क्या बीजेपी आलाकमान योगी आदित्यनाथ के किसी प्रकार के दबाव में है? इस बात पर विचार करना दरअसल कड़क हिन्दू हृदय सम्राट दिखने वाले योगी को 'ओवर एस्टीमेट' किया जाना होगा। पार्टी आलाकमान भली-भांति सन 2007 में अपनी गिरफ़्तारी के बाद संसद में फूट-फूट कर रोने वाले योगी आदित्यनाथ को भूला नहीं है। तब सवाल यह है कि क्यों 'संघ' और भाजपा उनकी उस प्रशासनिक प्रबंधन प्रणाली का बार-बार महिमामंडन कर रहे हैं जिसे भाजपा के अनेक मंत्री, विधायक एवं सांसद बारम्बार 'कंडम' कर चुके हैं?
जिस तरह दिल्ली में आलाकमान से बैठक करने के बाद आनन-फानन में शनिवार की रात प्रदेश के प्रभारी राधामोहन लखनऊ पहुँचे, देर रात ही उन्होंने पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष स्वतंत्र देव को तलब किया, गवर्नर आनंदीबेन पटेल और विधानसभा अध्यक्ष हृदय नारायण दीक्षित से अपॉइंटमेंट माँगा और अगले दिन दोनों से मिले भी, उससे स्पष्ट है कि बीजेपी के भीतर सरकार और संगठन-दोनों स्तर पर व्यापक फेरबदल होने को है। लेकिन तब इतना संभल-संभल कर क्यों डग रखे जा रहे हैं? क्यों पार्टी के प्रदेश प्रभारी राज्यपाल और स्पीकर से हुई मीटिंग को शिष्टाचार की भेंट बता रहे है?
विगत सप्ताह जिस समय बीजेपी के सांगठनिक महासचिव बी एल संतोष लखनऊ में ट्यूटर के सामने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को क्लीन चिट देते हुए कोविड प्रबंधन में उनकी सरकार की प्रशासनिक प्रशंसा का ढिंढोरा पीट रहे थे, प्रदेश की भाजपा राजनीति के जानकार उस समय यह मान कर चल रहे थे कि योगी जी के 'पंख' काटे जाने की चुनाव पूर्व की 'संघ' की बारीक शैली की शुरुआत हो चुकी है। ये जानकार बख़ूबी परिचित हैं कि इस शैली में बेशक़ मुख्यमंत्री की कुर्सी गेरुए कपड़े से ढंकी रहेगी लेकिन प्रशासन के मामलों को उनके हाथ से लेकर अन्य जगह बांट दिया जायेगा। इतना ही नहीं, उनकी चाहत के बिना ही उनकी कैबिनेट का विस्तार इस तरह होगा कि जिन्हें वह नापसंद करते हैं उन्हें भी मज़बूत पद सौंपे जायेंगे। भाजपा राजनीति के विकेन्द्रीकरण का चाहे जितना ढोल पीटे लेकिन भाजपा में नरेंद्र मोदी की नापसंदगी से कोई भी मुख्यमंत्री सुचारु प्रशासन नहीं चला सकता।
असम, पश्चिम बंगाल, केरल और तमिलनाडु के हालिया विधानसभा चुनावों में (हिन्दू-मुस्लिम बराबरी वाले उन विधानसभा क्षेत्रों में जहाँ योगी आदित्यनाथ की सभाएँ आयोजित की गयी थीं) यहाँ घूमने वाले यूपी के कतिपय गुप्तचर कर्ताधर्ताओं ने यह सूंघा कि सर्वे कर्ताओं की एक बड़ी टीम बेहद शांति से कट्टर हिन्दू राजनेता के रूप में प्रख्यात किये जाने वाले योगी का असर मालूम करने की कोशिश में जुटी है। उनका यह आकलन चुनाव नतीजों के आने तक जारी रहा। तब वे यह न जान सके कि सर्वे करने वालों की ये टीमें आख़िर किसी मीडिया समूह की हैं या कि चुनावी नतीजों के प्रपंच से जुड़े पोल स्टार्स 'सेफोलॉजिस्टों' की हैं।
आख़िरी दौर में उन्हें इतना ही मालूम चल सका कि ये टीमें दिल्ली से आयी हैं। बाद में जब इन तत्वों को केंद्रीय सरकार के कतिपय सूत्रों से यह जानकारी मिली कि ये टीमें पीएमओ के निर्देश पर रिपोर्ट इकट्ठा कर रही थीं तो उनके पाँवों के नीचे से ज़मीन ही खिसक गयी।
आख़िर क्यों पीएमओ यह जानने का इच्छुक था कि गेरुआधारी मुख्यमंत्री का हिन्दू 'क्लान' सचमुच आज की तारीख़ में कितना असरदार है? इस ख़बर को जानने के बाद मुख्यमंत्री को यह भाँपते कहाँ देर लगती कि पीएम उन्हें प्रदेश के मुखिया के बतौर नहीं देखना चाहते।
'संघ' के सूत्रों के अनुसार प्रधानमंत्री ने चुनिंदा विधानसभा क्षेत्रों में किये गये उस सर्वे की रिपोर्ट से 'संघ' के आलाकमान को अवगत करवा दिया जो वहाँ योगी के 'बड़े असर' का संकेत नहीं देती थीं। बताया जाता है कि 'संघ' प्रधानमंत्री की इस रिपोर्ट से सहमत नहीं था। इसी के बाद दिल्ली में हुई दत्तात्रेय होसबोले के साथ प्रधानमंत्री, पार्टी अध्यक्ष और गृहमंत्री की मीटिंग और इसके तत्काल बाद ही लखनऊ में होसबोले का आगमन प्रादेशिक मंत्रियों और काफी सारे विधायकों के साथ उनकी 'वन टू वन’ बैठकें इससे आगे के परिदृश्य को साफ़ करती चली गयीं।
बताते हैं कि दिल्ली की बैठक में प्रधानमंत्री, पार्टी अध्यक्ष और गृहमंत्री ने योगी आदित्यनाथ शासन से त्राहिमाम करते पार्टी जनप्रतिनिधियों और आम जनता की तस्वीर को अच्छे से पेंट किया। प्रधानमंत्री ने ख़राब 'इमेज' वाली योगी सरकार की 'डेंटिंग-पेन्टिग' में एक महत्वपूर्ण हस्तक्षेप की ज़रूरत हेतु अपने चहते नौकरशाह अरविन्द कुमार शर्मा की ज़रूरत का भी बखान किया। होसबोले जब लखनऊ आये तो यहाँ भी उन्हें तीन दिन तक पार्टी जनों के बीच योगी आदित्यनाथ की असंतोष से भरी तस्वीर ही देखने को मिली। बताया जाता है कि अधिकांश लोगों ने होसबोले के समक्ष साफ़ कर दिया कि मौजूदा सरकार के चलते अगला चुनाव जीतना असंभव है। कई लोगों ने अपने लिखित वक्तव्य भी होसबोले को सौंपे। बताया जाता है कि योगी ने होसबोले से साफ़-साफ़ कहा कि कोरोना दुष्प्रबंधन के लिए मूलतः केंद्र सरकार की नीतियाँ दोषी हैं और लोगों का रोष मूलतः उन नीतियों की बदौलत है, राज्य सरकारें व्यर्थ में इनका शिकार बन रही हैं।
होसबोले के जाने के बाद पार्टी महासचिव बी एल संतोष और पार्टी के यूपी प्रभारी राधामोहन भी लखनऊ पहुँचे और इनकी बैठकों के भी 3 दिन के दौर चले। संतोष के आने से साफ़ हो गया था कि यूपी सरकार के नेतृत्व के बारे में आखिरी कमान आरएसएस ही संभाल रहा है।
संतोष के समक्ष भी पार्टीजनों का असंतोष साफ़ दिखा। बी एल संतोष ने विधायकों और मंत्रियों के समक्ष स्पष्ट कर दिया कि ऐसे नाज़ुक मोड़ पर मुख्यमंत्री को बदला जाना आत्मघाती क़दम साबित होगा, ऐसा 'संघ' हाईकमान सोचता है। इन बैठकों के बाद बी एल संतोष योगी को अपने पद पर बने रहने की हरी झंडी दिखा गए।
सवाल यह है कि क्यों प्रधानमंत्री और पार्टी अध्यक्ष द्वारा योगी सरकार की भयावह तस्वीर पेश करने और प्रदेश में पार्टी के मंत्रियों और विधायकों के प्रबल विरोध के बावजूद 'संघ' आलाकमान योगी को पदच्युत करने की किसी शर्त के लिए तैयार नहीं हुआ। योगी पर सीधा हमला न बोलने के 3 कारण माने जा रहे हैं। पहला- 'संघ' अपनी हिन्दू अवधारणा के गेरुआ पुरुष के रूप में योगी को एक कामयाब व्यक्तित्व के रूप में देखता है। वह मानता है कि उन्हें कभी भी उनके राष्ट्रीय जन नेता के खाँचे में ठँसाया जा सकता है। दूसरा- 'संघ' का मानना है कि चुनाव से 8 महीने पहले किसी प्रकार का बदलाव चुनावों के नतीजों को गंभीर क्षति पहुँचाएगा। यूपी में होने वाले किसी प्रकार के नुक़सान का अर्थ होगा 2024 के लोकसभा चुनावों में पार्टी का क्षतिग्रस्त होना।
तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण कारण 'संघ' की प्रस्तावित वह कार्ययोजना है जिस पर उसे 2022 के दो चरणों वाले 7 विधानसभा चुनाव लड़ने हैं। ‘संघ' को मालूम है कि कोरोना की विभीषिका और अर्थ व्यवस्था के पूरी तरह अस्त-व्यस्त हो जाने से बुरी तरह से नाराज़ सामान्य मतदाता को वापस लाना नामुमकिन है। तब चुनाव में विजय हासिल करने की जो प्रस्तावना उसके मस्तिष्क में काम कर रही है वह है क्रमबद्ध रूप से हिन्दू-मुस्लिम सवाल को खड़ा करना। फ़िलहाल यह सवाल बिलकुल ठंडा पड़ चुका है।
हाल ही में यूपी में हुए पंचायत चुनावों ने इसकी तस्वीर साफ़ कर दी है। वह मान कर चल रहा है कि कोरोना का उत्ताप हल्का पड़ते ही जनसंख्या के नाम पर 'एनपीआर' का काम शुरू कर दिया जाएगा जिस पर मुस्लिम समुदायों की प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक है। जो कालांतर में 'सीएए' आदि से जुड़ जायेगा। 'संघ' का मानना है कि 'एनपीआर' ‘एनआरसी’ और 'सीएए' का सवाल खड़ा होते ही यूपी में 'हिन्दू-मुस्लमान' का खेल शुरू हो जायेगा और तब उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ से ज़्यादा 'योग्य', 'सक्षम' और 'परखा' हुआ नेता उनके पास और कोई नहीं हो सकता।
कोसी लेकिन हर बार एक ही दिशा में नहीं बहती। क्या 'आरएसएस' और बीजेपी की 'हिन्दू कार्ड' की क्लीन चिट योगी आदित्यनाथ और उनकी पार्टी के लिए 'आयुष्मान भव' साबित होंगी? क्या हिन्दुओं की ‘पवित्र’ गंगा में लहरें बनकर तैरने वाली यूपी की बदइंतज़ाम और बर्बादियों की हौलनाक कहानियाँ योगी की बीजेपी को विधानसभा चुनाव में मतदाता का सामना कर पाने का हौसला दे सकेंगी? क्या लाइलाजी में हुए मुर्दा शरीरों को लेकर अंतिम संस्कार के लिए इधर से उधर भटकते परिजनों के कलपते स्वरों का मुक़ाबला भाजपा अपने भोथरे हिन्दू कार्ड के दम पर कर सकेगी? क्या लगातार 4 साल से उपेक्षा झेल रहे पार्टी के जनप्रतिनिधि और कार्यकर्ता अपने परिजनों के लिए अस्पताल और ऑक्सीजन की मदद की गुहार को लिखी गयी रोती-बिलखती चिट्ठियों और वायरल होते बयानों को लेकर एक बार फिर चुनावी सभाओं में उसी पार्टी और मुख्यमंत्री के नेतृत्व के नाम पर वोट मांगने की हिम्मत जुटा सकेंगे?