इसमें संदेह नहीं कि नरेंद्र कोहली बहुत शालीन व्यक्ति थे- लेखक के तौर पर मिली अपनी प्रसिद्धि से बहुत अभिभूत भी नज़र नहीं आते थे। बेशक, अंग्रेज़ी में होते तो शायद अमिष त्रिपाठी या चेतन भगत जैसी शोहरत उनके हिस्से भी होती। निस्संदेह वे इन दोनों से कहीं गंभीर लेखक थे, जो शायद हिंदी के साहचर्य ने उन्हें बनाया।
संवाद उनसे मेरा बहुत कम रहा। बरसों पहले 'जनसत्ता' में रहते हुए जब हम व्यंग्य के एक कॉलम की योजना बना रहे थे तो कुछ महीने उनसे नियमित बातचीत होती रही। वह योजना अंततः स्थगित हो गई लेकिन तभी मैंने पाया कि एक लेखक के तौर पर उनमें पर्याप्त विनम्रता थी। मेरी तरह के कनिष्ठ लेखक को उन्होंने बहुत मान दिया था।
बचपन में रामकथा पर केंद्रित उनके चार उपन्यास मेरे हाथ लगे थे जिनको उस उम्र में पढ़ने का अपना सुख था। बाद में वह मिथक-संसार उनकी साहित्यिक चेतना का केंद्रीय तत्व बना रहा। इससे हट कर भी उन्होंने लिखा, लेकिन उनकी मूल कीर्ति उनके मिथक केंद्रित साहित्य के आसपास ही घूमती रही। वे व्यंग्यकार भी थे, यह ख़याल उस तरह नहीं आता था जिस तरह ज्ञान चतुर्वेदी या प्रेम जनमेजय के संदर्भ में आता है।
बहुत कुछ, आड़ा-तिरछा, उल्टा-सीधा पढ़ते रहने के अभ्यास के तहत मैंने उनको भी पढ़ा था। हाल ही में उनका उपन्यास 'सुभद्रा' छप कर आया तो फिर मैं उसको पढ़ गया- इसलिए भी कि महाभारत की कहानियाँ मुझे अच्छी लगती हैं। उसके चरित्रों में कुछ है जो हमें सोचने को उकसाता रहता है। कृष्ण की बहन और अर्जुन की पत्नी सुभद्रा पर केंद्रित यह उपन्यास लेकिन और भी प्रसंगों के इर्द-गिर्द घूमता है। इसमें पांडवों के अज्ञातवास, कृष्ण के रणनीतिक फ़ैसलों, बलराम के द्वंद्व, भीम के असंतोष आदि का भी वर्णन है।
नरेंद्र कोहली की लोकप्रियता का एक राज़ तो यह था कि वह इन मिथक कथाओं को आधुनिक स्वरूप देने की कोशिश करते थे। 'सुभद्रा' में भी घटोत्कच के मायावी युद्ध की वह ऐसी ही व्याख्या करते देखे जाते हैं। इसी तरह शायद 'दीक्षा' या इसी शृंखला के एक अन्य उपन्यास में वे अहिल्या के चरित्र को आधुनिक नज़रिए से देखते हैं।
लेकिन यह सच है कि इन तमाम कथाओं में नरेंद्र कोहली एक तरह के आधुनिक यथास्थितिवाद से घिरे रहे। मिथकों की नई व्याख्या उन्हें वहीं तक स्वीकार्य थी जहाँ तक किसी की आस्था को ठेस न पहुँचे।
और इस व्याख्या में भी वे मूलतः सामंती नैतिकता- शासन के कर्त्तव्य, प्रजा के अधिकार, मर्यादा और आचरण आदि की बात करके रह जाते थे। इन मिथक कथाओं में जो चुभते हुए या बहुत असुविधाजनक प्रश्न थे, या इनसे जो संभावनाएँ निकलती थीं, उन्हें छूते हुए वे बचते थे। इस ढंग से देखें तो भगवान सिंह का 'अपने-अपने राम' या किरण सिंह का 'शिलावह' कहीं ज़्यादा विचारपरक और क्रांतिकारी कथाएँ हैं। बल्कि ऐसे आसान आधुनिक भाष्य के रूप में राही मासूम रज़ा का 'महाभारत' उनको सहज टक्कर देता था।
लेकिन इसमें शक नहीं कि नरेंद्र कोहली ने अपनी एक कथा शैली विकसित की थी। यह तत्समनिष्ठ हिंदी से लैस एक लोकप्रिय शैली थी जिसमें वे छोटे-बड़े अंतर्द्वंद्वों को कथा सूत्रों में पिरोते रहे। यह वह नैतिक-धार्मिक पाठ था जिसकी मध्यवर्गीय भारत के लोगों को बड़ी ज़रूरत थी। वाल्मीकि की 'रामायण' वे पढ़ नहीं सकते थे, तुलसी का मानस उन्हें किसी पिछड़ी भाषा का छूटा हुआ साहित्य लगता था, गीता प्रेस से छपने वाला 'कल्याण' उनकी बौद्धिकता को तृप्त नहीं कर पाता था, ''महाभारत' को गृह कलह के अंदेशे से घरों में निषिद्ध किया जा चुका था, ऐसे में नरेंद्र कोहली का साहित्य उन्हें अपने बच्चों को पारंपरिक संस्कार देने का सबसे उपयुक्त ज़रिया जान पड़ा। लेकिन कहना मुश्किल है, आलोचना की ठोस कसौटियों पर ये उपन्यास कितने खरे उतरेंगे। एक तरह से देखें तो हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने भी अपने उपन्यासों में मिथकों, प्राचीन साहित्य और जनश्रुतियों को आधार बनाया है, लेकिन दोनों में कोई बराबरी ही नहीं दिखती।
राम कथा को अपने साहित्य का आधार बनाने वाले नरेंद्र कोहली राम के नाम पर की जाने वाली राजनीति के भी सहचर हो गए- इसका एक प्रमाण उन्होंने तब सुलभ कराया जब लेखकों के एक प्रदर्शन के विरुद्ध प्रदर्शन करने पहुँच गए। काश, वे ऐसा न करते। ऐसा नहीं कि सत्ता ने इसके लिए उन्हें कोई ऐसा पुरस्कार दे दिया जो उनके लिए अप्राप्य था। लेकिन एक लेखक के तौर पर यह वह आचरण नहीं था जिसकी उनके नायक राम या कृष्ण पुष्टि करते।
बहरहाल, एक भाषा को बहुत तरह का साहित्य चाहिए होता है। हिंदी की पाठक-विरल होती दुनिया में उनके पाठक बहुत बड़ी संख्या में थे। उनका जाना वाक़ई शोक का विषय है।
यह मान लिया जाता है कि किसी के निधन के समय उसकी आलोचना नहीं की जानी चाहिए। लेकिन झूठी और अर्थहीन प्रशंसा किसी की मृत्यु का ज़्यादा बड़ा अपमान है। इसलिए यह लिखा। लगा कि अभी नहीं लिखूँगा तो फिर यह लिखने का अवसर नहीं आएगा।
(प्रियदर्शन के फ़ेसबुक वाल से।)