जानिए, कैसा रहा है नीतीश का राजनीतिक करियर?

08:51 am Aug 10, 2022 | सत्य ब्यूरो

नीतीश कुमार बुधवार को आठवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेंगे। नीतीश कुमार इससे पहले भी महागठबंधन के साथ मिलकर सरकार चला चुके हैं। आइए जानते हैं कि नीतीश का राजनीतिक करियर कैसा रहा है।

नीतीश कुमार ओबीसी की कुर्मी जाति से आते हैं। नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव पटना विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति और जेपी मूवमेंट के रास्ते राजनीति में आए थे। 

जनता दल में रहे

नीतीश कुमार 1985 में पहली बार विधायक बने और साल 1987 में उन्हें युवा लोकदल की बिहार इकाई का अध्यक्ष बनाया गया। 1987 में वह एक बार फिर विधायक बने और 1989 में बिहार में जनता दल के महासचिव बने। 1989 में नीतीश बाढ़ संसदीय क्षेत्र से पहली बार सांसद चुने गए। 1990 में वह पहली बार केंद्र सरकार में मंत्री बने और 1991 में फिर से जीतकर लोकसभा पहुंचे। नीतीश कुमार संसद में जनता दल के उप नेता भी रहे।

नीतीश ने ही 1980 के दशक में लालू यादव को पहली बार बिहार विधानसभा में विपक्ष का नेता और 1990 में पहली बार मुख्यमंत्री बनाने में अहम भूमिका निभाई थी। लेकिन 1993 में नीतीश ने लालू से अपने रास्ते अलग कर लिए और पुराने समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडिस के साथ मिलकर 1995 में समता पार्टी का गठन किया था।

लालू के राजनीतिक विकल्प 

1995 में समता पार्टी को बिहार में सिर्फ 7 सीटों पर जीत मिली थी। 1996 में पहली बार नीतीश ने बीजेपी के साथ मिलकर गठजोड़ किया और साल 2000 में एनडीए का हिस्सा रहते हुए वह पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने। हालांकि यह सरकार सिर्फ 7 दिन ही चल सकी लेकिन तब बिहार में यह संदेश गया कि वह लालू यादव के राजनीतिक विकल्प हो सकते हैं।

जॉर्ज फर्नांडिस संग लड़ाई 

जॉर्ज फर्नांडिस कभी नीतीश कुमार के राजनीतिक गुरु थे, लेकिन 2003 में समता पार्टी के जेडीयू में विलय के बाद जब शरद यादव जेडीयू के अध्यक्ष बने, तो दोनों नेताओं के बीच की खाई बढ़ गई। जॉर्ज ने नवंबर 2005 के विधानसभा चुनाव से पहले नीतीश को एनडीए के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में घोषित करने का विरोध भी किया था। 

क्योंकि बिहार में बीजेपी को लालू यादव से राजनीतिक मुकाबले के लिए नीतीश जैसे ही किसी नेता की जरूरत थी इसलिए बीजेपी और नीतीश ने मिलकर काम करना शुरू किया। नीतीश अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में मंत्री भी रहे और इसके बाद 2005 का चुनाव बीजेपी और जेडीयू ने मिलकर लड़ा। इसके बाद 2005 और 2010 में भी नीतीश कुमार बीजेपी के सहयोग से मुख्यमंत्री बने। 

साल 2013 में नरेंद्र मोदी को एनडीए की ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किए जाने के बाद नीतीश ने एनडीए का साथ छोड़ दिया और महागठबंधन में शामिल आरजेडी और कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार चलाई। 

मई, 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने जेडीयू के खराब प्रदर्शन के बाद मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया और उस वक्त सहयोगी रहे जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया। लेकिन 2015 में वह फिर से मुख्यमंत्री बने। 2014 में जेडीयू को सिर्फ 2 लोकसभा सीटों पर ही जीत मिली थी।

2015 का विधानसभा चुनाव 

2015 का विधानसभा चुनाव नीतीश ने महागठबंधन के साथ मिलकर लड़ा और जीत हासिल की। 2015 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को भी इस बात का एहसास हो गया था कि नीतीश कुमार के बिना राज्य की सत्ता में आ पाना उसके लिए बेहद मुश्किल है। 2015 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस, वामदलों, आरजेडी और जेडीयू के गठबंधन को 243 सदस्यों वाली बिहार की विधानसभा में 178 सीटों पर जीत मिली थी। जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के द्वारा जोरदार प्रचार किए जाने के बाद भी बीजेपी 2010 में मिली 91 सीटों के मुकाबले सिर्फ 53 सीटों पर आकर सिमट गई थी।

2017 में नीतीश ने भ्रष्टाचार के आरोपों को लेकर महागठबंधन के साथ नाता तोड़ लिया और फिर से बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बनाई।

2020 का खराब प्रदर्शन

2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी और जेडीयू 17-17 सीटों पर चुनाव लड़े और बीजेपी को सभी 17 और जेडीयू को 16 सीटों पर जीत हासिल हुई। लेकिन 2020 के विधानसभा चुनाव में जेडीयू का प्रदर्शन बेहद खराब रहा और वह 2015 में मिली 71 सीटों के मुकाबले सिर्फ 43 सीटों पर आकर सिमट गई। जबकि बीजेपी 2015 में मिली 53 सीटों के मुकाबले 74 सीटों पर पहुंच गई थी। 

तब जेडीयू ने उसके खराब प्रदर्शन के लिए लोक जनशक्ति पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष रहे चिराग पासवान को जिम्मेदार ठहराया था। बीजेपी के साथ इस बार संबंध तोड़ने से पहले जेडीयू की ओर से चिराग मॉडल का जिक्र भी किया गया था।

लेकिन इस बार बीजेपी और जेडीयू का यह रिश्ता ज्यादा नहीं चल पाया और नवंबर 2020 में बनी सरकार अपना 2 साल का कार्यकाल भी पूरा नहीं कर सकी। 

नीतीश ने अपनी छवि बिहार में विकास पुरुष की बनाई और शराबबंदी जैसे कई कड़े कदमों को उठाकर वह जनता के बीच में काफी लोकप्रिय भी हुए। लेकिन बार-बार पाला बदलने की वजह से उनकी आलोचना भी होती रही है।