कि शारीरिक प्रशिक्षण प्रशिक्षक (पीटीआई) के खाली पड़े सैकड़ों पदों की भर्ती की प्रक्रिया सरकार बनने के तुरंत बाद प्राथमिकता से की जाएगी। जबकि वादे की असलियत यह है कि अब वे शिक्षक आम आदमी पार्टी की नई पंजाब सरकार में लाठियाँ खा रहे हैं। एक तरफ बेरोजगार लाठियाँ खा रहे हैं तो दूसरी तरफ आम आदमी पार्टी द्वारा करोड़ों रुपया बैनर, पोस्टर, टीवी और समाचार पत्रों में विज्ञापन पर उड़ाया जा रहा है। सच कहते हैं कि अरविन्द केजरीवाल कि वो ‘राजनीति बदलने आए हैं’। पर ये कैसा बदलाव है?

ईमानदारी की राजनीति का दावा तत्कालीन गुजरात के मुख्यमंत्री भी किया करते थे। आज भी पुराने वीडियोज़ में उनकी ऊर्जा देखी जा सकती है। उनके चेहरे के हाव भाव जबरदस्त होते थे।

बिल्कुल सच जैसा लगता था जब वो डॉलर के मुकाबले रुपये के गिरते स्तर की चिंता करते थे, लेकिन सच यह है कि आज जब रुपया 80 के पार हो गया है तब उनके चेहरे, बातों और भाषणों में कोई चिंता नहीं दिखती। बिल्कुल सच लगता था जब ‘मुख्यमंत्री’ उस समय के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भ्रष्ट बताते हुए 2-G स्पेक्ट्रम घोटाले और कोयला घोटाले की बात करते थे, लेकिन सच यह है कि एक तरफ जहां ये घोटाले विभिन्न न्यायिक प्रणालियों द्वारा नकार दिए गए वहीं वर्तमान प्रधानमंत्री के काल में बैंक का खरबों रुपया लूट कर ले जाने वालों की लाइन लग गई है। ललित मोदी, नीरव मोदी, मेहुल चौकसी, गुजरात आधारित ABG- शिपयार्ड जैसे तमाम लोग देश का खरबों रुपया लूट ले गए। राहुल गाँधी ने आरोप लगाया है कि नरेंद्र मोदी सरकार में पिछले 8 सालों में लगभग 5 लाख 35 हजार करोड़ रुपये का बैंक फ्रॉड हुआ है। साथ ही टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी एक खबर के मुताबिक पिछले सात सालों में देश के बैंकों के साथ 100 करोड़ रुपये प्रतिदिन के हिसाब से धोखाधड़ी हुई है। क्या यह चिंताजनक बात नहीं है?

बिल्कुल, सच जैसा लगता था जब नरेंद्र मोदी समेत पूरी भाजपा काले धन के मामले में कांग्रेस को घेरती थी। बोलने में कमी न रखने वाले नेताओं ने तो कालेधन की वापसी की निश्चित घोषणा कर दी थी और यह तक कहा था कि इतना सारा काला धन बाहर के बैंकों में जमा है कि उसकी वापसी के बाद सभी देशवासियों के खातों में 15-15 लाख रुपये जमा किए जाएंगे। यहाँ तक कि पतंजलि योगपीठ के मालिक राम किसन यादव उर्फ स्वामी रामदेव भी नरेंद्र मोदी का समर्थन करने को इसलिए उतर आए ताकि काला धन वापस आ जाए। पूरे देश को आशा थी कि एक भगवा कपड़े पहने योगगुरु शायद सच के साथ ही गया होगा, सबको आशा थी कि देश का खरबों रुपया जो बाहर है, वापस आ जाएगा। लेकिन यह भी वादा झूठ निकला, वित्तमंत्री निर्मला सीतारमन ने संसद में अपने लिखित उत्तर में कहा है कि- स्विस बैंकों में भारतीय नागरिकों और कंपनियों द्वारा जमा की गई राशि का कोई आधिकारिक अनुमान नहीं है। जब अनुमान ही नहीं तो धन कैसे लाएंगे?

जवाहरलाल नेहरू को कोसते-कोसते एक विचार पहले दल बना और फिर आज सत्ता के केंद्र में जा पहुँचा। जिस चीन को लेकर जवाहर लाल नेहरू की आलोचना की गई और इस आलोचना को जनता में घृणा की तरह फैलाया गया वही चीन आज भारत की सीमा के भीतर घुस कर बस्तियां पर बस्तियां बना रहा है और चीन को ‘लाल आँखें दिखाने का दावा/ वादा करने वाले वर्तमान प्रधानमंत्री के मुख से एक शब्द भी नहीं निकलता। ‘न खाऊँगा न खाने दूंगा’ जैसी भावुक अपील करने वाले प्रधानमंत्री तमाम हजारों करोड़ रुपये के बैंक घोटालों, अरबों की बनी सड़कों के पहली बारिश में ही ढह जाने और राफेल जैसे मुद्दों पर ‘मौन-प्रमुख’ का स्वरूप धर लेते हैं। 

लोग इस बात से चिंता में हैं कि क्यों एक-दो उद्योगपतियों का ही जिक्र हो रहा है, विपक्ष आरोप लगा रहा है, जनता में बेचैनी है लेकिन इस संबंध में पीएम का कोई ओजस्वी भाषण सुनने को नहीं मिल पा रहा है। संसद में बहस से बचना, बिना बहस के कानूनों को पारित करते रहने देना, संसद को चलाने में सरकार का नाकाम रहना, विपक्ष के साथ सामंजस्य न बिठा पाना, विभिन्न जांच एजेंसियों की सरकारी कठपुतली के रूप में लगातार बिगड़ती छवि, साल साल भर किसानों का सपरिवार सड़क पर बैठे रहना, प्रधानमंत्री को एक कमजोर प्रशासक के रूप में चित्रित करता है।

अगर यह ‘बदला’ नहीं है तो चिंता का विषय तो है ही कि अपने मुख्यमंत्री काल में गुजरात के राज्यपाल से परेशान और लगातार अड़चन महसूस करते रहे वर्तमान प्रधानमंत्री आज इस बात पर मौन व्रत लिए हैं कि विभिन्न राज्य सरकारों में किस तरह राज्यपाल का कार्यालय एक समानांतर सरकार चला रहा है।

‘माँ गंगा ने बुलाया है’ 

‘मुझे माँ गंगा ने बुलाया है’ जैसे भावनोन्मुख और ईमानदार शब्दों का इस्तेमाल नरेंद्र मोदी को विशेष बनाता है लेकिन जैसे ही बात वास्तविक ‘ऐक्शन’ की आती है उनकी यह विशेषता मात्र एक आडंबर बनकर रह जाती है। 20 हजार करोड़ रुपये के गंगा साफ करने के बजट में से 11 हजार करोड़ खर्च हो चुके हैं लेकिन गंगा जस की तस है। सभी का यह जानना ज़रूरी है कि गंगा पर निर्णय लेने के लिए सर्वोच्च संस्था राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन अथॉरिटी है। इसके अध्यक्ष भारत के प्रधानमंत्री हैं। गंगा के प्रदूषण पर एक स्वतः संज्ञान की याचिका पर सुनवाई करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने नमामि गंगा के परियोजना निदेशक से कहा कि सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) तो यूजलेस (किसी काम के नहीं) हैं। आपने एसटीपी की जिम्मेदारी निजी हाथों में दे रखी है। वे काम ही नहीं कर रहे हैं। सुनवाई के दौरान पता चला कि सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट अडानी की कंपनी चला रही हैं और करार यह है कि किसी समय प्लांट में क्षमता से अधिक गंदा पानी आया तो शोधित करने की जवाबदेही उनकी नहीं होगी। कोर्ट ने टिप्पणी की कि ऐसे करार से तो गंगा साफ होने से रही।

22 जुलाई को नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल ने कहा कि यह चिंताजनक है कि गंगा में प्रदूषण घटने की बजाय बढ़ रहा है। डाउन टू अर्थ की एक रिपोर्ट के अनुसार 60% सीवेज बिना ट्रीटमेंट के आज भी गंगा में गिराया जा रहा है। इस संबंध में सबसे बुरी हालत उत्तर प्रदेश की है। उत्तर प्रदेश जहां योगी आदित्यनाथ लगातार दो बार से मुख्यमंत्री हैं, उत्तर प्रदेश जहां की वाराणसी लोकसभा सीट से प्रधानमंत्री सांसद हैं। वाराणसी में ही मोदी जी ने गंगा को साफ करने की प्रतिबद्धता जाहिर की थी। लेकिन उनका दावा और वादा दोनों खोखले निकले।

प्रतीकात्मक तसवीर।

हर साल 2 करोड़ रोजगार देने का वादा बहुत आकर्षक था, युवाओं ने झोली भर भर के मोदी जी को वोट दिया, ऐसा लगा मानों सारे सपने सच होने वाले हैं लेकिन संसद में दिए गए लिखित उत्तर में सरकार ने सभी सपनों पर पानी फेर दिया। सरकार ने माना कि पिछले 8 सालों में लगभग 7 लाख रोजगार ही दिए गए हैं। वादों और असलियत के अनुपात की यह हद, हतप्रभ करने वाली नहीं लगती?

जनता को यह तय करना होगा कि वह जिन लोगों द्वारा अपना नेतृत्व चाहती है उनमें क्या क़ाबिलियत होनी चाहिए? क्या जनता हंसाने और ठिठोली करने वाला नेता चाहती है? या सीना ठोंक ठोंक कर बात करने वाला नेता चाहती है? जनता एक दल विशेष से मुक्त भारत की कल्पना करने वाला नेता चाहती है? या सूचना के अबाध और स्वतंत्र गति को रोकने वाला और गंगा में नियमित गति से मैला गिरते रहने देने वाला नेता चाहती है? 

क्या जनता काले धन की वापसी पर सिर्फ़ सपने दिखाने वाला नेता चाहती है? गंगा को माँ बताकर वोट बटोरने वाला नेता चाहती है? आत्मनिर्भरता के नाम पर ग़रीबों की पसलियों से भी टैक्स वसूलने वाला नेता चाहती है? या फिर संस्थाओं को ही नेस्तनाबूत करने वाला नेता चाहती है?

अगर हाँ! तो देश की बर्बादी के सबसे बड़े शेयर होल्डर आप अर्थात जनता होंगे। अगर नेता से मूल सवालों पर जवाब ना ले सकें, अगर नेता यह बताने में नाकाम रहे कि उनके गृहराज्य में सैकड़ों लोग ड्रग्स और ज़हरीली शराब के शिकार क्यों हो रहे हैं? अगर नेता यह बताने में नाकामयाब रहे कि अचानक कैसे एक ही उद्योगपति पोर्ट, एयरपोर्ट, कोयला खनन, प्राकृतिक गैस, सोलर पावर से लेकर गंगा क्लीनिंग जैसे क्षेत्रों पर एकाधिकार जमा रहा है? क्यों पड़ोसी चीन भारत के गांवों पर क़ब्ज़ा कर रहा है? और बजाय उससे लड़ने या जवाब देने के नेता बस इस घटना पर ही पर्दा डाल रहा हो। वास्तव में यदि आपके चुने हुए नेता के पास सिर्फ़ पर्दा ही पर्दा हो, एक मुद्दे से भटकाने को दूसरा पर्दा दूसरे को भटकाने के लिए तीसरा पर्दा और इस तरह अनवरत अनंत और निरंतर पर्दे डाल डाल कर आपके विवेक पर टनों पर्दों का बोझ डाल दिया गया हो तो ऐसे नेता वास्तव में नेता नहीं हैं। अंत में जनता अर्थात आपको यह तय करना है कि देश चलाने के लिए लीडर उपयुक्त रहेगा या चीयरलीडर?