बिहार: क्या बीजेपी नीतीश को मुख्यमंत्री बने रहने देगी?

12:26 pm Nov 26, 2020 | रविकान्त - सत्य हिन्दी

बिहार चुनाव बीत गया। नीतीश कुमार की सरकार बन गई। लेकिन अभी भी बिहार की राजनीति दिलचस्प बनी हुई है। भ्रष्टाचार के आरोपी रहे मेवालाल को नीतीश ने मंत्री बनाया। विपक्ष के विरोध और अब बड़े भाई की भूमिका में आई बीजेपी के दबाव के चलते नीतीश को मेवालाल का इस्तीफा लेना पड़ा। 

हिन्दुत्व के नए प्रोपेगेंडा लव जिहाज पर भी बीजेपी  नीतीश कुमार को दबाव में लेने की कोशिश कर रही है। गिरिराज सिंह ने बयान दिया है कि अन्य बीजेपी शासित राज्यों की तरह बिहार में भी लव जिहाद पर कानून बनना चाहिए। जाहिर है, बीजेपी हिन्दुत्व की राजनीतिक बिसात पर नीतीश को घेरने की कोशिश कर रही है। 

राजनीतिक फेरबदल और नए समीकरण बनने तक बीजेपी और जेडीयू के बीच बिहार में शह और मात का यह खेल लगातार चलता रहेगा।

तेजस्वी का बेहतर प्रदर्शन

तेजस्वी निश्चित तौर पर बिहार चुनाव के नायक साबित हुए हैं, लेकिन बाजी नीतीश कुमार के हाथ लगी। क्रिकेट की भाषा में कहें तो तेजस्वी ऐसे बल्लेबाज की तरह हैं, जिसने चौके-छक्के वाली आक्रामक पारी खेली। वह सेंचुरी बनाने और अपनी टीम को जिताने के करीब थे, लेकिन तभी दूसरी टीम की अपील पर अंपायर ने उंगली उठा दी और वह नर्वस नाइंटी का शिकार होकर पवेलियन वापस लौट गए। उनकी टीम जीतते-जीतते हार गई। 

बाजीगर निकले नीतीश कुमार 

पवेलियन में बैठी भीड़ भी अंपायर के निर्णय से असंतुष्ट दिखी। आउट होने के बावजूद, भीड़ ने खड़े होकर तालियाँ बजाकर उसका खैर-मकदम किया। दर्शकों का दिल उसने जीता। लेकिन दूसरी टीम का कप्तान एक ऐसा खिलाड़ी है जो यॉर्कर से लेकर बाउंसर सब झेलता है। उसका पार्टनर भी उसे आउट कराने की फिराक में है। जोखिम में रन लेने के लिए आवाज देता है। लेकिन वह अपनी क्रीज पर सुरक्षित टिका रहता है। दीवार की तरह आखिरी क्षण तक। अंपायर भी उसके धैर्य और ख्वाहिश पर फिदा है! लोग कहते हैं कि अंपायर के साथ उसकी मिलीभगत है। बहरहाल, बिहार के चुनाव नतीजे आरोपों और आशंकाओं से घिरे हुए हैं। लेकिन हारकर जीतने वाले को बाजीगर कहते हैं और नीतीश कुमार इस चुनाव के बाजीगर हैं।

दबाव में रहेंगे नीतीश 

बिहार में पिछले पंद्रह साल की राजनीति में नीतीश कमजोर खिलाड़ी कभी नहीं रहे। आने वाले समय में उनकी नीतियां और कार्यप्रणाली तय करेगी कि नीतीश कुमार स्वतंत्र हैं अथवा बीजेपी के दबाव में काम कर रहे हैं। हालांकि ताजपोशी के समारोह में नीतीश कुमार बेबस दिखे। नीतीश अपने कोटे से किसी मुसलिम को मंत्री नहीं बना सके। 

नीतीश को मुख्यमंत्री बनाकर बीजेपी ने असली खेल खेलना शुरू कर दिया है। सबसे पहले उसने अपने नेता सुशील मोदी को मंत्रिमंडल से बाहर रखकर नीतीश को यह संदेश दे दिया है कि बीजेपी उनके प्रति नरमी बरतने के मूड में नहीं है। सुशील मोदी को बीजेपी नेता से ज्यादा नीतीश के सहयोगी के रूप में देखा जाता रहा है। इसी वजह से सुशील मोदी का कद घटाया गया है। 

पहले माना जा रहा था कि गिरिराज सिंह या नित्यानंद राय को डिप्टी सीएम बनाया जाएगा। लेकिन बीजेपी ने तारकिशोर प्रसाद और रेणु देवी को पहले बीजेपी विधानमंडल दल का नेता और उप नेता बनाया। इसके बाद दोनों को डिप्टी सीएम की शपथ दिलाई गई।

दरअसल, नीतीश कुमार के साथ होते हुए भी बीजेपी उन्हें कमजोर करना चाहती थी। संभव है अंदरूनी तौर पर इसके लिए रणनीति भी बनाई गई हो और ऐसा मानने की वजह भी है।

नीतीश के ख़िलाफ़ साज़िश

मोदी के स्वघोषित हनुमान चिराग पासवान खुले तौर पर नीतीश कुमार पर प्रहार कर रहे थे। चिराग पर बीजेपी आलाकमान खामोश ही नहीं बल्कि नरम भी रहा। जाहिर है कि नीतीश को परास्त करने की यह अंदरूनी रणनीति थी। अगर तेजस्वी की लहर नहीं होती तो निश्चित तौर पर बीजेपी अपने बलबूते सरकार बनाती। कुछ कमी होती तो बीजेपी के रणनीतिकार और प्रबंधक छोटे दलों के साथ गठजोड़ करके या उन्हें तोड़कर सरकार बनाने में कामयाब हो जाते। 

लेकिन बढ़ती अलोकप्रियता, विरोध और भीतरघात के बावजूद नीतीश कुमार को 43 सीटों पर मिली जीत ने उन्हें मुख्यमंत्री बना दिया और तात्कालिक रूप से बीजेपी को सुरक्षित राजनीति करने के लिए मजबूर कर दिया। लेकिन अब एक बात तय है कि बीजेपी नीतीश कुमार को जनाधार विहीन करके सक्रिय राजनीति से बाहर करना चाहती है।

नीतीश कुमार और लालू यादव- दोनों जेपी आंदोलन से निकले हैं। दोनों सामाजिक न्याय की राजनीति के अगुआ रहे हैं। आगे चलकर दोनों के रास्ते अलग हो गए। 1990 से लेकर 2005 के बीच लालू यादव और उनकी पत्नी राबड़ी देवी मुख्यमंत्री रहे। इस दौरान नीतीश कुमार प्रमुख विपक्षी नेता रहे। 

जनाधार बढ़ाते रहे नीतीश 

कुर्मी जाति से आने वाले नीतीश कुमार ने लवकुश समीकरण बनाकर अपना आधार मजबूत किया। लवकुश समीकरण का मतलब है कुर्मी और कोयरी जाति की एकता। 2005 में वे पहली बार पूर्णकालिक मुख्यमंत्री बने। इस चुनाव में नीतीश ने बीजेपी के साथ गठजोड़ किया था। इससे उन्हें अगड़ी जातियों का भी समर्थन प्राप्त हुआ। इसके बाद नीतीश ने अति पिछड़ी और अति दलित जातियों में अपना जनाधार बढ़ाया। केवल तीन फीसद कुर्मी वोटों के साथ नीतीश ने क्रमशः अन्य जातियों और समुदायों का समर्थन हासिल किया। 

नीतीश का राजनीतिक कौशल

2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने प्रधानमंत्री के रूप में नरेन्द्र मोदी को आगे बढ़ाया। 2002 के गोधरा दंगों में मुसलमानों के नरसंहार के सवाल पर नीतीश कुमार एनडीए से बाहर आ गए। इस चुनाव में जेडीयू की पराजय की जिम्मेदारी लेते हुए उन्होंने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। अब नीतीश ने अपने पार्टी के अति दलित मुसहर जाति से आने वाले नेता जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया। पहले अगड़ी जातियाँ, फिर अति पिछड़ी और अति दलित जातियाँ उनके साथ जुड़ती रहीं। बीजेपी से पहले प्यार, तकरार और फिर प्यार के बावजूद 'उचित दूरी' बनाकर रखने से नीतीश मुसलिम मतदाताओं की भी पसंद रहे। 

2015 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार ने अपने पुराने प्रतिद्वन्द्वी लालू प्रसाद यादव से हाथ मिलाया। आरजेडी और जेडीयू के गठबंधन के सामने बीजेपी और रामविलास पासवान की एलजेपी का गठबंधन कमजोर साबित हुआ। इस चुनाव में आरजेडी को सबसे ज्यादा सीटें मिलीं लेकिन नीतीश कुमार पहले से ही मुख्यमंत्री का घोषित चेहरा थे। इसलिए बिना किसी हील हुज्जत के नीतीश मुख्यमंत्री बने और लालू प्रसाद यादव के छोटे बेटे तेजस्वी उप मुख्यमंत्री बने। 

माना जाता है कि इस गठबंधन की डोर लालू यादव के हाथ में थी। इसलिए दो साल बाद नीतीश ने पाला बदल लिया। वे बीजेपी के साथ चले गए और फिर से मुख्यमंत्री बने। अब उन्होंने नरेन्द्र मोदी से दूरी खत्म कर दी। 

बीजेपी की रणनीति 

बीते चुनाव के अंक गणित में पिछड़ने के बावजूद नीतीश लगातार चौथी बार मुख्यमंत्री बने हैं। इसका कारण नीतीश की सामाजिक और राजनीतिक सूझबूझ है। लेकिन अब बीजेपी नीतीश के पिछड़ा और दलित जनाधार में सेंध लगाकर उन्हें पटना से बेदखल करने के मूड में है। तीनों पदों के लिए पिछड़ी और अति पिछड़ी जाति के नेताओं का चयन बीजेपी की इसी रणनीति का हिस्सा है।

बिहार के चुनाव नतीजों पर देखिए चर्चा- 

बिहार की पिछले बीस साल की राजनीति का एक पहलू यह भी है कि नीतीश कुमार की उपस्थिति के कारण ही बीजेपी का बिहार में पूर्ण उदय नहीं हुआ। लालू यादव की सामाजिक न्याय की राजनीति के कारण निश्चित तौर पर बीजेपी को जमीन पुख्ता करने में मुश्किल हुई है, लेकिन उनकी अनुपस्थिति में नीतीश कुमार ने बीजेपी को सीधे तौर पर बिहार में घुसपैठ नहीं करने दी। 

15 साल में सातवीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने वाले नीतीश कुमार की खासियत यह है कि पाला बदल राजनीति के बावजूद, वे जनता की निगाह में अविश्वसनीय नहीं हुए। जनता ही नहीं बल्कि पार्टियों के साथ पलटी मारने के बावजूद उन्होंने खुद को भरोसे के लायक बनाए रखा।

नीतीश का राजनीतिक सफर

नीतीश कुमार की राजनीति की शुरुआत जनता पार्टी से हुई। 1977 में उन्होंने पहला चुनाव लड़ा लेकिन वे हार गए। 1985 में चुनाव जीतकर नीतीश पहली बार विधानसभा पहुँचे। 1989 में वे जनता दल से जुड़े और बिहार के महासचिव बनाए गए। इसी साल चुनकर वे पहली बार 9वीं लोकसभा में पहुँचे। जनता दल में नीतीश और लालू एक साथ रहे। 1994 में लालू से अलग होकर नीतीश ने जार्ज फर्नांडीज के साथ मिलकर समता पार्टी बनाई। इसके बाद 2003 में उन्होंने जेडीयू का गठन किया। 

समता पार्टी, लोकशक्ति पार्टी और जनता दल के शरद यादव गुट के विलय से जेडीयू वजूद में आई। समता पार्टी हो या जेडीयू, बड़े नेताओं की उपस्थिति के बावजूद पार्टी की असली ताकत हमेशा नीतीश कुमार के पास रही। 

दलितों-पिछड़ों को दी भागीदारी

बीजेपी के साथ रहते हुए उन्होंने सत्ता में सांप्रदायिकता का इस्तेमाल नहीं होने दिया। सरकार में उनका एजेंडा ही प्राथमिक रहा है। दलित और पिछड़ों को राजनीतिक भागीदारी देकर नीतीश ने प्रतीकात्मक राजनीति का भी प्रयोग किया। उन्होंने कमजोर जातियों को खास सहूलियतें भी दीं। पंचायतों में औरतों को 50 फ़ीसदी आरक्षण और शराबबंदी लागू करके  नीतीश कुमार ने समाज के आधे हिस्से में लोकप्रियता हासिल की। इसके साथ अति दलित और अति पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण के भीतर आरक्षण का प्रावधान किया। गौरतलब है कि बीजेपी ने इन्हीं जाति समुदायों से डिप्टी सीएम और प्रदेश अध्यक्ष बनाकर नीतीश कुमार की राजनीतिक जमीन हड़पने की चाल खेली है। 

अब देखना यह है कि बीजेपी की यह चाल कितनी कामयाब होती है। ‘सुशासन बाबू’ से ‘पलटू बाबू’ का नाम पाने वाले नीतीश कुमार बीजेपी की इस रणनीति का क्या जवाब देंगे क्या वे फिर से आरजेडी के साथ जाएंगे या बीजेपी के साथ रहकर ही अपने तीरों को धार देंगे 

दरअसल, बीजेपी ने अपनी रणनीति से एक साथ दो निशाने किए हैं। एक ओर बीजेपी नीतीश कुमार के जनाधार में सेंध लगाना चाहती है और दूसरी ओर सामाजिक न्याय की राजनीति को सोशल इंजीनियरिंग के जरिए खत्म करना चाहती है। अब देखना यह है कि अपनी चाल में बीजेपी कामयाब होती है या नीतीश कुमार बीजेपी को मात देते हैं।