आतंकवादी गुट जैश-ए-मुहम्मद ने एक वीडियो जारी किया, जिसमें पुलवामा का हमलावर आदिल अहमद डार अपनी बात की शुरुआत ही इससे करता है कि जब तक यह वीडियो लोगों तक पहुँचेगा, वह जन्नत में होगा। नौ मिनट के इस वीडियो में वह बाबरी मसजिद की बात करता है, हूरों के साथ होने की उम्मीद करता है, ईमान पर हमला करने का आरोप भारत पर लगाता है और कश्मीर के लोगों से इसलाम की हिफ़ाजत के लिए फ़िदायीन हमला करने की अपील करता है। यह पहला मौका है जब जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद को उचित ठहराने के लिए इसलाम का इस तरह खुले आम सहारा लिया जा रहा है। यह इस राज्य के आतंकवाद का बदलता हुआ चेहरा है।
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जम्मू-कश्मीर एक राजनीतिक मुद्दा रहा है और इससे जुड़े हुर्रियत कॉन्फ्रेंस जैसे संगठनों से लेकर पाकिस्तान में बसे लश्कर-ए-तैयबा जैसे किसी आतंकवादी गुट ने इसे मजहब से जोड़ कर नहीं देखा। पुलवामा हमले को अंजाम देने वाले गुट लश्कर-ए-तैयबा ने भी पहले कभी इसलाम का सहारा नहीं लिया। ये गुट या संगठन भारत से 'आज़ादी' की बात करते रहे हैं, पर आज़ाद कश्मीर से लेकर पाकिस्तान में विलय की बात करने वाले किसी ने कभी जिहाद की बात पहले नहीं की थी। पुलवामा में हमला करने वाला आदिल अहमद डार जिहाद की बात करता है और उसे इस पर फ़ख़्र है कि वह पैगंबर मुहम्मद के बताए रास्ते पर चल रहा है।
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पर्यवेक्षकों का कहना है कि बीते कुछ सालों से कश्मीर में कट्टरपंथी इसलाम का प्रचार-प्रसार बढ़ा है। मोटे तौर पर नरमपंथी बरेलवी इसलाम को मानने वाले कश्मीरियों का एक बड़ा तबका अब कट्टर वहाबी इसलाम की ओर बढ़ रहा है। यह प्रक्रिया कश्मीर तक सीमित नहीं है। यह पूरे देश में चल रही है। पर जम्मू-कश्मीर इससे दूर था, वह अब इस ओर मुड़ रहा है। पूरे समाज में हो रही इस धीमी बदलाव का असर कुछ ज़्यादा तेज़ी से कश्मीर के आतंकवाद पर दिख रहा है।
आतंकवादी तत्व जम्मू-कश्मीर में बरेलवी इसलाम के बढ़ते प्रभाव को वहाँ हो रही कथित ज़्यादतियों और बहुत पहले से पल रही राजनीतिक आकांक्षाओं से जोड़ कर एक कॉकटेल तैयार कर रहे हैं, जो युवाओं में धार्मिक उन्माद भर रहा है।
इस प्रक्रिया को इस तरह समझा जा सकता है कि अब राज्य के मसजिदों में शुक्रवार की नमाज़ के भाषणों में आज़ादी की बातें पहले से ज़्यादा हो रही हैं। सिर्फ दीन-ईमान की बात करने वाले मौलवी किनारे किए जा रहे हैं और उनकी जगह वे लाए जा रहे हैं जो आज़ादी की बात करते हैं और भारतीय फ़ौजों की कथित ज़्यादतियों की चर्चा करते हैं। वे भारत के सुरक्षा बलों पर जानबूझ कर ज़्यादतियाँ करने के आरोप लगाते हैं और लोगों को यह समझाने की कोशिश करते हैं कि इन ज़्यादतियों को रोकने या उनका बदला लेने और क़ौम को आज़ाद कराने का एक मात्र रास्ता इसलाम है। पहले से कई कारणों से परेशान युवाओं को यह बात पसंद आ रही है।
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साल 2016 में आतंकवादी बुरहान वाली के मारे जाने के बाद उसके पिता मुज़फ्फ़र वानी यकायक स्थानीय मीडिया में छा गए। उन्होंंने न केवल अपने बेटे के किए को उचित ठहराया, उस पर फ़ख़्र भी जताया। अंग्रेज़ी अख़बार हिन्दुस्तान टाइम्स को दिए इंटरव्यू में उन्होंने यह माना कि भारतीय फ़ौज को हराना मुश्किल है। पर इसके बाद उन्होंने जो कुछ कहा, उससे कश्मीर के बदलते चेहरे को समझने में सहूलियत होती है। उन्होंने कहा, 'एक मुसलमान जानता है कि यदि वह अल्लाह के रास्ते पर चलता हुआ मरता है तो वह अल्लाह के पास जाता है। हमारे मजहब में है कि जो कोई भारत के अत्याचार से मरता है या भारत की गोली से मारा जाता है, वह मरता नहीं है, वह दूसरी दुनिया चला जाता है, जहां इस दुनिया का कोई रोग नहीं है, अत्याचार नहीं है। हमारा इसलाम हमें यह बताता है। इस वजह से मुसलमान मरने से नहीं डरता है। हम अत्याचार के तहत शर्म से जीने के बजाय इज्ज़त से मरना बेहतर समझते हैं।'
बुरहान के पिता मुज़फ्फ़र वानी
जब उनसे पूछा गया कि आपको इस पर चिंता नहीं हुई कि बुरहान ने जो रास्ता चुना था, उस पर वह एक दिन मारा जा सकता है? इस पर मुज़फ्फ़र वानी ने जो कुछ कहा, उससे साफ़ है कि किस तरह इसलाम की ग़लत व्याख्या लोगों के दिमाग में भर कर उन्हें हिंसा के रास्ते पर बढ़ाया जा रहा है। वे कहते हैं, 'हाँ! मुझे चिंता हुई थी, पर हमारे इसलाम में कहा गया है कि अल्लाह, क़ुरान और पैगंबर सबसे ऊपर हैं, वे हमारे बेटे से भी ऊपर हैं, ज़्यादा महत्वपूर्ण हैं। यदि हमारी या हमारे बेटे की क़ुर्बानी की ज़रूत हुई तो अल्लाह हमसे खुश होगा।'
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वह इसे गोमांस पर लगी रोक से जोड़ कर देखते हैं और कहते हैं कि इसलाम में गोमांस हलाल है। लिहाज़ा, कश्मीरी मुसलमानों को इसे खाने से कोई रोक नहीं सकता। इसी तरह पूरे देश में गोरक्षा के नाम पर मुसलमानों को निशाने पर लिए जाने की वारदात की ख़बरें जब कश्मीर पहुँचती हैं तो कुछ लोग उसकी व्याख्या इसलाम के आइने में करते हैं। आतंकवादी तत्व इसका फ़ायदा उठा कर यह समझाने की कोशिश करते हैं कि हिन्दू-बहुल भारत अपने मूल्य कश्मीरी मुसलमानों पर थोप रहा है और इसका विरोध ज़रूरी है। कोई अचरज की बात नहीं कि आदिल अहमद डार अपने वीडियो में कहता है कि गाय का पेशाब पीने वाले लोग मुसलमानों का मुक़ाबला नहीं कर सकते।
बुरहान वानी
बुरहान वानी के जनाजे में दसियों हज़ार लोग उमड़े थे। कश्मीर घाटी में सुरक्षा बलों के हाथों मारे गए आतंकवादियों के जनाजे में मोटे तर पर बहुत भारी भीड़ उमड़ती है, सैकड़ों लोग आते हैं। और वे राजनीतिक दलों की तरह बसों में भर कर नहीं लाए जाते हैं, वे ख़ुद आते हैं, अपनी इच्छा से आते हैं। यह बदलते कश्मीर का सच है।
बुरहान वानी हिज़्बुल मुजाहिदीन से जुड़ा हुआ था। इसी संगठन के कमांडर ज़ाकिर रशीद उर्फ़ मूसा ने एक वीडियो जारी किया था, जो कम चौंकाने वाला नहीं था।
हिज़बुल मुजाहिदीन के कमांडर मूसा के वीडियो में इसलाम और क़ुरान के नाम पर भारत के ख़िलाफ़ जिहाद छेड़ने की अपील की गई थी। उसमें कहीं भी कश्मीर की 'आज़ादी' का ज़िक्र नहीं था। यह मूल रूप से कश्मीरी पहचान, कश्मीरियत या आज़ादी के लिए भारतीय सेना से लड़ने की नीति के उलट है।
इस तरह के कई वीडियो समय-समय पर आए हैं। इस तरह के वीडियो सोशल मीडिया पर तुरंत वायरल हो जाते है और बड़ी तादाद में युवाओं तक पहुँचते हैं।
पर्यवेक्षकों का कहना है कि कश्मीरी युवाओं पर कट्टरपंथी तत्वों के वीडियो का असर पड़ रहा है। इससे उन्हें भारतीय सुरक्षा बलों की कथित ज़्यादतियों के ख़िलाफ़ तैयार करने का बहाना मिलता है, उनके दिमाग मे यह उन्माद भरने में सहूलियत होती है कि यदि वे मर भी गए तो इज्ज़त की मौत मरेंगे और हूरें उनका इंतज़ार करती मिलेंगी। अब कश्मीरियत पीछे छूट रहा है, आज़ादी भी बहाना रह गया है। अब कश्मीर में जिहाद के नए दौर की शुरुआत हो चुकी है। इसे कश्मीरी इंतिफ़दा यानी कश्मीरी विद्रोह समझना भूल होगी।
आदिल अहमद डार के वीडियो का सीधा असर क्या होगा, यह कहना अभी जल्दबाज़ी होगी। पर यह तो समझा जा सकता है कि इससे लोगों को इसलाम की ग़लत व्याख्या कर भड़काने का बहाना मिलेगा। यह उन युवाओं को अपील करेगा जो पहले से ही अलग-अलग कारणों से कुंठित हैं और उस जाल से नहीं निकल पा रहे हैं, जो सालों की ग़लत नीतियों और पड़ोसी देश की साजिशों से रचा गया है।