रमेश कुमार जैसों को सज़ा मिलेगी?

09:32 am Dec 19, 2021 | वंदिता मिश्रा

भारत के संविधान में विधायिका को अनुच्छेद-109 (संसद) और अनुच्छेद- 194 (विधानसभा) के तहत विशेषाधिकार प्राप्त हैं। यह विशेषाधिकार इसलिए हैं ताकि विधायिका नागरिकों के मुद्दे उठाने और क़ानून बनाने के दौरान हुए वार्तालाप को लेकर स्वतंत्र महसूस कर सके। 2003 में तमिलनाडु विधानसभा अध्यक्ष ने ‘द हिन्दू’ के चार पत्रकारों और एक प्रकाशक के ख़िलाफ़ एक अरेस्ट वारंट सिर्फ़ इसलिए जारी कर दिया था क्योंकि हिन्दू में तत्कालीन मुख्यमंत्री स्व. जयललिता के ख़िलाफ़ ऐसा कुछ लिख दिया गया था जो अध्यक्ष महोदय को पसंद नहीं आया।

2017 में कन्नड़ भाषा के दो टैबलॉयड पत्र ‘हाय! बेंगलोर!’ और ‘येल्हंका वॉयस’ के संपादकों के ख़िलाफ़ तत्कालीन विधानसभा स्पीकर के.बी. कोलीवाड ने विशेषाधिकार समिति की अनुशंसा पर एक साल की सज़ा सुना दी। ये नोटिस और अरेस्ट वारंट विधायिका की आलोचना के कारण जारी किये गए थे। इस डर के बावजूद मैं यह कहना चाहती हूँ कि संविधान में दिए गए सदनीय अधिकार माननीय सदस्यों की वाक् स्वातंत्र्य के लिये हैं, न कि वाक्-व्यभिचार के लिए।

16 दिसंबर को निर्भया बलात्कार की घटना (2012) की बरसी थी, और 17 दिसंबर को कर्नाटक विधानसभा में वाक् स्वातंत्र्य के नाम पर एक फूहड़ संवाद हुआ। जिसमें कांग्रेस नेता व पूर्व विधानसभा अध्यक्ष रमेश कुमार ने एक कहावत का हवाला देते हुए व ‘चेयर’ को संबोधित करते हुए कहा, “जब रेप होना ही है तो लेट जाओ और मजे लो”। विधायक बोलते बोलते अपनी गरिमा को ले डूबे; एक व्यक्ति के नाते भी उनकी गरिमा नष्ट हुई, एक विधानसभा सदस्य के नाते उन्होंने महिलाओं की गरिमा को तार तार किया और एक ऐसी पार्टी के सदस्य के नाते भी एक मर्यादा और इतिहास को नष्ट किया जिसमें कभी पंडित जवाहर लाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल और लाल बहादुर शास्त्री जैसे बेहद प्रोग्रेसिव और आधुनिक लोगों का दबदबा था।

अब इसके बाद बारी थी ‘चेयर’ पर बैठे विधानसभा अध्यक्ष विश्वेश्वर हेगड़े की, जिन्होंने बयान पर हँसना ज्यादा ज़रूरी समझा। उनकी दृष्टि में वो शायद सिर्फ उस बयान/कहावत पर हंस रहे हों लेकिन उस चेयर से उनकी हँसी देश की आधी आबादी को तकलीफ़ देने वाली थी। 16 दिसंबर 2012 की घटना बहुत भयावह थी, लगा कि भारतीय समाज इससे कुछ सीखेगा और शायद ऐसी घटना अब दोबारा न हो; लेकिन उसके बाद तो भारत में एक के बाद एक भयावह बलात्कार की घटनाएँ घटने लगीं।

पूरे भारत ने उन्नाव केस (2017), कठुआ केस (2018) देखा, हाथरस (2020) और अलीगढ़ (2021) में हुए 4 साल की बच्ची के नृशंस बलात्कार को देखा। ये घटनाएँ अनवरत हैं और लगातार वीभत्स होती जा रही हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो, 2020 की रिपोर्ट के अनुसार हर दिन भारत में लगभग 77 बलात्कार हो रहे हैं।

इन घटनाओं को न रोक पाने के पीछे सिर्फ़ क़ानून की अक्षमता नहीं है बल्कि इसके पीछे असली वजह है कठोर पुरुषवादी मानसिकता। और ये मानसिकता इतनी व्यापक है कि सभी लोग हर क्षेत्र में महिलाओं से ही आशा करते हैं कि वो शोषित रहें, और कुछ न बोलें।

अंग्रेजों को सती प्रथा और विधवा विवाह पर क़ानून बनाना पड़ता है, क्योंकि भारतीय स्वयं यह समझने में असमर्थ रहे कि ये दोनों प्रथाएँ अमानवीय हैं। संसद द्वारा महिलाओं को संपत्ति पर अधिकार देने के लिए क़ानून बनाना पड़ता है पर सामाजिक रूप से अभी यह बात आम नहीं हो सकी है क्योंकि बहुत से कठोर सोच वाले लोग/समाज उन्हें आर्थिक रूप से सशक्त नहीं होने देना चाहते, इसीलिए उन्हें संपत्ति पर कोई हक नहीं दिया गया। 

जब महिलाओं के बाहर निकल कर काम करने की बारी आई तो उसी कठोर मानसिकता ने उन्हें वहाँ भी नहीं छोड़ा और अंततः सर्वोच्च न्यायालय को बीच में आकर कामकाजी महिलाओं के लिए ‘विशाखा दिशानिर्देश’ तैयार करने पड़े। बीबीसी की रिपोर्ट, 2014 के अनुसार हर पांच मिनट में किसी न किसी महिला के साथ घरेलू हिंसा होती है। असल में यह वही कठोर ‘मसक्यूलर’ मानसिकता है जो महिलाओं को रोकती है और शोषित होने के लिए बाध्य करती है। लोहिया और जेपी के बाद खुद को समाजवाद का सबसे बड़ा मसीहा समझने वाले उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव को बलात्कार ‘बच्चों से हो जाने वाली ग़लती’ लगती है, तो बम्बई उच्च न्यायालय की एक जज को महिला स्तनों को टॉप के ऊपर से छूना सेक्शुअल असाल्ट नहीं लगता। माननीय जज ‘स्किन टू स्किन’ कांटेक्ट की प्रतीक्षा में हैं और किसी अनहोनी के इंतज़ार में हैं, उत्तर प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को लगता है, “अगर पुरुष महिलाओं जैसे गुणों को समाहित कर ले तो वो भगवान् बन जायेगा लेकिन अगर महिला पुरुषों जैसे गुण समाहित कर ले तो वह राक्षस बन जाएगी।” ये फेहरिस्त बहुत लम्बी है।

राजनेता और न्यायपालिका के साथ साथ फ़िल्मी अभिनेता भी इसी विसंगति के शिकार हैं। अब रणदीप हुडा को ले लीजिये उन्होंने जिस क़िस्म की भाषा पूर्व मुख्यमंत्री मायावती के लिए इस्तेमाल की उससे उनके अन्दर का कठोर पारंपरिक ‘मसक्यूलर’ पुरुष उनकी कलाकार और उदार छवि को तोड़ता हुआ चौराहे पर खड़ा मिलता है। ऐसे में कांग्रेस नेता रमेश कुमार का बयान और विधानसभा अध्यक्ष की हंसी इसी मानसिकता की निरंतरता है या ये कहें कि यह इसी मानसिकता का ‘सदनीय विस्तार’ है। मेरे लिए अब यह कोई आश्चर्य नहीं कि क्यों 1990 के 30.3% के मुक़ाबले 2019 में कार्यबल में महिला भागीदारी 20.8% रह गयी होगी? भारत के कुछ राज्य, उदाहरणस्वरूप बिहार- तो ऐसे हैं जहाँ पिछले 2 दशकों में बलात्कार की घटनाएँ दोगुनी हो गयी हैं।

अब इसमें जरा भी संदेह नहीं होना चाहिए कि जिस समाज की पुलिस, प्रशासन, विधायिका और न्यायपालिका में सिर्फ़ और सिर्फ़ पुरुष भरे होंगे वहां ऐसी घटनाओं का होना अनन्त काल तक जारी रहेगा। कर्नाटक की मौजूदा सरकार की कैबिनेट में सिर्फ एक महिला मंत्री हैं। कर्नाटक के इतिहास में आज तक सिर्फ़ एक महिला, के.एस. नागराथन अम्मा ही विधानसभा अध्यक्ष पद तक पहुंच सकीं। वो किसी की दया पर नहीं थीं। अपने दम पर 7 बार विधानसभा चुनाव जीतकर उन्होंने यह उपलब्धि हासिल की थी। 

ऐसे माहौल में उत्तर प्रदेश में प्रियंका गाँधी का 40% महिलाओं को राजनीति में भागीदारी के लिए आमंत्रित करना अर्थात कांग्रेस के चुनाव चिन्ह पर टिकट देना; हो सकता है कुछ लोगों को अव्यावहारिक लग रहा हो लेकिन यदि इतनी महिलाएँ कभी सदन में पहुंच पाईं तो इन सदनों के रमेश कुमार जैसों को वहीं सदन के अन्दर ही उचित जवाब मिल जाएगा।

जब थानों में 50% महिलाएं होंगी, 50% जिलाधिकारी व पुलिस अधीक्षक कार्यालय महिलाओं से भरे होंगे, हर दूसरी बार प्रदेश का डीजीपी किसी महिला को बनाया जायेगा, कई प्रदेशों में महिला मुख्य न्यायाधीश और भारत के सर्वोच्च न्यायायालय में 50% महिलाओं का प्रवेश, हर उस रंजन गोगोई को रोक देगा जो अपने ख़िलाफ़ लगे सेक्सुअल असाल्ट के मामले में खुद ही, खुद को बेकसूर साबित करने के लिए जज बन जाते हैं और निर्णय भी अपने पक्ष में सुना लेते हैं और खुद को बरी भी कर देते हैं। 

विधायिका के सदनों में 50% महिलाओं का जिस वक़्त कदमताल होगा उस समय हर रमेश कुमार बोलने से पहले 50 बार सोचेगा।

आज से सात दशक पहले जब संविधान सभा ने विधायिका को विशेषाधिकार सौंपे थे तो शायद उसे भविष्य में उनके ऐसे उपयोग/दुरुपयोग की आशा नहीं रही होगी। अपने विशेषाधिकारों को बचाने के लिए न जाने कितने लोगों के ख़िलाफ़ अवमानना के तहत जेल की सजा सुनाने वाली विधयिका क्या आज स्वयं अपने लिए कोई सजा सुनाएगी? क्या कर्नाटक के विधानसभा अध्यक्ष अपने सदस्य को महिलाओं के अपमान और बलात्कार पीड़ितों का मजाक उड़ाने वाले रमेश कुमार को सजा देंगे, जेल भेजेंगे? क्या विधानसभा अध्यक्ष स्वयं अपनी हंसी और एक तरह से रमेश कुमार की बात का समर्थन देने के लिए खुद को सजा सुनायेंगे? पद छोड़ेंगे? यदि वो आज यह कर पाए या भारत की व्यवस्था ने उन्हें आज ऐसा करने के लिए बाध्य किया तो ये देश कम से कम शायद विधायिका में महिलाओं की अस्मिता उधड़ती न देखे।

लेकिन अगर लोगों ने आज भी भाषण वीरता दिखाई और माफीनामे को स्वीकृति दे दी तो लोकतंत्र के इन सशक्त खंभों के बीच महिलाएँ कब दबा दी जाएँगी कब उनका दम घुटने लगेगा, पता ही नहीं चलेगा।

मुझे लगता है कि न सिर्फ़ रमेश कुमार और विधानसभा अध्यक्ष विश्वेश्वर हेगड़े कागरी बल्कि हर एक पुरुष को छठी शताब्दी की नयनार भक्ति परंपरा से आने वाली महिला शिवभक्त करइक्कल अम्मइयार की कविताओं को ध्यान से पढ़ना चाहिए। जो इस बात की घोषणा है कि महिला को एक ढांचे, सांचे और खांचे में देखना और उस आधार पर ही उसका आकलन करते रहना ठीक नहीं है।

बलात्कार और आनंद दो विरोधाभाषी तत्व हैं। किसी के शरीर को छूने से आनंद की प्राप्ति होती है ऐसी विचारधारा कैंसरस है और इसका ‘इलाज’ बहुत ही ज़रूरी है।