प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस तरीक़े से ‘सनातन’ पर आपत्तिजनक टिप्पणी के मुद्दे पर अपने मंत्रियों को ‘सख़्त जवाब’ देने का निर्देश दिया है, उससे साफ़ है कि वे इसे 2024 के आम चुनाव में एक बड़ा मुद्दा बनायेंगे। उन्होंने ‘इंडिया बनाम भारत’ की बहस पर विराम लगाते हुए सनातन धर्म पर हमले को मुख्य मुद्दा घोषित कर दिया है। बीजेपी आईटी सेल के चेयरमैन अमित मालवीय ने तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के.स्टालिन के बेटे उदयनिधि स्टालिन के इस बयान को जिस तरह देश की 80 फ़ीसदी आबादी के ‘जनसंहार की योजना’ बताते हुए विपक्षी इंडिया गठबंधन को घेरा है, उसके बाद कोई संदेह की गुंजाइश रह भी नहीं जाती।
सामान्य स्थितियों में यही कहा जा सकता था कि बीजेपी को बैठे-बिठाये एक मुद्दा मिल गया है जिसे लेकर वो उत्तर भारत में भावनात्मक उबाल ला सकती है। लेकिन इस बयान के आने के कुछ दिन बाद हुए उत्तर प्रदेश समेत चार राज्यों के उपचुनावों में बीजेपी पराजित हो गयी। जबकि सनातन पर हमले को भी बीजेपी की ओर से चुनाव प्रचार में शामिल किया गया था। सारे टीवी चैनल लगातार इस मुद्दे को हवा दे रहे थे।
तो क्या भारतीय मतदाता बीजेपी की रणनीति को समझने लगा है? कहीं ऐसा तो नहीं कि सनातन के मुद्दे को जनता के बड़े हिस्से, ख़ासतौर पर दलित और पिछड़े समाज ने उस तरह से ग्रहण नहीं किया जैसा कि बीजेपी चाहती है! बीजेपी के लिए यह धर्म पर हमले का मसला है लेकिन बहुजन वैचारिकी की ओर धर्मशास्त्रों के आधार पर जातिप्रथा आधारित शोषण पर इससे ज़्यादा तीखे हमले का इतिहास रहा है। उदयनिधि स्टालिन जिस तरह अपनी बात पर क़ायम हैं और जनसंहार वाली बात को झूठ बताते हुए अमित मालवीय के ख़िलाफ़ एफआईआर दर्ज हुई है, उसने भी यह साफ़ कर दिया है कि बीजेपी गेंद को उस मैदान पर ले आयी है, जहाँ खेल हो ही नहीं रहा था।
उदयनिधि स्टालिन द्रविड़ नेता और तमिल फ़िल्मों के सुपरस्टार हैं। तमिलनाडु में बीती सदी का बड़ा हिस्सा पेरियार के आत्मसम्मान आंदोलन से प्रभावित रहा है जिसने सनातन धर्म से जुड़ी वर्णव्यवस्था के आधार पर शूद्रों, पिछड़ों, स्त्रियों को अपमानित करने का मुद्दा राजनीति के केंद्र में ला दिया था। नतीजा ये है कि वहाँ लगातार द्रविड़ पार्टियों की ही सरकार बनती है। बीजेपी डीएमके नेता को निशाना बनाते हुए भूल जाती है कि एनडीए में शामिल एआईएडीएमके भी पेरियार से ही प्रेरणा लेती है और सनातन के बारे में उसके विचार भी ऐसे ही हैं। यही नहीं, डॉ.आंबेडकर ने भी बेहद तीखे तरीक़े से उस धर्म पर हमला बोला जो शूद्रों के शोषण और उन्हें ग़ुलाम बनाये रखने को सही ठहराता है।
बीजेपी के उत्थान के दौर में उत्तर भारत में यह बहुजन वैचारिकी पीछे ज़रूर गयी है लेकिन विशाल आबादी के सीने में धँसा वर्णव्यवस्था का शूल अब पीड़ा नहीं देता, ऐसा बिल्कुल नहीं है। यही वजह है कि मुख्यधारा के चैनलों के उलट सोशल मीडिया में सनातन की बहस जातिप्रथा के उन्मूलन की ओर मुड़ गयी। इस विषय से जुड़ी टिप्पणियाँ और वीडियो तेज़ी से वायरल हुए।
मोदी जी को अंदाज़ा नहीं था लेकिन उत्तर भारत के नेता इस मुद्दे पर बहस की चुनौती दे रहे हैं, हालाँकि उनकी भंगिमा काफ़ी शालीन है। इस क्रम में पूर्व सांसद और कांग्रेस नेता उदित राज का वह खुला पत्र महत्वपूर्ण है जो उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी को संबोधित करते हुए लिखा है। उन्होंने इस बहस का स्वागत करते हुए डॉ.आंबेडकर के भाषण का हवाला दिया है जिसको मोदी जी शायद ही सामने लाना चाहें।
उदितराज ने लिखा है- “आप वाकई सनातन धर्म में छुआछूत, ऊँच-नीच को समाप्त करने की दिशा में इस बहस को आगे ले जायें। आप जानते ही होंगे कि 1936 में लाहौर ‘जातपांत तोड़क मंडल’ के वार्षिक अधिवेशन में बाबा साहब डॉ.भीमराव आंबेडकर को भाषण देने के लिए आमंत्रित किया गया था लेकिन लिखित भाषण में व्यक्त क्रांतिकारी विचारों को देखते हुए आमंत्रण वापस ले लिया गया था। बाद में यह भाषण ‘जातिप्रथा के उच्छेद’ के रूप में प्रकाशित हुआ। इस भाषण में डॉ.आंबेडकर ने कहा था कि जातिप्रथा को धर्मशास्त्रों का समर्थन है इसलिए हिंदू इससे मुक्त नहीं हो सकता। डॉ.आंबेडकर ने इस भाषण में कहा था- “यदि आप जातिप्रथा में दरार डालने चाहते हैं तो इसके लिए आपको हर हालत में वेदों और शास्त्रों में डाइनामाइट लगाना होगा, क्योंकि वेद और शास्त्र किसी भी तर्क से अलग हटाते हैं और वेद तथा शास्त्र किसी भी नैतिकता से वंचित करते हैं।” ( पृष्ठ 99, डॉ.आंबेडकर, संपूर्ण वाङ्गय, खंड-1, भारत सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय द्वारा प्रकाशित)
भारत सरकार के प्रकाशन से लिया गया यह ‘कोटेशन’ ऐसा है जो आज भारतीय जनता पार्टी के समर्थकों की नज़र में संगीन अपराध है लेकिन क्या महाबली होने का अहसास दिलाने मे जुटे मोदीजी डॉ.आंबेडकर की वैचारिक तेजस्विता का सामना कर सकते हैं? सच्चाई ये है कि डा.आंबेडकर के विचारों के सामने घुटने टेकते हुए पूरी आरएसएस धारा ने उन्हें पूज्य घोषित कर दिया है। उन्हें महापुरुष कहा जाने लगा है। उनकी मूर्तियों पर माला फूल चढ़ाया जाता है। पूरी कोशिश यही है कि डॉ.आंबेडकर के विचार पीछे और मूर्ति आगे हो जाये।
दरअसल, आरएसएस हमेशा जातिप्रथा के समर्थन में रहा है। संघ के दूसरे सरसंघचालक गुरु गोलवलकर 1966 में प्रकाशित अपनी किताब ‘बंच ऑफ़ थॉट्स’ में कहते हैं कि ‘समानता व्यवहार में मिथक है।’ वे ऋगवेद के पुरुषसूक्त का हवाला देते हैं जिसके मुताबिक ब्राह्मण, विराट पुरुष का सिर, क्षत्रिय उसकी भुजाएं, वैश्य उसकी जंघा और शुद्र उसके पैर हैं। वे लिखते हैं, “इसका अर्थ यह है कि जो लोग इस व्यवस्था में विश्वास रखते हैं, अर्थात हिंदू, वे ही हमारे ईश्वर हैं।”(पृष्ठ 25) यही नहीं, मुंबई से प्रकाशित मराठी दैनिक ‘नवा काल’ के 1 जनवरी 1969 के अंक में, गोलवलकर का साक्षात्कार प्रकाशित हुआ था, जिसमें उन्होंने कहा था कि “वर्णव्यवस्था ईश्वर निर्मित है और मनुष्य कितना भी चाहे उसे नष्ट नहीं कर सकता।”
उधर, आरएसएस और प्रधानमंत्री मोदी के प्रेरणापुरुष विनायक दामोदर सावरकर भी 1923 में लिखी अपनी किताब ‘हिंदुत्व’ में साफ कहते हैं कि “वर्णव्यवस्था हमारी राष्ट्रीयता की लगभग मुख्य पहचान बन गयी है...जिस देश में चातुर्वर्ण नहीं है, वह म्लेच्छ देश है। आर्यावर्त अलग है।” इतना ही नहीं वे शूद्रों और स्त्रियों की गुलामी के दस्तावेज़ कहे जाने वाली मनुस्मृति के बारे मे कहते हैं कि “मनुस्मृति वह शास्त्र है जो हमारे हिन्दू राष्ट्र के लिए वेदों के बाद सबसे अधिक पूजनीय है और जो प्राचीन काल से ही हमारी संस्कृति-रीति-रिवाज, विचार और व्यवहार का आधार बना हुआ है। ....आज मनुस्मृति हिंदू कानून है। यह मौलिक है।”
यह वही मनुस्मृति है जिसे डॉ.आंबेडकर ने सार्वजनिक रूप से जलाया था। भारतीय संविधान में दर्ज समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व का संकल्प मनुस्मृति के आदर्श से उलट हैं। डॉ.आंबेडकर का पूरा जीवन जिस जातिप्रथा से संघर्ष को समर्पित रहा, वह आरएसएस और बीजेपी के विचारकों के लिए ‘ईश्वरीय विधान’ है। लेकिन जिन्होंने वर्णव्यवस्था का दंश सहा है, वे इसे धर्म न मानें तो आश्चर्य कैसा? जाति आधारित शोषण सहने वालों की आबादी, शोषण करने वाली आबादी से कई गुना है और लोकतंत्र उसे यह अवसर दे रहा है कि वह हालात बदल दें। इसलिए प्रधानमंत्री मोदी सनातन पर सख़्त जवाब देने का निर्देश दे रहे हैं तो जनता का बड़ा हिस्सा शोषणकारी व्यवस्था का समर्थक मान रही है।
वैसे सनातन का अर्थ है शाश्वत, यानी जो हमेशा से है। यह विशेषण है, संज्ञा नहीं। जातिप्रथा शाश्वत कैसे हो सकती है जबकि यह हमेशा से नहीं थी? वैसे भी विज्ञान के इस युग में किसी के मुँह और किसी के पैर से पैदा होने की बात कोई कब तक मान सकता है? देखा जाये तो धरती भी हमेशा से नहीं थी और मनुष्य भी। लाखों साल की मनुष्य प्रजाति की यात्रा में धर्म तो अभी कुछ हजार साल पहले ही अस्तित्व में आया।
दरअसल, मनुष्य की जिज्ञासा ही सनातन है। नये ज्ञान के आलोक में पुराने को ख़ारिज करते जाना सनातन है। यह प्रक्रिया हर युग में संघर्ष को जन्म देती है। यह संघर्ष ही सनातन है। सनातन सिर्फ़ सत्य की खोज का नाम है। इस क्रम में पवित्र किताबें ही नहीं ईश्वर का अस्तित्व भी ख़ारिज हो जाता है। जैसा कि जैन,बौद्ध, लोकायत, सांख्य जैसे दर्शनों ने किया। या अलग अलग समय में वासवन्ना, रैदास, कबीर, नानक, ज्योतिबा फुले, गाँधी, आंबेडकर और भगत सिंह ने किया। इन सभी ने मनुष्य और मनुष्य में भेदकारी हर व्यवस्था को ख़ारिज किया चाहे उसके पक्ष में कितने ही धर्मशास्त्रीय प्रमाण हों।
यानी अगर कुछ शाश्वत है तो सत्य-असत्य, समता-विषमता और पाखंड-विज्ञान का संघर्ष। मोदी जी जातिव्यवस्था और भेदभाव की व्यवस्था को ‘सनातन’ बता रहे हैं, यह भूलकर कि इससे संघर्ष भी सनातन है। उपचुनाव के नतीजे बता रहे हैं कि सनातन पर सख़्त जवाब देने की तैयारी कर रहे मोदी जी को सख़्त सवालों से जूझने के लिए भी तैयार रहना चाहिए। भारत गोलवलकर और सावरकर का ही नहीं, आंबेडकर और भगत सिंह का भी है।