पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक विपक्ष की एकता का एक नया फ़ार्मुला लेकर आए हैं। भुवनेश्वर में मुलाक़ात के बाद दोनों नेताओं ने कहा कि उन्होंने देश के संघीय ढाँचे को स्थाई और मजबूत बनाने का संकल्प लिया है। इसका एक मतलब निकलता है कि वो अपने अपने राज्य में स्वतंत्र रूप से काम करेंगे और जब एक दूसरे पा ख़तरा आएगा तो एक हो जायेंगे। यानी अनेकता में एकता। नवीन पटनायक से मिलने के लिए ममता ख़ास तौर पर भुवनेश्वर गयीं थीं। इसके पहले समाजवादी पार्टी के नेता और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपनी पार्टी की कार्यकारिणी की बैठक कोलकाता में बुलायी थी और ममता बनर्जी से मिले थे। विपक्ष की एकता की बातचीत वहाँ भी हुई थी।
संकेत ये मिला था कि वो कांग्रेस को विपक्षी एकता से दूर रखना चाहते हैं। बंगाल में ममता की लड़ाई बी जे पी के अलावे वाम दलों और कांग्रेस से भी है इसलिए कांग्रेस से अलग रहने का ममता बनर्जी का फ़ैसला तो समझ में आता है लेकिन अखिलेश के गणित को समझना मुश्किल है। नवीन पटनायक लंबे समय से बी जे पी और कांग्रेस से समान दूरी बनाकर चलते आए हैं,इसलिए बी जे पी भी कुल मिलाकर उन पर मेहरबान रहती है।
तीन धरा में बटीं हैं ग़ैर बीजेपी पार्टियाँ
ग़ैर बी जे पी पार्टियों में सबसे पहले वो क्षेत्रीय पार्टियाँ हैं जो जो बी जे पी और कांग्रेस से समान दूरी बना कर रखना चाहती हैं। दूसरे नंबर पर कांग्रेस के साथ चलने को तैयार पार्टियाँ हैं। तीसरी क़तार में वो पार्टियाँ हैं जो लोक सभा के अगले चुनाव के कुछ पहले आख़िरी फ़ैसला करेंगी। राज्यों में सत्तारूढ़ ग़ैर बी जे पी पार्टियों में सबसे बड़ा हिस्सा उन पार्टियों का है जो कांग्रेस से टूट कर बनी हैं। बंगाल में ममता बनर्जी ने तृणमूल कांग्रेस,तेलंगाना में चंद्रशेखर राव ने भारत राष्ट्र समिति, आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी ने वाई एस आर कांग्रेस का गठन अखिल भारतीय कांग्रेस से अलग होकर अपनी ही किया है। ममता बनर्जी और चंद्रशेखर राव प्रधान मंत्री पद के दावेदार माने जाते हैं।
राज्यों के समीकरण के हिसाब से भी इनका 2024 के लोक सभा चुनाव तक कांग्रेस के साथ आना मुश्किल लगता है। 2019 के लोक सभा चुनावों से पहले चंद्रशेखर राव ने ग़ैर कांग्रेस और ग़ैर बी जे पी दलों का एक मोर्चा बनाने की असफल कोशिश की थी। कांग्रेस से टूट कर बनी पार्टियों में महाराष्ट्र के शरद पवार की पार्टी एन सी पी ज़रूर कांग्रेस के साथ है। शिव सेना भी अब कांग्रेस के साथ है। लेकिन ये पार्टी ख़ुद एक बड़े विद्रोह के कारण सरकार से बाहर हो गयी है। एन सी पी के अलावे कांग्रेस के साथ जाने वाली पार्टियों में बिहार की जे डी यू और आर जे डी भी है। बिहार के मुख्यमंत्री और जे डी यू नेता नीतीश कुमार भी प्रधानमंत्री पद के दावेदार माने जाते हैं। लेकिन राज्य में चुनावी गणित के हिसाब से उनके गठ बंधन को कोई ख़तरा नहीं है।
कांग्रेस से क्यों डरती हैं क्षेत्रीय पार्टियाँ
कांग्रेस ने कर्नाटक में बी जे पी को रोकने के लिए 2018 के विधान सभा चुनावों के बाद जे डी एस पार्टी के कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बनवा दिया। लेकिन कुमारस्वामी विधायकों को साथ नहीं रख पाए और उनकी सरकार गिर गयी। कर्नाटक में कुछ ही दिनों बाद विधान सभा चुनाव होने हैं। लेकिन अभी तक जे डी एस और कांग्रेस में चुनावी गठ बंधन की संभावना दिखाई नहीं दे रही है। यह स्थिति तब है जब प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के नेता सी एम इब्राहिम भी अब जे डी एस में हैं। दर असल जे डी एस भी कांग्रेस से डरती है। 2018 में कांग्रेस के विधायकों की संख्या जे डी एस से ज़्यादा थी तब भी कांग्रेस ने कुमारस्वामी को नेता मान लिया था। चर्चा है कि कुमारस्वामी कांग्रेस के साथ साथ बी जे पी से चुनाव बाद गठ बंधन का रास्ता खुला रखना चाहते हैं। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव और बहुजन समाज पार्टी की मायावती भी लोक सभा चुनाव के बाद मौक़ा देख कर फ़ैसला करने के मूड में हैं। क्या पता देवे गौड़ा की तरह किसी को प्रधानमंत्री बनने का मौक़ा मिल ही जाय।सीबीआइ के डर से हो सकती है एकताआम आदमी पार्टी के नेता और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल अब तक अकेले चलने की नीति पर चल रहे थे। पंजाब में पार्टी की जीत के बाद तो आप को कांग्रेस के विकल्प के रूप में देखा जा रहा था। लेकिन हिमाचल और गुजरात विधान सभा चुनावों में वो कोई कमाल नहीं कर सके। उनके दो मंत्रियों को जेल में भेजे जाने के बाद उनके रूख में बदलाव दिखाई दे रहा है। अपमान जनक टिप्पणी मामले में राहुल गांधी को सज़ा होने के बाद अरविंद ने सज़ा को ग़लत बताया। इसके पहले अरविंद ने तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव से मुलाक़ात की थी। दिल्ली के कथित शराब घोटाले में पूर्व उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया तो जेल में हैं, और चंद्रशेखर राव की बेटी कविता से पूछ ताछ चल रही है।
बिहार में लालू यादव और उनके परिवार पर केंद्रीय एजेंसियों का शिकंजा कसता जा रहा है। बंगाल में ममता बनर्जी और उनकी पार्टी के कई नेता केंद्रीय एजेंसियों के निशाने पर हैं। उत्तर प्रदेश में मायावती डर के साये में जी रही हैं। सी बी आइ और इ डी जैसी एजेंसियों के रडार पर आने वाले ग़ैर बी जे पी नेताओं की सूची काफ़ी लंबी है। ज़्यादातर नेता अब महसूस करने लगे हैं की वो अपनी लड़ाई अकेले नहीं लड़ सकते हैं। ग़ैर बी जे पी पार्टियों में गठ बंधन का एक कारण ये भी बनता जा रहा है। इसके पहले 1977 में इमर्जेंसी से डरी हुई ग़ैर कांग्रेस पार्टियाँ एक हो गयी थीं। उन्होंने कांग्रेस को बुरी तरह पराजित किया। यह अलग बात है की उनकी एकता ज़्यादा समय तक नहीं चल पायी।
कांग्रेस के पास विकल्प क्या है
कांग्रेस के लिए सबसे आसान वामपंथी दलों के साथ लालमेल हो सकता है। हाल में त्रिपुरा विधान सभा चुनाव में दोनों साथ आए हालाँकि चुनाव नतीजे पर कोई ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ा। बंगाल में दोनों के बीच गठ बंधन हो सकता है, इससे कई और राज्यों में भी कांग्रेस को फ़ायदा हो सकता है। लेकिन इसमें सबसे बड़ी रुकावट केरल है जहाँ दोनों शक्तिशाली विरोधी हैं। उत्तर प्रदेश में सपा और बी एस पी भी साथ आ सकते हैं।पहले भी तीनों मिल कर चुनाव लड़ चुके हैं लेकिन इसके लिए कांग्रेस को मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों में इन पार्टियों को भी साथ लेना होगा। आँध्र प्रदेश में तेलुगु देशम के चंद्रा बाबू नायडू कांग्रेस के साथ आ सकते हैं। इससे दोनों पार्टियों को तेलंगाना में भी फ़ायदा हो सकता है।इन सब के बावजूद कांग्रेस को राज्यों के क्षत्रपों से ज़्यादा उम्मीद नहीं करनी चाहिए। छोटी छोटी ग़ैर बी जे पी पार्टियों को साथ लेकर कांग्रेस ज़्यादा सफल मोर्चा बना सकती है। 2014 के लोक सभा चुनावों के समय से बी जे पी लग भग इसी नीति पर चल रही है। बी जे पी के साथ चलने वाली कई छोटी पार्टियों का मोह भंग हो चुका है। यहाँ कांग्रेस के लिए एक बड़ा मौक़ा है। राज्यों के क्षत्रप अपना क़िला बचाने की जुगत में हैं। इनके साथ जाने का मतलब होगा तमिलनाडु जैसी स्थिति जहाँ कांग्रेस डी एम के पार्टी का पिछलग्गू बनी हुई है। ऐसे गठबंधन कांग्रेस के राष्ट्रीय चरित्र को समाप्त कर देंगे।