महाराष्ट्र में सांसद नवनीत राणा और विधायक रवि राणा पर हाल ही में दर्ज हुए राजद्रोह के मामले ने देश को चौंका दिया। दोनों पति-पत्नी हैं। इन्होंने मुख्यमंत्री ठाकरे परिवार के आवास मातोश्री के बाहर हनुमान चालीसा पढ़ने का सार्वजनिक संकल्प लिया था और ऐसा मसजिदों से लाउडस्पीकर हटाने की खुली मांग के बदले में किया गया। हनुमान चालीसा तो पढ़ा नहीं जा सका, लेकिन इस बीच इतनी घटनाएं घट गयीं और घटती जा रही हैं कि यह मामला क़ानूनी, सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक महत्व का बन चुका है।
बीजेपी सवाल उठा रही है कि हनुमान चालीसा पढ़ना क्या इतना बड़ा गुनाह है कि राजद्रोह का मुक़दमा लग जाएगा? मगर, बीजेपी का सवाल ग़लत है। ग़लत इसलिए कि हनुमान चालीसा वास्तव में पढ़ा ही नहीं गया। ऐसे में ‘हनुमान चालीसा पढ़ने पर राजद्रोह लगाने’ की बात तथ्यात्मक रूप से सही कैसे हो सकती है? जाहिर है बीजेपी का मक़सद इस मुद्दे को धार्मिक और राजनीतिक रूप से उद्धव सरकार के प्रतिकूल और अपने मंसूबे के अनुकूल बनाना है।
‘राजद्रोह’ का लगातार होता रहा है दुरुपयोग
वास्तव में राजद्रोह की धाराओं का जितना दुरुपयोग इस देश में हुआ है उतना किसी और धारा का नहीं। यह दुरुपयोग राजनीतिक विरोधियों को सबक़ सिखाने के लिए अधिक हुआ है। आँकड़े इस बात की पुष्टि करते हैं। एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक़ 2015 से 2020 के बीच 356 मामले राजद्रोह के दर्ज हुए। ट्रायल सिर्फ़ 62 मामलों का हो सका। इनमें भी 55 मामलों में 59 लोग बरी हो गये। केवल 7 मामलों में 12 लोगों को सज़ा हो सकी। 2020 के अंत तक 103 मामले अदालतों में लंबित थे। पुलिस के पास जांच के लिए 230 मामले पड़े हुए हैं। इनमें से 157 मामले 2019 के हैं। पांच साल में सज़ा देने की दर महज 3.3 प्रतिशत रही।
राजद्रोह के मामलों का दुरुपयोग समझना हो तो यह देखें कि इसका उपयोग किन राज्यों में हो रहा है और कब हो रहा है। जम्मू-कश्मीर, मणिपुर, असम, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, दिल्ली ऐसे राज्य हैं जहां राजद्रोह की धाराओं में सबसे ज्यादा केस दर्ज किए गये हैं। भारतीय जनता पार्टी के लिए ये राज्य राजनीतिक प्रयोग वाले प्रदेश रहे हैं और उन्हें राजनीतिक सफलताएं मिली भी हैं।
आंदोलन भी रहते हैं निशाने पर
किसान आंदोलन, हाथरस मामले खास तौर से निशाने पर रहे और राजद्रोह के मामलों का इस्तेमाल हुआ। किसान आंदोलन के दौरान टूलकिट मामला भी सामने आया था जिसमें दिशा रवि को राजद्रोह के मामले में गिरफ्तार किया गया था। बाद में वह बरी हो गयीं। जेएनयू कैम्पस को भी राजद्रोह की धाराओं के तहत अदालत तक घसीटा गया है। कन्हैया कुमार अब भी इस आरोप से बरी नहीं हो सके हैं।
124ए के तहत राजद्रोह का मुक़दमा उन लोगों पर होता है जो सरकार के ख़िलाफ़ लोगों को भड़काते हैं या हिंसा भड़कने की वजह बनते हैं। भाषण, लेखन, प्रतीक, पेंटिंग या किसी भी माध्यम से लोगों को उकसाने पर राजद्रोह का मुक़दमा लग सकता है।
अंग्रेजी राज में बना यह क़ानून अंग्रेजों के लिए रक्षा कवच था और क्रांतिकारियों के ख़िलाफ़ घातक हथियार। मगर, आज लोकतांत्रिक सरकारों को ऐसे रक्षा कवच की क्या ज़रूरत है?
‘राजद्रोह’ क्यों सत्ता को होती है पसंद?
2019 के आम चुनाव में कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में राजद्रोह की धारा से देश को निजात दिलाने का वादा शामिल किया था। मगर, बीजेपी इसके पक्ष में नहीं है। आम तौर पर सत्ता पक्ष हमेशा इसके विरोध में रहता है और उम्मीद करता है कि उसके पास कठोर से कठोर क़ानूनों का बुके हो।
महाराष्ट्र सरकार ने कोई नयी परंपरा खड़ी नहीं की है। राजनीतिक विरोधियों पर राजद्रोह लगाने की परंपरा को बस आगे बढ़ाया है। शिवसैनिक खुले आम तांडव करें तो कुछ नहीं। मगर, राजनीतिक विरोधी अगर ऐसा कुछ करते हैं तो घटना घटने से पहले ही राजद्रोह का केस तैयार हो जाता है। नवनीत राणा और उनके पति रवि राणा के मामले में ऐसा ही हुआ है। हनुमान चालीसा का पाठ वे नहीं कर सके। फिर भी ‘राजद्रोह’ का ‘राज तिलक’ उन पर थोप दिया गया।
पक्षपात या भेदभाव भी ‘राजद्रोह’ का दुरुपयोग
शिवसेना नेता संजय राउत ने कहा कि जो शिवसेना के धैर्य की परीक्षा लेगा उसे 20 फीट नीचे गाड़ देंगे। क्या यह क़ानून को चुनौती नहीं है? सरकार को चुनौती नहीं है? क्या इसे ‘समूहों के बीच हिंसा फैलाने की कोशिश’ नहीं माना जाना चाहिए?
राजद्रोह की धारा लागू करना अगर इसका दुरुपयोग है तो इसे नहीं लागू करना भी उसी तरह इस धारा का दुरुपयोग है।
बीजेपी नेता नीतेश राणे ने बयान दिया कि 24 घंटे के लिए पुलिस हटा लें तो वे शिवसैनिकों को सबक़ सिखा देंगे। यह बयान भी राजद्रोह की धारा की जद में आ सकता है। मगर, सरकार की मर्जी कि वे कब किसे अपनी गिरफ्त में लेते हैं।
पत्रकारों के लिए ‘राजद्रोह’ का रक्षा कवच बने विनोद दुआ
देश के पत्रकारों पर भी ‘राजद्रोह’ के दुरुपयोग होते रहे हैं। जब विनोद दुआ के ख़िलाफ़ यह धारा लगी, तो उन्होंने सुप्रीम कोर्ट तक संघर्ष किया। बीते वर्ष जून महीने में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से फ़ैसला सुनाया कि विनोद दुआ पर ‘राजद्रोह’ लगाना ग़लत है। एक पत्रकार को क़ानूनी सुरक्षा पाने का अधिकार है। ऐसा कहकर सुप्रीम कोर्ट ने पत्रकारों को ‘राजद्रोह’ के दुरुपयोग का शिकार होने से बचा लिया। क्या यही काम जनप्रतिनिधियों के लिए नहीं होना चाहिए?
अगर पत्रकारों या जनप्रतिनिधियों के लिए ‘राजद्रोह’ ग़लत है तो बाक़ी लोगों के लिए भी यह उतना ही ग़लत होगा। ऐसे में वक़्त आ गया है जब राजनीति से ऊपर उठते हुए ‘राजद्रोह’ से देशवासियों को मुक्ति दिला दिया जाए। केवल सत्ता में रहने वाली सरकार की हिफाजत के लिए या फिर सत्ता के ख़िलाफ़ कोई आवाज़ उठने नहीं देने के लिए ‘राजद्रोह’ का जारी रहना देश के हित में नहीं है। वजह साफ है सत्ता देश नहीं हो सकती। सत्ता बदलती रहती है, देश बना रहता है।