‘भारत की सेवा करने का अर्थ है लाखों पीड़ितों की सेवा करना। इसका अर्थ है ग़रीबी, अज्ञान, बीमारी तथा अवसरों की असमानता का उन्मूलन करना। हमारी पीढ़ी के महानतम व्यक्ति की इच्छा हर आँख से आँसू पोंछने की रही है। संभव है कि ऐसा कर पाना हमारी सामर्थ्य से बाहर हो परंतु जब तक लोगों की आँखों में आँसू और जीवन में पीड़ा रहेगी तब तक हमारा दायित्व पूरा नहीं होगा।’ -जवाहरलाल नेहरू
15 अगस्त 1947 की मध्य रात्रि को 'नियति से साक्षात्कार' में भारत ने राजनीतिक आज़ादी हासिल कर ली। लेकिन दो बुनियादी सवाल जीवित थे। सामाजिक और आर्थिक आज़ादी के सवालों को संविधान द्वारा हल किया जाना था। आज़ादी मिलने से पूर्व ही संविधान सभा की स्थापना हो चुकी थी। ब्रिटिश हुकूमत की देखरेख में औपनिवेशिक भारत के अंतिम चुनाव 1945 में संपन्न हुए। विशेष मताधिकार के ज़रिए चुनकर आए प्रांतीय सभाओं के सदस्यों को मिलाकर दिसंबर 1946 में कैबिनेट मिशन प्रस्ताव के तहत संविधान सभा का गठन किया गया। 13 दिसंबर 1946 को जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा के समक्ष उद्देश्य प्रस्ताव पेश किया। इसमें स्वतंत्र भारत के संविधान के मूल आदर्शों की रूपरेखा प्रस्तुत की गई।
उद्देश्य प्रस्ताव में भारत को संप्रभु और संवैधानिक राष्ट्र बनाने के संकल्प के साथ भारत के नागरिकों को सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक न्याय, समता, स्वतंत्रता और अल्पसंख्यक तथा दलित, पिछड़े, कबायली जातियों के हितों की सुरक्षा का वादा किया गया था।
महात्मा गाँधी के परामर्श और नेहरू, पटेल की सहमति से क़ानून के विशेषज्ञ और सैकड़ों सालों से पराधीन समाज की नुमाइंदगी करने वाले बाबा साहब भीमराव आंबेडकर को संविधान बनाने की ज़िम्मेदारी दी गई। उन्हें प्रारूप समिति का अध्यक्ष बनाया गया। लेकिन उनका काम सिर्फ़ ड्राफ्ट तैयार करना नहीं था। अन्य सदस्यों द्वारा सभा में प्रस्तुत होने वाले तमाम प्रस्तावों पर बहस करना, उनके समुचित जवाब देना भी उनकी ज़िम्मेदारी थी। इस काम में जवाहरलाल नेहरू उनके सबसे बड़े सहयोगी होते थे। तमाम असहमतियों के बावजूद नेहरू और आंबेडकर प्रगतिशील मूल्यों पर आधारित नए भारत के निर्माण के लिए एक साथ खड़े थे।
संविधान सभा में तमाम विचारधाराओं के प्रतिनिधि मौजूद थे। कट्टर गाँधीवादियों से लेकर दक्षिणपंथी और तमाम अल्पसंख्यक समुदाय के प्रतिनिधियों के सवालों से टकराते हुए बाबा साहब ने दुनिया का सबसे बड़ा संविधान रचा। इसके लिए उन्हें सभा के अंदर और बाहर विरोध झेलना पड़ता था। तब नेहरू उनके साथ खड़े होते थे।
कट्टर गाँधीवादी सदस्यों द्वारा गाँव को इकाई बनाने से लेकर शराबबंदी और गोकशी जैसे तमाम मुद्दों को डॉ. आंबेडकर ने बड़ी चतुराई के साथ संविधान के मूल सिद्धांतों में न डालकर नीति निर्देशक सिद्धांतों में शामिल किया।
ताज्जुब है कि नेहरू ने कट्टर गाँधीवादियों का साथ न देकर परोक्ष रूप से आंबेडकर का समर्थन किया। इसी तरह से हिन्दू कोड बिल के मुद्दे पर आंबेडकर के साथ नेहरू खड़े हुए थे। आंबेडकर के जीवनीकार किस्तोफ जैफरले ने लिखा है, ‘जवाहरलाल नेहरू को इस कोड से भारी उम्मीदें थीं। आंबेडकर की भाँति नेहरू भी इसे भारत के आधुनिकीकरण की आधारशिला मानते थे। उन्होंने यहाँ तक एलान किया था कि अगर यह बिल पास नहीं होता है तो उनकी सरकार इस्तीफ़ा दे देगी।’
सभा के बाहर दक्षिणपंथियों का हमला जारी था। आरएसएस के मुखपत्र ऑर्गनाइजर में 2 नवंबर 1949 को छपे एक लेख में हिन्दू कोड बिल को ‘हिन्दुओं के विश्वास पर हमला’ बताया गया- ‘तलाक़ के लिए महिलाओं को सशक्त करने का प्रावधान हिन्दू विचारधारा से विद्रोह जैसा है।’ इस लेख में व्यंग्य से हिन्दू कोड बिल के दोनों निर्माताओं को 'ऋषि आंबेडकर और महर्षि नेहरू' कहा गया। हालाँकि बाद में नेहरू कांग्रेसी दक्षिणपंथियों के दबाव में आ गए और इस मुद्दे पर डॉ. आंबेडकर ने क़ानून मंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया।
'अछूत' द्वारा संविधान निर्माण!
राम राज्य परिषद और हिन्दू महासभा ने दिल्ली में धरना देकर संविधान निर्माण का विरोध किया था। उन्हें एक 'अछूत' द्वारा लिखा जा रहा संविधान नाकाबिले बर्दाश्त था। रामराज्य परिषद के करपात्री ने खुलकर कहा कि मनुस्मृति के रहते हुए किसी संविधान की ज़रूरत नहीं है। 30 नवंबर 1949 को संविधान का अंतिम मसौदा डॉ. आंबेडकर ने संविधान सभा को सौंपा था। इस दिन आरएसएस के मुखपत्र ऑर्गेनाइजर का संपादकीय संविधान पर ही केंद्रित था। इसमें लिखा गया-
‘भारत के नए संविधान की सबसे ख़राब बात यह है कि इसमें कुछ भी भारतीय नहीं है।... यह प्राचीन भारतीय सांविधानिक क़ानूनों, संस्थाओं शब्दावली और मुहावरों की कोई बात नहीं करता। प्राचीन भारत की अद्वितीय सांविधानिक विकास यात्रा के भी कोई निशान यहाँ नहीं हैं। स्पार्टा के लाइकर्जस या फारस के सोलन से भी काफ़ी पहले मनु का क़ानून लिखा जा चुका था। आज भी मनुस्मृति की दुनिया तारीफ़ करती है। भारतीय हिंदुओं के लिए तो वह सर्वमान्य व सहज स्वीकार्य है, मगर हमारे सांविधानिक पंडितों के लिए इस सब का कोई अर्थ नहीं है।’
संविधान निर्माता होने के कारण डॉ. आंबेडकर को प्रारंभ में 'आधुनिक मनु' भी कहा गया। हालाँकि 1927 में मनुस्मृति का दहन करने वाले बाबा साहब के लिए यह संबोधन एक क़िस्म की विडंबना ही है।
लेकिन संघ और बीजेपी से जुड़े रहे अरुण शौरी ने बाबा साहब डॉ. आंबेडकर को 'फर्जी मनु' तक घोषित किया है। 'वर्शिपिंग फॉल्स गॉड' नामक अपनी किताब में अरुण शौरी ने डॉ.आंबेडकर की आंदोलनकारी और संवैधानिक भूमिकाओं का अपमान किया है।
संघ की आज की रणनीति बदली
लेकिन आरएसएस और बीजेपी की आज की रणनीति बदली हुई है। संविधान और डॉक्टर आंबेडकर को सीधे तौर पर खारिज करने के बजाए संघ और बीजेपी सरकार पूज्य प्रतीक में बदलकर उनके मूल्यों और विचारों को ध्वस्त करने का कुत्सित प्रयास कर रहे हैं। हिंदुत्ववादी ताक़तें संविधान में निहित सामाजिक क्रांति और डॉ. आंबेडकर की वैचारिक क्रांति को बख़ूबी समझते हैं। इसलिए अब दक्षिणपंथी विचारक आलोचना द्वारा नहीं बल्कि समाहार शक्ति से बाबा साहब के विचारों और संवैधानिक मूल्यों को मिटाना चाहते हैं।
नरेन्द्र मोदी सरकार निरंतर हिन्दुत्ववादी और पूँजीवादी एजेंडे को आगे बढ़ा रही है। इस दौर में लोकतंत्रवादियों ने लड़ाई के हथियार के तौर पर बाबा साहब आंबेडकर और भारतीय संविधान को सामने रखा है। इस अघोषित आपातकाल के दौर में चारों ओर 'संविधान और आंबेडकर' दो शब्दों की अनुगूँज सुनाई पड़ती है। आज के दौर के ये सबसे पॉपुलर ही नहीं, बल्कि सबसे ज़्यादा विश्वसनीय शब्द हैं।
बाबा साहब ने जिस व्यक्ति को संविधान की इकाई बनाया, उस पर लगातार मोदी सरकार हमलावर है। खानपान से लेकर शादी विवाह जैसे निजी जीवन के मसलों पर जैसे पहरा बिठा दिया गया है। हिन्दुत्ववादी ताक़तें व्यक्ति की निजता और उसकी स्वतंत्रता को तार-तार कर रही हैं। मनुष्य की तमाम पहचानों से ऊपर संविधान ने व्यक्ति नागरिक बनाया। इसी नागरिकता को कथित घुसपैठ के नाम पर कटघरे में खड़ा किया जा रहा है। संविधान में धर्म व्यक्ति का निजी मामला है। लेकिन इस दौर में खुल्लम-खुल्ला धार्मिक राजनीति हो रही है। अब सांप्रदायिक होना शर्म नहीं, बल्कि गर्व की बात है। संविधान में प्रदत्त समता को समरसता में तब्दील किया जा रहा है। समरसता बुनियादी तौर पर भेदपरक फिकरा है। संविधान और लोकतंत्र पर सत्तापक्ष और हिंदुत्ववादी संगठनों द्वारा जितना ही खुलकर हमला हो रहा है उतना ही डॉ. आंबेडकर और उनकी वैचारिकता की प्रासंगिकता बढ़ती जा रही है।
भारतीय संविधान के अध्येता ग्रेनविले ऑस्टिन ने अपनी प्रसिद्ध किताब 'भारतीय संविधान: राष्ट्र की आधारशिला' में लिखा है कि भारतीय संविधान निर्माताओं का प्रमुख लक्ष्य एकता, सामाजिक क्रांति और लोकतंत्र रहा है। भारतीय गणतंत्र के 70 साल के बाद इन तीनों प्रक्रियाओं को साज़िशन बाधित किया जा रहा है।
एकता का आदर्श सांप्रदायिक राजनीति के चलते बिखर रहा है। धर्म, जाति, भाषा और क्षेत्र के नाम पर अलगाव बढ़ रहा है। समाज रचनात्मक से ज़्यादा विखंडन की ओर है। मंदिर की राजनीति से लेकर आतंकवाद, पाकिस्तान और अब एक नए लव जिहाद के जुमले से समाज का ताना-बाना टूट रहा है।
संविधान का दूसरा आदर्श सामाजिक क्रांति, एक नई राजनीति का शिकार है। सामाजिक क्रांति के माध्यम से संविधान निर्माताओं ने सामाजिक न्याय और समता आधारित एक समाज का सपना देखा था। सामाजिक क्रांति और न्याय के संकल्प को सोशल इंजीनियरिंग के फिकरे से बाधित किया जा रहा है। हाशिए की दमित और उत्पीड़ित जातियों को मिलने वाले विशेष आरक्षण के अधिकार को धीरे-धीरे ख़त्म किया जा रहा है। मुखौटों के ज़रिए हाशिए के समुदायों की राजनीति को समाप्त किया जा रहा है। इसी तरह से लोकतंत्र के ऊपरी ढाँचे को जीवित रखते हुए तमाम संवैधानिक संस्थाओं का गला घोंटा जा रहा है। इन संस्थाओं के बगैर लोकतंत्र की कल्पना करना बेमानी है।
संविधान निर्माता बाबा साहब डॉ. आंबेडकर और हमारा संविधान आज की हिन्दुत्ववादी राजनीति का सबसे मज़बूत प्रतिपक्ष है। दक्षिणपंथी राजनीति बाबा साहब और संविधान दोनों को पूज्य प्रतीकों में बदलकर इनकी क्रांतिधर्मिता और प्रासंगिकता को ख़त्म करना चाहती है। 26 नवंबर को इस संविधान दिवस पर बाबा साहब और संविधान के विचारों और मूल्यों को बचाने के लिए संकल्पबद्ध होने की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है।