यशस्वी भव: यही नाम रखा था, मैंने उस डॉक्युमेंट्री का। आज जब अपने डेब्यू टेस्ट पर यशस्वी ने सेंचुरी जमाई तो एक आम क्रिकेट फैन की तरह मुझे भी लगा कि हम सब कहीं ना कहीं इस कामयाबी में हिस्सेदार हैं।
एक मीडिया प्रोफेशनल के तौर पर मेरे हिस्से कुछ वैसा ही अनुभव आया जैसा 15 साल के सचिन तेंदुलकर का इंटरव्यू करके उन्हें दुनिया के सामने लाने वाले टॉम ऑल्टर के लिए रहा होगा।
कहानी 2017 की है। मुंबई के किसी अखबार ने छोटी सी खबर छापी थी कि पानी पूरी बेचने वाला एक लड़का मुंबई के लोकल क्रिकेट में धूम मचा रहा है। वरिष्ठ पत्रकार और सहकर्मी नरेंद्र पाल सिंह ने इस खबर पर मेरा ध्यान दिलाया और तय हुआ कि हमें कुछ करना चाहिए।
प्राथमिकाएं कई और भी थीं,कहानियां भी ढेर सारी थीं। हमारे नेटवर्क ने पृथ्वी शाह और स्मृति मंधाना जैसे खिलाड़ियों पर स्पेशल फीचर किये थे। हम सोच रहे थे कि यशस्वी का नंबर भी देर-सबेर आ जाएगा। लेकिन चंद महीने बाद अंदाजा हुआ कि मामला सिर्फ पांच मिनट की फीचर स्टोरी का नहीं है, डॉक्युमेंट्री बनानी पड़ेगी।
मैं अपनी टीम के साथ यशस्वी के कोच ज्वाला सिंह के घर पहुंचा, जो सांताक्रुज में रहते हैं। एक बेहद दुबला पतला सा लड़का आया, काफी हद तक नर्वस सा। मैंने कहा-- कोई सवाल नहीं पूछुंगा। मैं चाहता हूं तुम अपनी कहानी खुद कहो। जैसे ठीक लगे बोलते जाओ.. आराम से रिक़ॉर्ड करेंगे।
..और वो बच्चा एक साँस में अपनी पूरी कहानी बता गया।... मिर्ज़ापुर भदोही में घर है। पिताजी चौकीदार हैं और साथ एक छोटी दुकान भी चलाते हैं। क्रिकेटर बनना चाहते थे लेकिन नहीं बन पाये। यशस्वी तेरह साल की उम्र में उनके साथ मुंबई आया था। उसने कहा— मैं कुछ भी करूंगा लेकिन वापस नहीं जाऊँगा, मुझे यहीं क्रिकेट खेलना है।
पिता ने अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ उसे दिहाड़ी नौकर की तरह रखवा दिया, जो डेयरी का काम करता था। क्रिकेट खेलकर 13 साल बच्चा थक जाता था और काम में हाथ नहीं बंटा पाता था। एक दिन रिश्तेदार ने सामान निकालकर बाहर फेंक दिया।
उसके बाद यशस्वी चार महीने तक आज़ाद मैदान में अंजुमन इस्लामिया क्रिकेट क्लब के टेंट में सोया और ये सुविधा उसे इस्माइल नामक एक ग्राउंडमैन के ज़रिये नसीब हुई जिसे हो वो चाचा कहता था। यशस्वी धारा-प्रवाह बोलता रहा— बरसात में बहुत दिक़्क़त होती थी। एक बार कीड़े ने काट दिया और आँख हफ़्ते भर तक सूजी रही। बारिश में बाथरूम बाहर जाना पड़ता था और कई बार रास्ते में ही हो जाता था।… और उसके बाद वो रो पड़ा।
माँ की बात जब-जब आई वो बच्चा रोया। इंटरव्यू के अगले दिन हम यशस्वी को उन तमाम जगहों पर ले गये जहां उसके संघर्ष के दिन बीते थे। शूट के दौरान यशस्वी मुझे उस टेंट में भी ले गया और पानीपूरी स्टॉल पर भी जहां, काम करने पर उसे दिन-भर में 25-30 रुपये मिल जाते थे और खाने को अलग से।
आईपीएल ने यशस्वी को सुपर स्टार बनाया और अब वो शानदार इंटरनेशल डेब्यू के साथ क्रिकेट की दुनिया पर लंबे समय तक राज करने को तैयार है। इस कामयाबी का श्रेय जितना उसे है, उतना ही उसके कोच ज्वाला सिंह को भी है, जिन्होंने उसे एक तरह से एडॉप्ट किया था। ज्वाला भी किसी जमाने गोरखपुर से मुंबई अपना क्रिकेटिंग करियर बनाते आये थे लेकिन कामयाबी नहीं मिली।
वो बेहद भावुक अंदाज़ में कहते हैं-- इस बच्चे में मैंने अपना अतीत देखा। इसीलिए कुछ ऐसा रिश्ता जुड़ पाया। फ्रेंड फिलॉसफर गाइड, अभिभावक या गोद लेनेवाला पता नहीं कोई इस रिश्ते को क्या नाम दे।
ढाई दिन के उस शूट में ज्वाला सिंह ने एक पिता की तरह कई बार मुझसे कहा— इसे समझाइये मोबाइल-वोबाइल के चक्कर में ना पड़े। उनका मन रखने के लिए मैं ये कहता रहा कि ध्यान रखना शोहरत आदमी को भटकाता है, यशस्वी एक आज्ञाकारी बच्चे की तरह सुनता और सिर हिलाता रहा।
ज्वाला बताते रहे— अंडर 19 में धूम मचा रहा है लेकिन अपने आप को सुपर स्टार ना समझने लगे इसलिए मैं इसे ग्रांउडेड रखने की कोशिश करता हूँ। कभी-कभी सब्जी भाजी लाने भी भेज देता हूँ।
यशस्वी के परिवार वालों का इंटरव्यू करने के लिए हमने टीम को उसके गांव भेजा। उसके पिता से फोन पर मेरी लंबी बाते हुईं। एक ही कहानी उन्होंने कई बार सुनाई “जब यशस्वी पहली बार ज्वाला सर से मिलने जा रहा था, तो उसकी फाइल किसी बस में छूट गई। फाइल में अखबारों की तमाम कतरनें थी, जिससे पता चलता था कि जूनियर क्रिकेट में उसने क्या-क्या किया है। यशस्वी ने घर में फोन करके कहा कि अगर फाइल नहीं मिलेगी तो मेरी जिंदगी में कुछ नहीं बचेगा। उसके फोन कट गया। पूरा परिवार घंटों रोता रहा और भगवान को याद करता रहा। फिर फोन आया कि फाइल मिल गई है।“
किसी एक व्यक्ति के कामयाब सफर में कितने साझीदार होते हैं, आत्मीय जनों के कैसे-कैसे सपने होते हैं। इन सब बातों का एहसास यशस्वी के सफर को देखकर बार-बार होता है। संघर्ष सबका होता है। लेकिन वो ज्यादा खूबसूरत और रोमैंटिक तब लगता है, जब सफल हो जाता है। मुझे याद आ रहा है कि यशस्वी ने बातों-बातों में अपने बड़े भाई का जिक्र कई बार किया था। बकौल यशस्वी वो भी उतना ही प्रतिभाशाली था। दोनो बच्चे पिता के मुंबई आये थे। पिता के पास साधन नहीं थे तो उन्होंने अपने हाथ खड़े कर दिये। बड़ा भाई आज्ञाकारी की तरह चुपचाप गांव लौट गया लेकिन यशस्वी ने जिद ठान ली-- “मर जाउंगा लेकिन वापस नहीं जाउंगा।“
राजस्थान रॉयल्स से लेकर भारतीय टीम तक जो भी लोग यशस्वी को करीब से देख रहे हैं, उनका यही कहना है कि ये लड़का बहुत ज्यादा फोकस्ड और हार्ड वर्किंग है और सबसे बड़ी बात ये है कि पाँव पूरी तरह ज़मीन पर हैं।
इस पोस्ट के साथ क्षेपक जोड़ रहा हूँ। ये बात यशस्वी जायसवाल के पानी-पूरी बेचने के संदर्भ हैं। कई पाठक कह रहे हैं कि उनके कोच ने इसका खंडन किया है। तथ्यात्मक बात ये है कि यशस्वी ने शुरुआती दिनों मे एक पानी-पूरी वाले के यहां कुछ दिनों तक काम किया था।
ये बात उसने खुद ऑन कैमरा मुझे बताई थी और हमने आज़ाद मैदान में जाकर वो सीक्वेंस फिर शूट किया था। यशस्वी के आईपीएल स्टार बनने के बाद उनके पानी-पूरी बेचने की कहानियां अतिरंजित ढंग से मीडिया में आई और ये कहा गया कि उनका पूरा परिवार इसी काम में है, तब कोच ज्वाला सिंह ने इस बात पर एतराज किया था। आशा है किसी को भ्रम नहीं होगा।
(राकेश कायस्थ के फ़ेसबुक पेज से)