आपातकाल - आरएसएस ने क्यों कहा था कि उसका जेपी आंदोलन से कोई लेना-देना नहीं? 

07:22 am Jun 27, 2020 | शमसुल इसलाम - सत्य हिन्दी

आरएसएस से स्नातक हुए और अब बीजेपी के महासचिव राम माधव ने भारत में 25 जून 1975 में आपातकाल राज की 45वीं बरसी पर यह दावा किया है कि देश में प्रजातंत्र बचा हुआ है क्योंकि ‘सरकार चला रहे नेता (आरएसएस-बीजेपी से जुड़े) उनमें से हैं जिन्होंने (आपातकाल के ख़िलाफ़) आज़ादी की लड़ाई लड़ी। वे उदारवादी प्रजातान्त्रिक मूल्यों के प्रति समर्पित हैं, किसी मजबूरी की वजह से नहीं बल्कि एक धर्मसिद्धान्त के तौर पर।’ ये दोनों दावे सफ़ेद झूठ हैं क्योंकि आरएसएस-बीजेपी राज में एक तरह से अघोषित आपातकाल लागू है जिसका शिकार, आम लोग, राजनैतिक/सामाजिक कार्यकर्ता, पत्रकार, मज़दूर/छात्र/महिला/शिक्षक/किसान संगठन, दलित, अल्पसंख्यक समुदाय, यहाँ तक कि अदालतें भी हो रही हैं।

यह बिना वजह नहीं है। मौजूदा भारत के शासकों की रगों में आरएसएस का ख़ून दौड़ता है। आरएसएस प्रमुख गुरु गोलवलकर, जिन्हें मोदी अपने आप को एक कुशल राजनैतिक नेता में ढलने का श्रेय भी देते हैं, ने 1940 में ही आरएसएस के 1350 उच्चस्तरीय कार्यकर्ताओं के सामने भाषण में कहा था कि: 

‘एक ध्वज के नीचे, एक नेता के मार्गदर्शन में, एक ही विचार से प्रेरित होकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिंदुत्व की प्रखर ज्योति इस विशाल भूमि के कोने-कोने में प्रज्जवलित कर रहा है।’ 

याद रहे कि एक झंडा, एक नेता और एक विचारधारा का यह नारा सीधे यूरोप की नाज़ी एवं फ़ासिस्ट पार्टियों, जिनके नेता क्रमशः हिटलर और मुसोलिनी जैसे तानाशाह थे, के कार्यक्रमों से लिया गया था।

भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने 25-26 जून, 1975 को देश में आंतरिक आपातकाल घोषित किया था। यह 19 महीने तक लागू रहा। इस दौर को भारतीय लोकतांत्रिक राजनीति में काले दिनों के रूप में याद किया जाता है। इंदिरा गाँधी का दावा था कि जयप्रकाश नारायण ने सशस्त्र बलों से कहा था कि कांग्रेस शासकों के 'अवैध' आदेशों को नहीं मानें। इसने देश में अराजकता की स्थिति उत्पन्न कर दी और भारतीय गणतंत्र का अस्तित्व ख़तरे में पड़ गया था। इसलिए संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल घोषित करने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं रह गया था।

​आरएसएस का दावा है कि उसने इंदिरा गाँधी द्वारा घोषित आपातकाल का बहादुरी के साथ मुक़ाबला किया और भारी दमन का सामना किया। बहरहाल, उस दौर के अनेक कथानक हैं जो आरएसएस के इन दावों को झुठलाते हैं। यहाँ हम ऐसे दो दृष्टांतों का उल्लेख कर रहे हैं। इनमें से एक वरिष्ठ भारतीय पत्रकार और विचारक प्रभाष जोशी हैं और दूसरे, पूर्व खुफिया ब्यूरो (आईबी) प्रमुख टीवी राजेश्वर हैं जिनके द्वारा बताई गई घटनाओं का ज़िक्र हम यहाँ करेंगे। आपातकाल जिस समय घोषित किया गया था राजेश्वर आईबी के उप प्रमुख थे। राजेश्वर ने आपातकाल (जिसे राज्य का नंगा आतंकवाद कहना सही होगा) के उस दौर के बारे में बताया है कि किस तरह से आरएसएस ने इंदिरा गाँधी के दमनकारी शासन के सम्मुख घुटने टेक दिए थे और इंदिरा गाँधी एवं उनके पुत्र संजय गांधी को 20-सूत्रीय कार्यक्रम पूरी वफ़ादारी के साथ लागू करने का आश्वासन था। आरएसएस के अनेक 'स्वयंसेवक' 20-सूत्रीय कार्यक्रम को लागू करने के रूप में माफ़ीनामे पर दस्तख़त कर जेल से छूटे थे।

हैरानी की बात यह है कि इसके बावजूद, आरएसएस वाले आपातकाल के दौरान उत्पीड़न के एवज़ में आज मासिक पेंशन प्राप्त कर रहे हैं।

बीजेपी शासित या कभी बीजेपी शासित राज्य रहे गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान और महाराष्ट्र में उन लोगों को 10,000 रुपये मासिक पेंशन देने का फ़ैसला लिया गया जिन्हें आपातकाल के दौरान एक महीने से कम समय तक जेल में रखा गया था। और आरएसएस से जुड़े जो लोग इस दौरान 2 माह से कम अवधि के जेल गए थे उन्हें बतौर 20000 रुपये पेंशन देना तय किया गया। इस नियम में उन 'स्वयंसेवकों' का ख्याल रखा गया जिन्होंने केवल एक या दो महीने जेल में रहने के बाद घबरा कर दया याचिका पेश करते हुए माफ़ीनामे पर हस्ताक्षर कर दिए थे। इस पेंशन के लिए ऐसी कोई शर्त नहीं थी कि लाभार्थी आपातकाल के पूरे दौर में जेल में रहा हो।

ख़ास बात यह है कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ देश की आज़ादी के आंदोलन में जेल में रहने वालों को मिलने वाली स्वतंत्रता सेनानी पेंशन पाने वालों में से एक भी आरएसएस का 'स्वयंसेवक' नहीं है। यहाँ एक और रोचक तथ्य है कि आरएसएस के हिंदुत्व सह-यात्री शिवसेना ने खुले आम आपातकाल का समर्थन किया था।

आपातकाल में आरएसएस की भूमिका

​प्रभाष जोशी का लेख अंग्रेज़ी साप्ताहिक 'तहलका' में आपातकाल की 25वीं वर्षगांठ पर छपा था। उनके अनुसार आरएसएस के आपातकाल विरोधी संघर्ष में सहभागिता को लेकर उस दौर में भी ‘मन ही मन हमेशा एक क़िस्म का संदेह, उसके साथ कुछ दूरी, विश्वास की कमी’ का भाव था।

उन्होंने आगे बताया -

‘उस समय के आरएसएस प्रमुख बालासाहेब देवरस ने संजय गाँधी के कुख्यात 20-सूत्रीय कार्यक्रम को लागू करने में सहयोग करने हेतु इंदिरा गाँधी को एक पत्र लिखा था। यह है आरएसएस का असली चरित्र...आप उनके काम करने के अंदाज़ और तौर तरीक़ों को देख सकते हैं। यहाँ तक कि आपातकाल के दौरान, आरएसएस और जनसंघ के अनेक लोग माफ़ीनामा देकर जेलों से छूटे थे। माफ़ी माँगने में वे सबसे आगे थे। उनके नेता ही जेलों में रह गए थे: अटल बिहारी वाजपेयी, एल के आडवाणी, यहाँ तक कि अरुण जेटली। आरएसएस ने आपातकाल लागू होने के बाद उसके ख़िलाफ़ किसी प्रकार का कोई संघर्ष नहीं किया। तब, बीजेपी आपातकाल के ख़िलाफ़ संघर्ष की याद को अपनाने की कोशिश क्यों कर रही है’

प्रभाष जोशी के निष्कर्ष के अनुसार,

‘वे कभी संघर्षशील शक्ति न तो रहे हैं न ही वे कभी संघर्ष के प्रति उत्सुक रहने वालों में से हैं। वे बुनियादी तौर पर समझौतापरस्त रहे हैं। वे कभी भी सही मायने में सरकार के ख़िलाफ़ संघर्ष करने वालों में नहीं रहे हैं।’

संघ ने किया था आपातकाल का समर्थन

टी.वी. राजेश्वर सेवानिवृत्ति के बाद उत्तर प्रदेश और सिक्किम के राज्यपाल रहे हैं। उन्होंने अपनी पुस्तक 'इंडिया: द क्रूशियल ईयर्स’ (हार्पर कॉलिन्स) में, इस तथ्य की पुष्टि की है कि ‘वह (आरएसएस) न केवल इसका (आपातकाल) समर्थन कर रहा था, वह श्रीमती गाँधी के अलावा संजय गाँधी के साथ संपर्क स्थापित करना चाहता था।’ 

राजेश्वर ने मशहूर पत्रकार करण थापर के साथ एक मुलाक़ात में खुलासा किया,

‘देवरस ने गोपनीय तरीक़े से प्रधानमंत्री आवास के साथ संपर्क बनाया और देश में अनुशासन लागू करने के लिए सरकार ने जो सख़्त क़दम उठाए थे उनमें से कई का मज़बूती के साथ समर्थन किया था। देवरस श्रीमती गाँधी और संजय से मिलने के इच्छुक थे। लेकिन श्रीमती गाँधी ने इनकार कर दिया।’ 

​राजेश्वर की पुस्तक के अनुसार - 

‘आरएसएस, एक दक्षिणपंथी हिंदू राष्ट्रवादी संगठन, को आपातकाल के समय प्रतिबंधित कर दिया गया था। लेकिन इसके प्रमुख बाला साहेब देवरस… ने लागू आदेशों और देश में अनुशासन को लागू करने के लिए सरकार के अनेक आदेशों का मज़बूती के साथ समर्थन किया था। संजय गाँधी के परिवार नियोजन अभियान और इसे विशेष रूप से मुसलमानों के बीच लागू करने के प्रयासों का देवरस का भरपूर समर्थन हासिल था।’

राजेश्वर ने यह तथ्य भी साझा किया है कि आपातकाल के बाद भी- ‘संघ (आरएसएस) ने आपातकाल के बाद हुए चुनावों में कांग्रेस को अपना समर्थन विशेष रूप से व्यक्त किया था।’

यह ख़ास तौर पर ग़ौरतलब है कि सुब्रमण्यम स्वामी जो अब बीजेपी से सांसद हैं, के अनुसार भी आपातकाल की अवधि में, आरएसएस के अधिकांश वरिष्ठ नेताओं ने आपातकाल के ख़िलाफ़ संघर्ष के साथ गद्दारी की थी।

आरएसएस अभिलेखागार में समकालीन दस्तावेज़ प्रभाष जोशी और राजेश्वर के कथन की सत्यता प्रमाणित करते हैं। (चित्र में देवरस की किताब के कुछ अंश)

इमरजेंसी की याद

आरएसएस के तीसरे सरसंघचालक, मधुकर दत्तात्रेय देवरस ने आपातकाल लगने के दो महीने के भीतर इंदिरा गाँधी को पहला पत्र लिखा था। यह वह समय था जब राजकीय आतंक चरम पर था। देवरस ने अपने पत्र दिनांक 22 अगस्त, 1975 की शुरुआत ही इंदिरा की प्रशंसा के साथ इस तरह की:

‘मैंने 15 अगस्त, 1975 को रेडियो पर लाल क़िले से देश के नाम आपके संबोधन को जेल (यरवदा जेल) में सुना था। आपका यह संबोधन संतुलित और समय के अनुकूल था। इसलिए मैंने आपको यह पत्र लिखने का फ़ैसला किया।’

इंदिरा गाँधी ने देवरस के इस पत्र को जवाब नहीं दिया। देवरस ने 10 नवंबर, 1975 को इंदिरा को एक और पत्र लिखा। इस पत्र की शुरुआत उन्होंने सुप्रीम कोर्ट द्वारा इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फ़ैसले के ख़िलाफ़ दिए गए निर्णय के लिए बधाई के साथ की। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उनको चुनाव में भ्रष्ट साधनों के उपयोग का दोषी मानते हुए पद के अयोग्य क़रार दिया था। देवरस ने इस पत्र में लिखा - 

'सुप्रीम कोर्ट के सभी पाँच न्यायाधीशों ने आपके चुनाव को संवैधानिक घोषित कर दिया है, इसके लिए हार्दिक बधाई।'

ग़ौरतलब है कि विपक्ष का दृढ़ मत था कि यह निर्णय कांग्रेस के द्वारा 'मैनेज्ड' था। देवरस ने अपने इस पत्र में यहाँ तक कह दिया- 

आरएसएस का नाम जयप्रकाश नारायण के आंदोलन के साथ अन्यथा जोड़ दिया गया है। सरकार ने अकारण ही गुजरात आंदोलन और बिहार आंदोलन के साथ भी आरएसएस को जोड़ दिया है… संघ का इन आंदोलनों से कोई संबंध नहीं है…।


देवरस ने पत्र में लिखा

इंदिरा गाँधी ने क्योंकि देवरस के इस पत्र का भी जवाब नहीं दिया। आरएसएस प्रमुख ने विनोबा भावे के साथ संपर्क साधा जिन्होंने आपातकाल का आध्यात्मिक समर्थन किया था और इंदिरा गाँधी का पक्ष लिया था। देवरस ने अपने पत्र दिनांक 12 जनवरी, 1976 में, आचार्य विनोबा भावे से आग्रह किया कि आरएसएस पर प्रतिबंध हटाए जाने के लिए वे इंदिरा गाँधी को सुझाव दें। 

आचार्य विनोबा भावे ने भी पत्र का जवाब नहीं दिया। हताश देवरस ने एक और पत्र लिखा जिस पर तिथि भी अंकित नहीं है। उन्होंने लिखा: 

‘अख़बारों में छपी सूचनाओं के अनुसार प्रधानमंत्री (इंदिरा गाँधी) 24 जनवरी को वर्धा पवनार आश्रम में आपसे मिलने आ रही हैं। उस समय देश की वर्तमान परिस्थिति के बारे में उनकी आपके साथ चर्चा होगी। मेरी आपसे याचना है कि प्रधानमंत्री के मन में आरएसएस के बारे में जो ग़लत धारणा घर कर गई है आप कृपया उसे हटाने की कोशिश करें ताकि आरएसएस पर लगा प्रतिबंध हटाया जा सके और जेलों में बंद आरएसएस के लोग रिहा होकर प्रधानमंत्री के नेतृत्व में प्रगति और विकास में सभी क्षेत्रों में अपना योगदान कर सकें।’ 

आरएसएस को आपातकाल के मुजरिमों को गले लगाने में भी कोई एतराज़ नहीं रहा है। भारत के पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने 2018 में स्वयंसेवकों के दीक्षा समारोह के मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया था। प्रणब मुखर्जी की गिनती आपातकाल के दौरान हुई ज़्यादतियों के लिए ज़िम्मेदार सर्वोच्च कांग्रेसी नेताओं में होती है और शाह आयोग ने भी आपातकाल की ज़्यादतियों के लिए उन्हें प्रमुख रूप से ज़िम्मेदार  माना था। आरएसएस की त्रासदी यह है कि भारत में एक लोकतांत्रिक व्यवस्था अभी तक क़ायम है। यही उसकी विवशता है। हालाँकि वह नग्न तानाशाही का कट्टर हिमायती है परंतु उसे अपनी इस असलियत को छुपाने के लिए मुखौटे लगाने पड़ते हैं।