उत्तर प्रदेश में गठबंधन की राजनीति क्यों नहीं चल पाती?

09:33 am Jan 19, 2021 | प्रदीप सिंह - सत्य हिन्दी

बहुजन समाज पार्टी की मुखिया और उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने पंद्रह जनवरी को अपने जन्मदिन पर घोषणा की कि उनकी पार्टी आगामी विधानसभा चुनाव अकेले लड़ेगी। इसके साथ ही उन्होंने किसी तरह के गठबंधन की संभावना को ख़त्म कर दिया। राज्य के राजनीतिक दलों को यह समझने में सात दशक लग गए कि उत्तर भारत का यह अकेला राज्य है जहाँ बहुदलीय राजनीतिक व्यवस्था के बावजूद गठबंधन की राजनीति कभी सफल नहीं हुई।

उत्तर प्रदेश में गठबंधन की राजनीति का पहला प्रयोग 1967 से 1971 के दौरान संविद (संयुक्त विधायक दल) सरकारों के साथ शुरू हुआ जब कांग्रेस कमज़ोर हो रही थी और ग़ैर कांग्रेसवाद की राजनीति ज़ोर पकड़ रही थी। इस बीच 1969 में कांग्रेस में राष्ट्रीय स्तर पर विभाजन भी हो गया। उस समय जितने भी गठबंधन बने वे कांग्रेस से निकले लोगों के कारण ही बने। उस समय का समूचा विपक्ष उसमें शामिल हो गया। उसमें वाम, दक्षिण और मध्यमार्गी सब थे। सारे सिद्धांत ताक पर रखकर ग़ैर कांग्रेसवाद के सिद्धांत को सबने गले लगा लिया। पर इस बेमेल गठबंधन को ग़ैर कांग्रेसवाद का चुम्बक भी जोड़कर नहीं रख सका। नतीजा यह हुआ कि ग़ैर कांग्रेसी सरकारें बनीं तो पर चली नहीं।

चार साल, पाँच मुख्यमंत्री

इस दौरान मुख्यमंत्री का पद म्यूजिकल चेयर के खेल की तरह चलता रहा। 14 मार्च, 1967 से तीन अप्रैल 1971 के बीच पाँच मुख्यमंत्री बने। चंद्रभानु गुप्त और चौधरी चरण सिंह दो-दो बार मुख्यमंत्री बने। पाँचवीं बार त्रिभुवन नारायण सिंह मुख्यमंत्री बने। कोई भी एक साल तक पद पर नहीं रह सका। हाँ, इसी बीच दो बार राष्ट्रपति शासन भी लगा। ये तीनों ही नेता कांग्रेस से निकले हुए थे। ग़ैर कांग्रेसवाद की राजनीति के नाम पर विपक्षी दलों ने इनका नेतृत्व स्वीकार कर लिया। मक़सद एक ही था, कांग्रेस को कमज़ोर करना। अपनी ताक़त बढ़ाना प्राथमिकता में नहीं था। कांग्रेस को कमज़ोर करने की इस कोशिश में कांग्रेस मज़बूत हो गई। कांग्रेस में विभाजन के बावजूद इंदिरा गांधी को पूरे देश ने स्वीकार कर लिया। विपक्षी दलों की हालत नौ दिन चले अढ़ाई कोस वाली हो गई।

केवल अंकों का खेल नहीं चुनावी राजनीति

साल 1971 के लोकसभा चुनाव में विपक्षी दलों ने कांग्रेस को पछाड़ने की आख़िरी (उस समय तक) कोशिश की। सारे विपक्षी दलों ने मिलकर ग्रैंड अलायंस बनाया। सोच यह थी कि विपक्षी वोट बँटने से कांग्रेस को लाभ मिलता है। सब मिल जाएँ तो कांग्रेस को हरा सकते हैं। विपक्ष के बड़े-बड़े दिग्गज नेता यह भूल गए कि चुनावी राजनीति केवल अंकों का खेल नहीं है। चुनाव का परिणाम आया तो इंदिरा कांग्रेस की शानदार जीत हुई। दिसम्बर, 1971 में बांग्लादेश युद्ध के बाद इंदिरा गांधी दुर्गा बन गईं। सो साल 1972 के विधानसभाओं के चुनाव में विपक्ष को धूल फांकना पड़ा। गुजरात से शुरू हुआ नवनिर्माण आंदोलन बिहार पहुँचते-पहुँचते जेपी आंदोलन बन गया। कांग्रेस के भ्रष्टाचार, किसी भी क़ीमत पर सत्ता में बने रहने के लिए इंदिरा गांधी के देश में इमरजेंसी लगाने और लोगों के मौलिक अधिकार छीनने के धतकरम ने वह काम किया जो विपक्ष 1971 में नहीं कर पाया था।

वामदलों को छोड़कर ज़्यादातर विपक्षी दल एक हुए और जनता पार्टी बनी। उसका क्या हश्र हुआ यह इतिहास की बात है।

उत्तर भारत और उत्तर प्रदेश

पर यह तो राष्ट्रीय राजनीति की बात हुई। हम तो उत्तर प्रदेश की बात कर रहे हैं। यह अजीब सी बात है कि उत्तर भारत के दूसरे राज्यों बिहार, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर और पूरब के पश्चिम बंगाल और उड़ीसा में गठबंधन की सरकारें बनीं और चलीं भी। लेकिन उत्तर प्रदेश में गठबंधन की सरकारें बनीं तो पर चली नहीं। साल 1989 में एक बार फिर विपक्षी एकता के सूत्रधार बने कांग्रेस से निकले विश्वनाथ प्रताप सिंह। विपक्षी एकता में उनकी अहमियत इस बात से समझिए कि जब जॉर्ज फर्नान्डीज से पूछा गया कि वीपी सिंह नहीं होते तो विपक्ष कैसे एक होता? जॉर्ज का जवाब था हमें एक वीपी सिंह गढ़ना पड़ता।

साभार: आपका अख़बार

मुलायम, कांशी राम साथ आए

जनता दल की केंद्र में सरकार बनी तो उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में बीजेपी के साथ मिल कर सरकार बनी। पर न तो केंद्र की सरकार चली और न ही राज्य की। साल 1991 में फिर चुनाव हुए तो उत्तर प्रदेश में राम मंदिर आंदोलन की लहर पर सवार हो कर कल्याण सिंह के नेतृत्व में बीजेपी की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी। पर अयोध्या के विवादित ढाँचे के विध्वंस के बाद उसे बर्खास्त कर दिया गया। साल 1993 में विधानसभा के चुनाव हुए तो समाजवादी पार्टी बन चुकी थी। उसके मुखिया मुलायम सिंह यादव को कारसेवकों पर गोली चलवाने के कारण उस समय तक मुल्ला मुलायम का खिताब मिल चुका था। खिताब बीजेपी ने दिया था लेकिन मुलायम को इस पर कोई ऐतराज़ नहीं था। 

मुलायम ने बसपा प्रमुख कांशी राम के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ा। सामाजिक आधार की दृष्टि से मज़बूत इस गठबंधन को बहुमत तो नहीं मिला पर जनता दल के समर्थन से सरकार बनी।

गेस्ट हाउस कांड के बाद

उत्तर प्रदेश की राजनीति के पानी ने फिर ज़ोर मारा। गेस्ट हाउस कांड के साथ ही यह गठबंधन 1995 में टूट गया। गेस्ट हाउस कांड में सपाइयों से मायावती की जान बचाई बीजेपी के ब्रह्म दत्त द्विवेदी ने। इसकी वजह से बसपा और बीजेपी नज़दीक आ गए। बीजेपी ने राज्य में पहली दलित महिला को मुख्यमंत्री बनवाने का श्रेय लेने के लिए मायावती को मुख्यमंत्री बनवा दिया। उस सरकार को सपा के अलावा कांग्रेस सहित सभी दलों का समर्थन था। पर सरकार को न चलना था और न चली। साल 1996 में फिर से विधानसभा के चुनाव हुए। इस बार बारी कांग्रेस और बसपा के साथ आने की थी। उस समय पीवी नरसिंह राव देश के प्रधानमंत्री थे। उन्हें 1996 के लोकसभा चुनावों के लिए बसपा और कांशी राम की मदद की ज़रूरत थी। सौदे में उन्होंने कांग्रेस की उत्तर प्रदेश इकाई को बसपा के यहाँ गिरवी रख दिया। तीन दशक से ज़्यादा समय तक उत्तर प्रदेश पर राज करने वाली कांग्रेस पार्टी को समझौते में विधानसभा की 425 सीटों में से 136 सीटें मिलीं। कांग्रेस के लिए वह सौदा बहुत बड़ा राजनीतिक गड्ढा साबित हुआ। वह आजतक उससे निकल नहीं पाई। निकट भविष्य में उसकी उम्मीद भी नहीं दिखती।

1997 से 2003 के बीच

विधानसभा चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी बनने के बाद भी बीजेपी सरकार नहीं बना पाई और प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा। मार्च, 1997 में एक बार फिर बीजेपी और बसपा में गठबंधन बना। उसके बाद 2002 के विधानसभा चुनाव में भी किसी दल को बहुमत नहीं मिला। सपा सबसे बड़ी पार्टी बनी पर सरकार नहीं बना पाई। साल 1997 से 2003 के बीच बसपा और बीजेपी के बीच मुख्यमंत्री अदला बदली का खेल संविद सरकारों के दौर की याद दिलाने वाला था। इस बीच छह मुख्यमंत्री बने। मायावती और कल्याण सिंह दो-दो बार और राम प्रकाश गुप्ता और राजनाथ सिंह। 

मायावती बीजेपी का संबंध टूटा तो सपा और बीजेपी का परोक्ष संबंध बना। बीजेपी ने न केवल मायावती की सरकार गिरा दी बल्कि मुलायम सिंह यादव की बसपा को तोड़ने में मदद भी की।

सपा-कांग्रेस समझौते का हश्र

इतना सब कुछ होने पर भी राजनीतिक दलों ने तो कोई सबक़ नहीं सीखा लेकिन मतदाता ने सीख लिया। साल 2007 के विधानसभा चुनाव से उत्तर प्रदेश के मतदाता ने राज्य में गठबंधन की राजनीति की गुंज़ाइश ही ख़त्म कर दी। तब से तीन चुनावों में जिसको दिया पूरा बहुमत दिया। पर आदत इतनी जल्दी कहाँ जाती है। अखिलेश यादव ने 2017 में कांग्रेस से समझौता कर लिया। उनके पिता मुलायम सिंह यादव ने बहुत मना किया पर अखिलेश यादव सत्ता के नशे में थे। इसका अंदाज़ा इस बात से लगाइए कि शिवपाल यादव से झगड़े में पार्टी का चुनाव चिन्ह ख़तरे में पड़ा और सपा रणनीतिकारों ने नये चुनाव चिन्ह पर चर्चा शुरू की तो अखिलेश यादव ने कहा कि मेरे फोटो को चुनाव चिन्ह बनवा दो, लोग देखकर वोट करेंगे। चुनाव का नतीजा आया तो सपा और कांग्रेस दोनों ने अपने इतिहास का सबसे ख़राब प्रदर्शन किया।

राजनीतिक अस्थिरता का बीज

उत्तर प्रदेश और बिहार दोनों ही समाजवादी राजनीति का बड़ा अखाड़ा रहे हैं। बिहार में गठबंधन की राजनीति चली लेकिन उत्तर प्रदेश में नहीं। संविद सरकारों के दौर में दोनों राज्यों में ज़्यादा फर्क नहीं रहा। पर नब्बे के दशक में नीतीश कुमार ने लालू यादव का नेतृत्व स्वीकार कर लिया। अलग हुए तो बीजेपी ने उनका नेतृत्व स्वीकार कर लिया। उत्तर प्रदेश में ऐसा नहीं हो पाया। मुलायम सिंह यादव ने बसपा के साथ प्रयोग किया पर असफल रहा। कल्याण सिंह बीजेपी की बजाय किसी क्षेत्रीय दल के नेता होते तो शायद दोनों का गठबंधन बन जाता। पर यह बात इस मुद्दे का अति सरलीकरण जैसा लगता है। उत्तर प्रदेश में इस राजनीतिक अस्थिरता का बीज शायद कांग्रेस ने ही बोया। 

यह बहुत ही अजीब बात है कि तीन दशक से ज़्यादा समय तक राज करने वाली कांग्रेस ने अपने किसी मुख्यमंत्री को उसका निर्वाचित कार्यकाल पूरा नहीं करने दिया। किसी भी दल से निर्वाचित कार्यकाल पूरा करने वाली पहली मुख्यमंत्री बनीं मायावती।

वास्तविकता की स्वीकारोक्ति

ऐसा लगता है कि उत्तर प्रदेश के मतदाताओं ने गठबंधन की राजनीति के प्रयोग से तौबा कर लिया है। राज्य की चारों प्रमुख पार्टियाँ भी सारे गठजोड़ आजमा चुकी हैं। अब उनके आपसी संबंध ऐसे नहीं हैं कि निकट भविष्य में वे फिर साथ आ सकें। इसलिए मायावती का बयान पिछले अनुभवों के सबक़ लेने के साथ वास्तविकता की स्वीकारोक्ति भी लगता है।

(आपका अख़बार से साभार)