अहमद पटेल: जो दर्द भी थे और दवा भी 

02:44 pm Nov 25, 2020 | विनोद अग्निहोत्री - सत्य हिन्दी

अहमद पटेल नहीं रहे, इस खबर ने चौंकाया तो नहीं लेकिन दिल जरूर दुखाया। चौंकाया इसलिए नहीं क्योंकि वह पिछले कई दिनों से बीमार थे और आईसीयू में भर्ती थे। मैं लगातार उनके दामाद से उनकी सेहत का हालचाल ले रहा था। दो-तीन पहले खबर मिली थी कि उनकी हालत स्थिर हो गई है। इसलिए एक उम्मीद थी कि शायद स्वस्थ हो जाएं, लेकिन वह बच नहीं सके। अहमद पटेल कांग्रेस और सोनिया गांधी की ताकत भी थे और कमजोरी भी। वह पार्टी के लिए दर्द भी थे और उसकी दवा भी। 

कांग्रेस में ऐसे लोगों की बड़ी जमात है जो पार्टी की दुर्दशा के लिए अहमद पटेल के वर्चस्व को दोष देते रहे हैं, लेकिन उससे भी बड़ी जमात उनकी है जो यह मानते हैं कि पार्टी ने जो 2004 से लेकर 2014 तक सत्ता का स्वर्णकाल देखा वह अहमद पटेल की ही रणनीति और मेहनत का नतीजा था और जब-जब अहमद पटेल की अनसुनी की गई पार्टी का नुकसान हुआ।

कांग्रेस में मोदी के दोस्त!

अहमद पटेल बेहद विरोधाभासी व्यक्तित्व वाले नेता थे और उनका लोहा उनके प्रशंसक और विरोधी दोनों ही मानते थे। उनके बारे में यह चर्चा आम थी कि कांग्रेस में अगर नरेंद्र मोदी का कोई दोस्त है तो वह अहमद भाई हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने जिस तरह उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि दी है, उससे भी लगता है कि गुजरात के इन दोनों दिग्गज नेताओं के बीच रिश्तों की कोई न कोई कड़ी जरूर रही होगी। 

बेहद मददगार इंसान 

वैसे, रिश्तों को निभाने में अहमद पटेल का कोई सानी नहीं था। वह बेहद मिलनसार और मददगार किस्म के नेता थे और दस वर्ष के यूपीए शासनकाल में गुजरात से कोई भी किसी भी दल, जाति, वर्ग, क्षेत्र का हो बेधड़क उनके पास जा सकता था और वह भरसक उसकी मदद करते थे। इसकी गवाही गुजरात के कई बीजेपी नेता भी देते हैं। सिर्फ गुजरात ही नहीं किसी भी राज्य का व्यक्ति उनके पास जाकर अपनी बात कह सकता था और वह जो हो सकता था उतनी मदद करते थे।

कांग्रेस को खलेगी कमी

अहमद पटेल की गैर मौजूदगी में सोनिया परिवार अब किस पर ऐसा भरोसा करेगा, इस पर कांग्रेस की भावी राजनीति तय होगी। क्योंकि करीब बीस साल से पार्टी के अधिसंख्य फैसलों और नियुक्तियों पर अहमद पटेल की ही छाप रही है और पार्टी के तमाम पदों पर काबिज नेताओं का बड़ा वर्ग उनके वफादारों का है। अब इन वफादारों के बीच खुद को नेतृत्व के करीब ले जाने की होड़ भी होगी और इनके विरोध में अभी तक दबे रहने वाले स्वर भी मुखर होंगे। जिससे कांग्रेस के भीतर घमासान और बढ़ेगा। 

अगर उसे सही दिशा दे दी गई तो वह पार्टी की जड़ता को तोड़कर उसे नया स्वरूप भी दे सकता है और अगर नेतृत्व इसे संभालने में असफल रहा तो द्वारिका के यादवी संग्राम की तरह पार्टी आपसी संघर्ष में उलझ कर बिखर भी सकती है।

अहमद पटेल से मेरा परिचय करीब तीस साल पुराना था। लेकिन 2004 के बाद जब वह कांग्रेस और यूपीए सरकार दोनों के सत्ता केंद्र बने तो और ज्यादा गहरा गया। क्योंकि खबरों के सिलसिले में अक्सर उनसे बातचीत हो जाती थी और कई बार मिलना भी होता था। पहले बात करते हैं उनके व्यक्तित्व की फिर उनके कृत्तित्व की। 

एक व्यक्ति के रूप में अहमद पटेल के साथ मेरा जो अनुभव है वह यह है कि वह बेहद सहज और मिलनसार किस्म के नेता थे। अपनी तमाम व्यस्तता के बावजूद अक्सर फोन पर उपलब्ध हो जाते थे और अगर किसी वजह से फोन नहीं उठा तो चाहे आधी रात को ही आए उनका फोन जरूर आ जाता था। किसी खबर के बारे में पूछने पर वह बेहद साफगोई से उसकी पुष्टि कर देते थे और अगर उन्हें पुष्टि नहीं करनी होती थी तो एक वाक्य बोलते थे कि मुझे इसकी जानकारी नहीं है या अंग्रेजी में कह देते थे नॉट टू माई नॉलेज। मतलब साफ होता था कि खबर की वह पुष्टि नहीं कर रहे हैं। 

बड़ी से बड़ी खबर वह अपने भरोसेमंद पत्रकारों को देते थे लेकिन खुद को प्रचार से दूर रहते थे। उन्होंने सार्वजनिक रूप से बयान और इंटरव्यू देना तब शुरू किया जब कांग्रेस 2014 के बाद सत्ता से बाहर हो गई। तब वह सोशल मीडिया पर भी सक्रिय हुए।

समन्वय में माहिर थे पटेल

यूपीए सरकार में पूरे दस साल वह पर्दे के पीछे से संगठन और सरकार के फैसलों को प्रभावित करते थे। उनके एक खास सहयोगी रहे वरिष्ठ कांग्रेसी नेता के शब्दों में यूपीए के दस सालों में अगर किसी एक व्यक्ति ने कांग्रेस अध्यक्ष और प्रधानमंत्री दोनों के अधिकारों का उपयोग किया तो वह अहमद पटेल ही थे। उनकी बात सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह दोनों बराबर मानते और सुनते थे। बल्कि सही मायनों में कहा जाए तो यूपीए सरकार के पूरे दस साल तक कांग्रेस अध्यक्ष और प्रधानमंत्री के कार्यालयों के बीच जो समन्वय, संतुलन और संवाद बना रहा उसका प्रमुख सेतु अहमद पटेल ही थे। 

मंत्रिमंडल के गठन से लेकर सरकारी नियुक्तियों के कमोबेश सारे फैसलों में उनकी छाप होती थी। कई बार तो अंतिम समय में उन्होंने अपनी रणनीति से पार्टी हित में फैसले बदलवाए।

अहमद पटेल सिर्फ कांग्रेस और यूपीए सरकार के ही संकटमोचक और राजनीतिक प्रबंधक नहीं थे, बल्कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के भी संकटमोचक थे। पार्टी में सोनिया गांधी का इतना भरोसा किसी ने भी नहीं जीता जितना कि अहमद पटेल ने जीता था।

सोनिया के भरोसेमंद

यहां तक कि राहुल गांधी के राजनीति में सक्रिय होने के बाद भी सोनिया गांधी का पटेल पर भरोसा आखिर तक बना रहा। हाल ही में जब कांग्रेस के 23 वरिष्ठ नेताओं ने कांग्रेस नेतृत्व की कार्यशैली को लेकर सवाल उठाते हुए पत्र लिखा और उसे मीडिया में लीक किया तो उसके बाद उठे बवंडर को शांत करने में अहमद पटेल की ही असली भूमिका थी। हालांकि जिस तरह पत्र पर कई ऐसे नेताओं के भी दस्तखत थे जिन्हें पटेल का बेहद वफादार माना जाता था, उसे लेकर कांग्रेस के कुछ नेता इस पूरे बवंडर के पीछे भी उनकी ही एक रणनीति देखते थे।

सरल राजनेता 

अहमद पटेल के साथ मेरे कई निजी अनुभव हैं। जिनमें से कुछ मैं साझा कर रहा हूं। इन दिनों जब खिलाफ खबरों को लेकर राजनीतिक वर्ग बेहद असहिष्णु हो गया है, यूपीए सरकार के दौरान मैंने तत्कालीन सत्ता प्रतिष्ठान और कांग्रेस को असहज करने वाली कई खबरें लिखीं लेकिन कभी भी अहमद पटेल ने किसी खबर को लेकर मुझे न फोन किया और न ही मिलने पर कोई ताना दिया। 

एक बार जरूर मैंने कांग्रेस की मुसलिम राजनीति से जुड़ी एक खबर में उनका जिक्र किया। उसके बाद उनका फोन आया और बेहद सहज भाव से उन्होंने कहा कि आपकी खबर पढ़ी लेकिन उसमें एक गलती है जो मैं बता रहा हूं। खबर में आपने लिखा है कि मैं भी मुसलिम नेताओं की बैठक में शामिल था, लेकिन मैं उस दिन दिल्ली से बाहर था। आप अपने सोर्स को भी चेक कर लेना। मैंने इसके बाद खबर के एक सोर्स से बात की तो उन्होंने अपनी गलती स्वीकार की। तब मैंने इस खबर का स्पष्टीकरण अगले दिन छाप दिया। 

अलग अंदाज था पटेल का 

इसी तरह एक बार मेरे तत्कालीन संपादक आलोक मेहता जी ने यूपीए सरकार से जुड़ी बेहद संवेदनशील खबर के बारे में जानकारी करके लिखने को कहा। मैंने अपने सारे परिचित वरिष्ठ नेताओं को फोन करके जानना चाहा लेकिन कहीं से भी खबर की पुष्टि नहीं हुई। मैंने आखिर में अहमद भाई को फोन लगाया। उनका फोन नहीं उठा। करीब दो घंटे बाद उनका फोन आया। मैंने उनसे उस खबर के बारे में पूछा। वह चौंके और बोले इतनी गोपनीय बात आप तक कैसे पहुंच गई। मैंने कहा कि अहमद भाई अब पहुंच गई तो पहुंच गई लेकिन आप इसकी पुष्टि कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि जब आपको पता लग गया है तो फिर मान लीजिए कि आपकी जानकारी सही है, लेकिन मैंने आपसे कोई बात नहीं की है। यह उनका खास तरीका था।

बेनी बाबू का किस्सा 

यूपीए-दो के दौरान केंद्रीय मंत्रिमंडल का विस्तार और पुनर्गठन होने वाला था। उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ नेता बेनीप्रसाद वर्मा भी मंत्री बनने के प्रयास में थे। वह समाजवादी पार्टी से कांग्रेस में आए थे और उन्हें लेकर कई तरह की बातें कांग्रेस के भीतर थीं। अचानक अहमद भाई का फोन मुझे आया। उन्होंने मुझसे बेनी प्रसाद वर्मा के बारे में कुछ बातें पूछी। मैंने अपनी जानकारी के मुताबिक़ उन्हें बता दिया। मैंने पूछा कि क्या उन्हें मंत्री बना रहे हैं। उन्होंने कहा कि आपकी क्या राय है। मैंने कहा कि यह फैसला तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और आपको करना है। वह बोले लेकिन क्या इससे पार्टी को उत्तर प्रदेश में फायदा होगा। मैंने कहा कि बेनी बाबू पिछड़े वर्गों में खासकर कुर्मी बिरादरी के सबसे कद्दावर नेता हैं तो निश्चित रूप से फायदा हो सकता है। फिर उन्होंने कहा कि तब आप उन्हें खुशखबरी दे सकते हैं। इसके बाद बेनी प्रसाद वर्मा को मैंने बधाई देते हुए कहा कि जल्दी ही वह मंत्री बनेंगे। बाद में बेनी प्रसाद वर्मा मंत्री बने भी।

अहमद पटेल के सामने एक-एक करके पूरी कांग्रेस और सारे दिग्गज नेता नतमस्तक हो गए थे। कई नेता निजी बातचीत में उनको लेकर अपनी नाखुशी भी जाहिर करते थे, लेकिन उनकी नजदीकी पाने के लिए लालायित भी रहते थे।

ग़जब का सूचना तंत्र

पटेल का सूचना तंत्र इतना मजबूत था कि उन्हें कांग्रेस के तमाम बड़े नेताओं की गतिविधियों के बारे में सटीक जानकारी मिलती रहती थी। एक बड़े नेता ने अपना बेहद दिलचस्प अनुभव बताया। उक्त नेता जो एक समय अहमद पटेल के समकक्ष माने जाते थे, के मुताबिक़ उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मिलकर पार्टी संगठन को लेकर कुछ बात की। इसके बाद वह दस जनपथ से निकलकर अपनी कार में बैठे ही थे कि पटेल को उनका फोन आया कि मैडम से आपकी मुलाकात कैसी रही और मेरे बारे में आपको जो कहना था सब कह दिया। उक्त नेता को काटो तो खून नहीं। बड़ी मुश्किल से उन्होंने अपनी सफाई पेश की। 

इसी तरह एक और बड़े कांग्रेसी नेता ने पार्टी के दूसरे बेहद कद्दावर नेता के साथ एक गुप्त बैठक की और दोनों के बीच तय हुआ कि इस मामले में और नेताओं को भरोसे में लेकर कांग्रेस अध्यक्ष से बात की जाएगी। उसी रात उक्त नेता को विदेश जाना था। वह हवाई अड्डे पर चेक इन करके लाउंज में बैठे ही थे कि पटेल का फोन उन्हें आ गया। उन्होंने कहा कि विदेश से लौटकर कब आप लोग मैडम के पास मेरी शिकायत लेकर जा रहे हैं।

अहमद पटेल को लेकर कांग्रेस के भीतर और बाहर यह चर्चा आम थी कि गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री और मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ उनके बेहद मधुर रिश्ते हैं और जब यूपीए की सरकार थी तो कई बार पटेल ने मोदी की मदद की।

अब इन खबरों में कितनी सच्चाई थी यह तो पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता लेकिन गुजरात के तमाम वो नेता जो पटेल के विरोधी माने जाते थे, इस तरह की चर्चा खुलकर करते थे। चर्चा यह भी रही कि अपने आखिरी राज्यसभा चुनाव में जब अहमद पटेल को हराने के लिए बीजेपी ने जी-तोड़ कोशिश की और मामला चुनाव आयोग तक गया। तब भी आखिरी वक्त में बीजेपी के नेताओं के विरोध को नरम कर दिया गया। 

मोदी के ख़िलाफ़ विद्रोह में हाथ! 

लेकिन यह भी बेहद दिलचस्प है कि जब 2007 में गुजरात बीजेपी में मोदी के खिलाफ केशुभाई पटेल के समर्थकों ने खुला विद्रोह किया तो उन्हें भी दिल्ली में दस जनपथ में अहमद पटेल से ही मदद मिल रही थी। उन दिनों गुजरात में होने वाली पाटीदार समाज की मोदी विरोधी रैलियों के प्रमुख सूत्रधार और गुजरात कांग्रेस के नेता बाबूभाई मंगूकिया अहमद पटेल के बेहद भरोसेमंद माने जाते थे और वह लगातार बीजेपी के बागियों और पटेल के बीच संवाद की कड़ी थे। 

इसके बावजूद गुजरात में पटेल और मोदी की कथित दोस्ती के चर्चे इतने आम थे कि 2007 के विधानसभा चुनावों में जब मैं अहमदाबाद में मुसलिम बुद्धिजीवियों की एक बैठक को कवर करने गया तो वहां भी इसकी गूंज मुझे सुनाई पड़ी। लेकिन इन चर्चाओं ने पटेल का रुतबा और भरोसा सोनिया गांधी के यहां जरा भी कम नहीं किया बल्कि सोनिया परिवार को सबसे ज्यादा भरोसा उन पर ही रहा। 

राहुल गांधी और अहमद पटेल के बीच खट्टे-मीठे रिश्तों की बात भी अक्सर कांग्रेसी गलियारों में चलती रही है, लेकिन दोनों ने कभी एक-दूसरे के खिलाफ कोई बात की हो, ऐसी कोई जानकारी नहीं मिलती।

पटेल पर तमाम आरोप

गुजरात में कांग्रेस के खड़े न हो पाने का ठीकरा भी अक़सर अहमद पटेल के सिर पर ही फोड़ा जाता रहा है। उन पर कमजोर लोगों को प्रश्रय देने और कमजोर उम्मीदवारों को टिकट दिलाने के आरोप भी पार्टी के भीतर लगते रहे हैं। यहां तक कि 2007 के विधानसभा चुनाव में जो नरेंद्र मोदी के लिए सबसे कठिन चुनाव था, उसमें कांग्रेस की रैली में सोनिया गांधी के मौत के सौदागर वाले बयान का दोष भी पटेल के मत्थे मढ़ा गया कि उनके कहने पर बॉलीवुड के एक मशहूर गीतकार ने वह लाइन कांग्रेस अध्यक्ष के भाषण में डाली जिसे मोदी ने अपने लिए सहानुभूति लहर बनाने के लिए भुनाया और हारा हुआ चुनाव जीत लिया। 

कौन बनेगा नया संकटमोचक

इन तमाम विवादों और आरोपों के बावजूद अहमद पटेल पर सोनिया गांधी का भरोसा आखिर तक बना रहा और अब जब अहमद पटेल इस दुनिया से चले गए हैं तो उनकी जगह सोनिया गांधी और कांग्रेस का संकटमोचक व रणनीतिक प्रबंधक कौन बनेगा, यह एक यक्ष प्रश्न है जिसका जवाब फिलहाल अभी किसी के पास नहीं है। लेकिन कांग्रेस की राजनीति में अब एक बुनियादी बदलाव शुरू हो सकता है, इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।

साभार - अमर उजाला डॉट कॉम