‘ये सभी तथ्य एक साथ रखे जाएँ तो स्पष्ट होता है कि महात्मा गाँधी की हत्या में सावरकर और उनके संगठन का ही हाथ था - कपूर कमीशन।’ यह निष्कर्ष उन्हीं ‘स्वातंत्र्यवीर सावरकर’ के बारे में है जिन्हें बीजेपी सबसे बड़ा देशभक्त बताती है।
‘कपूर कमीशन’ को पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू या इंदिरा गाँधी ने नहीं, लालबहादुर शास्त्री सरकार ने गठित किया था। सवाल है कि इसकी ज़रूरत क्यों पड़ी? दरअसल, महात्मा गाँधी की हत्या में शामिल गोपाल गोडसे को सजा पूरी होने के बाद अक्टूबर, 1964 में रिहा कर दिया गया था। इस रिहाई का उत्सव मनाने के लिए 11 नवंबर 1964 को पुणे में एक कार्यक्रम रखा गया। इस कार्यक्रम में तरुण भारत के संपादक और लोकमान्य तिलक के पौत्र जी.वी.केतकर ने कहा था कि उन्हें महात्मा गाँधी की हत्या की साजिश की जानकारी थी। केतकर ने कहा था कि नाथूराम गोडसे उनसे अक्सर गाँधी की हत्या के फायदों की चर्चा करता रहता था।
केतकर के इस बयान पर देश भर में प्रतिक्रिया हुई। सावरकर को संदेह का लाभ देकर छोड़े जाने पर सवाल उठे। समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया और कमलादेवी चटोपाध्याय ने प्रेस कॉन्फ़्रेंस की। इस प्रेस कॉन्फ़्रेंस में उन्होंने साफ़ कहा- 'गाँधी की हत्या के लिए कोई एक व्यक्ति ज़िम्मेदार नहीं है बल्कि इसके पीछे एक बड़ी साज़िश और संगठन है।'
अदालत ने महात्मा गाँधी की हत्या के जुर्म में नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे को फाँसी दे दी थी। गोपाल गोडसे, मदनलाल पाहवा और विष्णु करकरे को आजीवन कारावास मिला था। दिगम्बर बाड़गे वायदा माफ़ गवाह बनकर रिहा हुआ था।
दिगम्बर बाड़गे ने गाँधी जी के हत्याकांड में सावरकर की भूमिका को स्पष्ट किया था, लेकिन कोई 'स्वतंत्र साक्ष्य' उस समय नहीं मिला था जो इस गवाही की ताईद कर पाता। लिहाज़ा, सावरकर को संदेह का लाभ मिला और वह बरी हो गए। एक और आरोपी शंकर किस्तैया को उच्च न्यायालय से माफ़ी मिली थी।
केतकर के बयान के बाद मचे हो-हल्ले के बाद गृहमंत्री गुलजारीलाल नंदा ने संसद में एक जाँच आयोग बनाने का एलान किया ताकि महात्मा गाँधी की हत्या की पूरी साजिश सामने आ सके।
सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस जीवन लाल कपूर की अध्यक्षता में बनाए गए आयोग ने 21 नवंबर 1966 से काम शुरू किया था। आयोग ने कुल 162 बैठकें कीं। इस दौरान उसने 101 गवाहियाँ दर्ज कीं और 407 दस्तावेज़ों का अध्ययन किया। 30 सितंबर, 1969 को आयोग ने अपनी जाँच पूरी की। जाँच का नतीजा यही निकला कि सावरकर के निर्देश पर गाँधी जी की हत्या की गई। लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता था। 22 फ़रवरी 1966 को सावरकर का निधन हो गया था।
दरअसल, कपूर कमीशन के गठन के बाद से ही सावरकर ने खाना-पीना त्याग दिया था। सवाल यह है कि क्या उन्हें जीवन की अंतिम बेला में अपमानित होने का संदेह था? जो भी हो, उनकी मृत्यु के बाद उनके सुरक्षाकर्मी रहे अप्पा रामचंद्र कसर और उनके सचिव विष्णु डामले को यह आज़ादी जरूर मिल गई कि वे सही गवाही आयोग के सामने दर्ज कराएँ। उन्होंने आप्टे और गोडसे से सावरकर की नजदीकी और गाँधीजी की हत्या के पहले की कई अहम बैठकों की पूरी जानकारी आयोग को दे दी। यह भी कि महात्मा गाँधी की सभा में बम फेंकने वाला मदनलाल पाहवा भी जनवरी 1948 में सावरकर से आधे घंटे की मुलाक़ात करके गया था। कुल मिलाकर अदालत में जो दिगम्भर बाड़गे की गवाही के बावजूद साबित नहीं हो सका था, वह अब साफ़ हो गया था।
कपूर कमीशन का निष्कर्ष वही था जो कभी सरदार पटेल ने अपने पत्र में प्रधानमंत्री नेहरू को लिखा था। 27 फ़रवरी 1948 को सरदार पटेल ने नेहरू को भेजे गये पत्र में लिखा था -
‘सावरकर के सीधे मार्गदर्शन में हिंदू महासभा के एक कट्टर वर्ग ने यह षड्यंत्र रचा। उसे आगे बढ़ाया और अंतिम परिणाम तक पहुंचाया। यह भी दिखाई देता है कि यह षड्यंत्र 10 आदमियों तक सीमित था, जिनमें से दो को छोड़कर सब पकड़ लिए गए हैं।...आरएसएस जैसे गुप्त संगठनों के पास न तो सदस्यों का कोई रिकॉर्ड है और न ही कोई रजिस्टर वगैरह है, इसलिए इसके बारे में यह प्रमाणित जानकारी हासिल करना कठिन है कि कोई विशेष व्यक्ति इसका सक्रिय सदस्य है या नहीं।’
सावरकर पर लगे महात्मा गाँधी की हत्या के दाग की ही वजह से उस समय आरएसएस ने उनसे दूरी बना ली थी। आरएसएस का बनाया जनसंघ राजनीतिक रूप से लगातार सक्रिय था, लेकिन सार्वजनिक सभा-समारोहों या बैनर-पोस्टरों में कभी सावरकर का नाम नहीं लिया जाता था।
1977 में जनता पार्टी में शामिल जनसंघ के दिग्गज नेताओं ने भी सावरकर का नाम नहीं लिया। न ‘भारत रत्न’ की माँग की और न संसद में तसवीर लगवाई। संसद में तसवीर तब लगाई गई जब अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में केंद्र में सरकार बन गई। अब सावरकर से दूरी बनाने की कोई ज़रूरत नहीं रह गई थी। मोदी के समय तो सावरकर की नीति पर पार्टी खुलकर चल रही है, हालाँकि महात्मा गाँधी का नाम लेते हुए प्रधानमंत्री की जुबान थकती नहीं।
सावकर को ‘भारत रत्न’ देने की माँग महाराष्ट्र चुनाव को देखते हुए की गई जबकि उन पर न सिर्फ़ महात्मा गाँधी की हत्या में शामिल होने का आरोप है, बल्कि यह भी आरोप है कि जब तमाम क्रांतिकारी अपने जीवन का बलिदान कर रहे थे तो उन्होंने माफ़ी माँगकर जेल से छूटने और फिर कभी आज़ादी का नाम न लेने की शपथ ली थी। कालापानी में रहते हुए उन्होंने कई माफ़ीनामे अंग्रेज सरकार को भेजे। 1913 को माफ़ी की अर्ज़ी में सावरकर लिखते हैं-
‘अगर सरकार अपनी असीम भलमनसाहत और दयालुता में मुझे रिहा करती है तो मैं आपको यक़ीन दिलाता हूं कि मैं संविधानवादी विकास का सबसे कट्टर समर्थक रहूंगा और अंग्रेज़ी सरकार के प्रति वफ़ादार रहूंगा, जो कि विकास की सबसे पहली शर्त है।’
माफ़ी की अर्ज़ी में सावरकर ने आगे लिखा, ‘जब तक हम जेल में हैं, तब तक महामहिम के सैकड़ों-हजारों वफ़ादार प्रजा के घरों में असली हर्ष और सुख नहीं आ सकता, क्योंकि ख़ून के रिश्ते से बड़ा कोई रिश्ता नहीं होता। अगर हमें रिहा कर दिया जाता है, तो लोग ख़ुशी और कृतज्ञता के साथ सरकार के पक्ष में, जो सज़ा देने और बदला लेने से ज़्यादा माफ़ करना और सुधारना जानती है, नारे लगाएंगे।’
सावरकर ने आगे लिखा, ‘इससे भी बढ़कर संविधानवादी रास्ते में मेरा धर्म परिवर्तन भारत और भारत से बाहर रह रहे उन सभी भटके हुए नौजवानों को सही रास्ते पर लाएगा, जो कभी मुझे अपने पथ-प्रदर्शक के तौर पर देखते थे। मैं भारत सरकार जैसा चाहे, उस रूप में सेवा करने के लिए तैयार हूं, क्योंकि जैसे मेरा यह रूपांतरण अंतरात्मा की पुकार है, उसी तरह से मेरा भविष्य का व्यवहार भी होगा। मुझे जेल में रखने से आपको होने वाला फ़ायदा मुझे जेल से रिहा करने से होने वाले होने वाले फ़ायदे की तुलना में कुछ भी नहीं है।’ माफ़ी की अर्ज़ी में सावरकर ने यह भी लिखा, ‘जो ताक़तवर है, वही दयालु हो सकता है और एक होनहार पुत्र सरकार के दरवाज़े के अलावा और कहां लौट सकता है। आशा है, हुजूर मेरी याचनाओं पर दयालुता से विचार करेंगे।’
(स्रोत - आर.सी मजूमदार, पीनल सेटलमेंट्स इन द अंडमान्स, प्रकाशन विभाग, 1975)
सावरकर के पत्र की भाषा किसी भी देशभक्त के लिए शर्मनाक हो सकती है। सावरकर ने कालापानी जाने के दो महीने के अंदर ही अपना पहला माफ़ीनामा भेज दिया था। वह क़रीब दस साल जेल में रहे और लगातार माफ़ी की अर्जियाँ लिखते रहे।
जब अंग्रेजों ने सावरकर को छोड़ा तो वाक़ई वह होनहार पुत्र साबित हुए। उन्होंने कभी आज़ादी का नाम नहीं लिया और सांप्रदायिक राजनीति के नायक बने, जैसा कि अंग्रेज चाहते थे। जिन्ना से पहले उन्होंने 1937 में द्विराष्ट्रवाद का सिद्धांत दिया। 1940 में पाकिस्तान का प्रस्ताव पेश करते हुए जिन्ना ने सावरकर को धन्यवाद भी दिया।
सवाल यह है कि महात्मा गाँधी की हत्या की साजिश रचने और अंग्रेजों से माफ़ी माँगने के बावजूद बीजेपी उन्हें अपना नायक क्यों बता रही है? ‘भारत रत्न’ क्यों देना चाहती है? जवाब है उनका 'हिंदुत्व' का दर्शन। सावरकर ने ही इस शब्द का ईजाद करते हुए बताया था कि भारत का नागरिक वही हो सकता है जिसकी ‘पितृभूमि’ और ‘पवित्र भूमि’ भारत हो। मुसलिमों और ईसाइयों को निशाना बनाते हुए हिंदू ध्रुवीकरण का जो सपना सावरकर ने देखा था, वही बीजेपी की मौजूदा चुनावी रणनीति है।
(लेखक मीडिया विजिल के संस्थापक संपादक हैं।)