वरिष्ठ पत्रकार और चर्चित लेखक हेमंत शर्मा की एक और किताब छप कर बाज़ार में आ गई है। हमेशा की तरह उनकी किताब के शीर्षक ‘एकदा भारतवर्षे’ से उसके कथ्य के पांडित्यपूर्ण होने की झलक मिलती है। इस पुस्तक की सामग्री उनकी पिछली किताबों से एकदम भिन्न शैली की है।
हेमंत लिक्खाड़ हैं। तय करके किसी भी सीमा में कोई भी लक्ष्य समय से पहले पूरा कर सकते हैं। इस किताब को भी उन्होंने ऐसे ही पूरा किया है। निजी मित्रों में (काफ़ी बड़ी संख्या है) वाट्सऐप संदेश दिया कि अमुक दिन से रोज़ एक कथा लिखूँगा जो बाद में पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित की जाएगी और लिखने लगे, एक सौ चौदह कथाएँ हैं इस संकलन में जो रोज़ एक-एक कर सुबह लिखी गईं। यानी कुल चार महीने से भी कम समय में बिना किसी दैनंदिन काम में गतिरोध डाले पुस्तक संपूर्ण! जिसके फ़्लैप पर प्रो. पुष्पेश पंत, प्रसून जोशी और असग़र वजाहत चमक रहे हैं। पुस्तक मरहूम डा. नामवर सिंह को समर्पित है जबकि अंतर्वस्तु पितृसत्तात्मकता की रक्षा करती हुई द्रौपदी में दोष और सीता प्रकरण में राम को निर्दोष साबित करने की परंपरा का पालन करती है। यह हेमंत की विलक्षणता है जो उनकी एक आलीशान कृति ‘द्वितीयोनास्ति’ के शीर्षक में व्यक्त होती है।
भाववाद और आदर्शवाद में अगर कोई फ़र्क़ है (सुधी आलोचक बता सकते हैं) तो भी हेमंत उसे अपने लिखे से मिटा देते हैं। वे परशुराम, कृष्ण, राम, शिव, नानक, कबीर, बुद्ध आदि मायथालॉजिकल/वास्तविक पूर्वजों के जीवन-वृतांतों से अपनी कथाओं की रीढ़ तैयार करते हैं और अपनी इच्छा से उस पर कथात्मकता लेपते हैं और फिर वो निष्कर्ष तक पहुँचता है। वे आधुनिक काल के नायकों में से भी वही ढूँढ लेते हैं। सुभाष चंद्र बोस, विवेकानंद, थॉमस एडिसन, अल्बर्ट आइंस्टाइन, आइजक न्यूटन, गैलीलियो, एम विश्वरैया और महात्मा गांधी से भी वे अपने मक़सद की कथा बड़ी ही आसानी से निकाल लेते हैं।
जब आप इस पुस्तक से विचरते हैं तो आप अपने माता-पिता, परिजनों और समाज के बीच बिताए बचपन के उन क्षणों में होते हैं जिनमें कभी माँ या पिता की सलाह, परिवार/ रिश्ते में किसी बड़े के सौजन्य या प्राथमिक कक्षाओं के किसी शिक्षक ने आपको भेजा रहा होगा। जहाँ तमाम लोग ऊँचे आसन पर विराज कर कुछ कह रहे होंगे और नीचे बैठे लोग चुपचाप सुन रहे होंगे। शरारती बच्चों को चुप कराया जा रहा होगा, भले ही आप अनिच्छा से पहुँचे हों बाद में आपको कौतूहल मिश्रित रस मिला होगा और वह आपके अंत:मन पर असर छोड़ गया होगा।
बाद के जीवन में कड़वी सच्चाइयों से आप अपने लिये नये निष्कर्ष तय करते/जीते हैं पर कहीं अंदर इन कथाओं के लिये भी एक कोना आरक्षित बचा रहता है, जिसमें ख़ूब अच्छी-अच्छी बातें रहती हैं, हेमंत इन कथाओं में हमें उसी आरक्षित कोने का विस्तार देते हैं!
हेमंत भूमिका लिखते समय शुरू में ही लिखते हैं, ‘जब से होश सँभाला है, कहानियाँ सुनता आ रहा हूँ। बचपन में दादी नानी से। बड़ा हुआ तो पिता से इतिहास पुराण की कहानियाँ।’ एक परंपरागत ब्राह्मण परिवार में काशी में पले-बढ़े हेमंत के पास मायथालॉजिकल कथाओं के कई हज़ार सालों में विस्तृत हुए संसार का अपार ख़ज़ाना है। इसी में से कुछ कुछ निकाल कर नये संदर्भों में फ़िट करके वे लंबे समय से वाहवाही पा रहे हैं और अब ये सब पुस्तकाकार हो रहा है। यह पुस्तक इसी की एक कड़ी है।
मुझे इस संकलन की सभी कथाएँ पठनीय लगीं। कई कथाएँ बेहद सरलता और कुशलता से आपको जानकारियाँ देती गुज़र जाती हैं तो कई आपके मन में पड़ी धुंधली स्मृतियों को पुन: ताज़ा कर देती हैं।
निजी जीवन में हेमंत नितांत आधुनिक व्यक्ति हैं। प्रेम करके जीवनसाथी चुना, बेटी को बेहतरीन परवरिश दी, दुनिया घूमे/घूमते रहते हैं लेकिन लिखते समय वह स्त्रियों के संदर्भ में उन सब से विमुख मिलते हैं जो सदियों से बहुत कड़े / बहुत बड़े और अनवरत जारी संघर्ष में स्त्रियों ने हासिल किया है। वे उस सत्य को बिलकुल भी छू नहीं पाते और पितृसत्तात्मकता की परिधि में ही शब्द/कथानक घुमाते रहते हैं।
शायद यह आदर्शवादी लेखन की ही समस्या हो।
हेमंत का लेखन उनकी विरासत से मिली ज़िम्मेदारी भी है। उनके पिता मनु शर्मा ने अपने समय में हिंदी की अनन्य रचनाएँ दीं। उनकी आख़िरी आत्मकथात्मक पुस्तक उनके अंतिम दिनों में हेमंत ने ही लिखी थी।
पिता के साहित्यकार होने की वजह से हेमंत हिंदी के बड़े से बड़े साहित्यकार के सानिध्य को सहज ही पा सके और अपने विलक्षण व्यक्तित्व के कौशल से इस ख़ज़ाने को और बड़ा करने में उन्हें कोई ख़ास यत्न भी नहीं करना पड़ा। इसीलिए उनकी पिछली पुस्तक ‘तमाशा मेरे आगे’ पर नामवर सिंह की टिप्पणी उनके लिये एक धरोहर है कि उनके लिखे को हिंदी के सबसे बड़े विद्वान की नज़र मिली।
पिछली पुस्तकों की तरह ही हेमंत की यह पुस्तक प्रभात प्रकाशन ने ही छापी है और यह सर्वत्र उपलब्ध है।