मंच पर एक एक कर रोशनी होती है - कई स्त्रियाँ खड़ी हैं एक साथ, एक पुरुष आता है, वह अचंभित है कि इस नाटक में वह अकेला पुरुष है, हर कहानी में वही एक किरदार बन जाता है जबकि स्त्रियाँ अलग -अलग हैं।
एक स्त्री पात्र कनिका पूछती है- "क्या हम कच्ची मिट्टी के लौंदे हैं जिन्हें वो बार-बार फेंटती रहीं और हमें अलग-अलग नाम और स्थितियां देकर गढ़ती रहीं?"
तब शकुन कहती है- "दीपा, तुममें मैं भी कुछ समाई हूं, जैसे तुम कनिका के भीतर।"
दीपा- "शायद , हम सब एक-दूसरे में जीते रहते हैं।"
इसी दृश्य में पुरुष कहता है- "मैं कुछ बोलूं। मैं तो सब हूं - मैं ही बंटी भी, मैं ही गीत भी हूं और मैं ही संजय भी। शायद निशीथ भी।"
"आपका बंटी" की शकुन हंसते हुए जवाब देती है- “अब तो ये बात कहावत बन चुकी है कि सारे मर्द होते भी एक जैसे हैं।“
पूरा सभागार ठहाके लगाता है। नाटक में कुछ पल के लिए तनाव कम होता है। थोड़ी देर पहले स्त्रियाँ अलग-अलग कहानियों से निकल कर मंच पर विलाप करते हुए सवाल पूछ रही थीं।
ये सारे किरदार मिल कर एक नयी कहानी में समा गए थे। यानी सब मिल कर एक नई कहानी बन गए थे और उस कहानी का मंचन हो रहा था।
हम सब इसके गवाह बने। एक नयी विधा का सूत्रपात होते देखा। पहली बार हमने देखा कि कहानियों के पात्र रचनाकार से भी सवाल पूछते हैं और कहते हैं कि तुमने मुझे ऐसा क्यों बनाया है? दूसरे किरदारों को अलग क्यों बनाया? मैं इस तरह किरदार नहीं बनना चाहती थी। मैं कुछ और करना चाहती थी, तुमने मुझे करने क्यों नहीं दिया?
कुछ सवालों के जवाब सिर्फ काल के पास होते हैं जिसके आवर्त्त में बैठ कर लेखक लिख रहा होता हैl
नाटक में एक स्त्री पात्र कनिका कहती है- प्रश्नों के उत्तर नहीं होते दीपा। प्रश्नों के बाद आगे के प्रश्न होते हैं। उत्तर बस जिज्ञासाओं के होते हैं - तथ्यात्मक, तर्कसम्मत उत्तर।
सवालों से जूझते इस नाटक को देखने के लिए अपार भीड़ उमड़ आई थी। जबकि शहर में तीन -चार साहित्यिक आयोजन थे और भीड़ के बंट जाने की पूरी आशंका थी। बावजूद इसके, नाटक का जादू सिर चढ़ कर बोला। जो इधर -उधर जा सकते थे, उनकी राह रोक ली।
नाटक से पहले सभा संपन्न हुई और एक ब्रेक के बाद नाटक होना था। भीड़ डटी रही, कुछ लोग गए। कुछ सिर्फ़ नाटक देखने आए। भीड़ देख कर आयोजक अचंभित थे।
वजहें सुंदर होती हैं तब कुछ अद्भुत घटित होता है।
अवसर और नाम का भी अपना जादू होता है।
हिंदी की प्रख्यात लेखिका मन्नू भंडारी की 93 वीं जयंती थी और इस अवसर के लिए एक नाटक तैयार किया गया था, जिसे अपने अभिनव प्रयोग के लिए हमेशा याद रखा जाएगा।
मन्नू जी की आठ कहानियों और एक उपन्यास “आपका बंटी” को आपस में मिलाकर मंचित एक नाटक “बेटियाँ मन्नू की“ लिखा था - पत्रकार -लेखक प्रियदर्शन ने और निर्देशन देवेंद्र राज अंकुर का था। अंकुर जी कहानियों के मंचन के लिए विख्यात हैं और इसके विशेषज्ञ भी। नाटककार और निर्देशक दोनों के लिए यह चुनौतीपूर्ण, अभिनव प्रयोग था। दर्शकों के लिए यह अद्भुत प्रयोग था। भीड़ इसलिए भी रुकी रही या उमड़-घुमड़ कर आई , क्योंकि इसे हिंदी रंगमंच के इतिहास में, हिंदी साहित्य में, स्त्री लेखन में एक अभिनव प्रयोग के तौर पर, एक नयी शुरुआत के रूप में हम देख सकते हैं।
उस शाम राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के सम्मुख सभागार में नाटक देखने के लिए इतनी भीड़ उमड़ी कि हॉल छोटा पड़ गया और लोग बाहर तक खड़े रहे। हॉल में नीचे बैठ कर सबने नाटक देखा।
इसे ऐतिहासिक घटना की तरह देखा जाना चाहिए। अब तब कहानियों का मंचन तो होते रहे हैं , यह नाटक जरा अलग था। मंच पर मन्नू भंडारी की कहानियों के किरदार थे जो अपने को जस्टिफ़ाई भी कर रहे थे, सवाल भी पूछ रहे थे। अपने लेखक से सवाल पूछते किरदार मंच पर अलौकिक रोमांचक उत्पन्न कर रहे थे। किसी लेखक का सपना होता है , अपने किरदारों को जीवित देखे। सिनेमा और नाटक उसे ज़िंदा कर देते हैं। मन्नू भंडारी अपने किरदारों को देखने, उनके सवालों को सुनने के लिए दुनिया में नहीं हैं, मगर उनका परिवार वैसे ही रिएक्ट कर रहा था जैसे वो खुद करतीं। हैरान होतीं… और सवालों से निरुत्तर भी।
उनकी बेटी रचना यादव और युवा नातिन मायरा की आँखों से लगातार आंसू बह रहे थे। होंठों पर भींगी हुई मुस्कान चिपकी थी। किरदारों को सामने देख कर वैसे हर दर्शक उतना ही रोमांचित था। खासकर स्त्रियां जो हर स्त्री किरदार की छटपटाहट को देख कर तड़प उठती थीं। एक भागने को बेचैन स्त्री पात्र जो नहीं भाग पाती, वो तड़प कर सवाल पूछती है अपने सर्जक से, दर्शक दीर्घा में बैठी एक युवा लड़की भावावेश में बड़बड़ा रही थी- भाग जा, भाग जा...फुसफुसाहटें तेज थीं। ये सारे सवाल आज की पीढ़ी के पाठकों को, मन्नू जी के प्रशंसकों को मथते रहते हैं। प्रियदर्शन बहुत अच्छे से स्त्री मन को जानते समझते हैं। वे मौजूदा स्त्री लेखन और उसकी धार को पहचानते हैं। इसीलिए ऐसी कहानियां चुनीं।
प्रियदर्शन ने जिन कहानियों और किरदारों का चयन किया था, वे थीं-
- आपका बंटी- बंटी और शकुन
- गीत का चुंबन- कनिका और निखिल
- एक कमज़ोर लड़की की कहानी- रूप
- यही सच है - दीपा, संजय और निशीथ
- नई नौकरी - कुंदन और रमा
- ईसा के घर इंसान- मिसेज़ शुक्ला, रत्ना, सरीन, जूली, ऐंजिला
- स्त्री सुबोधिनी
इसके अलावा दो और कहानियों, दीवार बच्चे और बरसात और अभिनेता का ज़िक्र भी आया, यानी कुल एक उपन्यास और आठ कहानियां।
किरदारों को चुनना और उन्हें मंच पर खड़ा करना निःसंदेह नाटककार प्रियदर्शन के लिए चुनौती भरा रहा होगा। उनके सामने नाटक लिखते हुए दो सवाल अहम थे।
पहला ये कि कहानियां इस तरह जुड़ें कि लोगों को समझ में आ जाएं- उन्हें भी जिन्होंने कहानियां नहीं पढ़ी हैं।
दूसरी चुनौती ये कि मन्नू भंडारी की कथा दृष्टि उभरे और कहानियों में कोई बदलाव न हो।
दरअसल हर लेखक के अपने अंतर्द्वंद्व होते हैं - वह किरदारों की मार्फत उन्हें हल करता है।
नाटककार प्रियदर्शन कहते हैं - “किरदारों की ओर से सवाल पूछने का एक मक़सद लेखिका की रचना-प्रक्रिया को भी समझना था।”
हमने किरदारों के माध्यम से मन्नू जी की कहानियों को फिर से समझा।
चाहे "आपका बंटी" की शकुन हो या जूली या अन्य स्त्रियाँ। शकुन के बहाने पहली बार मातृत्व के द्वंद्व से गुजरती एक स्त्री के स्त्रीत्व और मातृत्व के बीच का संघर्ष समझा। किरदारों को सवालों के माध्यम से लेखिका की सोच का विकास क्रम भी देखा। मुक्ति की छटपटाहट के बीच नैतिकता का आग्रह भी देखा।
उस काल की पहचान भी हुई जब समाज में स्त्रियाँ अपनी अस्मिता की खोज कर रही थीं। अपनी शर्तों पर जीने के लिए लालायित थीं।
नाटक को मोहक बनाता है फ़िल्म "रजनी गंधा" का पार्श्व से बजता गाना और बदलते समय की आहट बताने वाली धुन जिस पर नयी पीढ़ी ट्विस्ट करती है। यह धुन ही बंधन में सुख खोजने वाली पीढ़ी को मुक्त करती है और समाज और उसकी मानसिकता में आए बदलाव का सूचक है।