अगर एसबीआई की ऋण पुस्तिका का 0.8 से 0.9 प्रतिशत यानी 27000 करोड़ रुपया दाँव पर लगाया जा सकता है तो क्यों न यह राशि ग़रीबों को छोटे कारोबार के लिए आसान शर्तों पर दी जाए?
एलआईसी और एसबीआई में नागरिकों का पैसा सुरक्षित ही होना चाहिए। इसपर शंका भी नहीं होनी चाहिए थी। इसलिए ख़बर यह नहीं है, ना यह भ्रष्टाचार या गड़बड़ी न होने का अंतिम सबूत। मुद्दा पैसे सुरक्षित होना है भी नहीं। मुद्दा यह है कि शेयरों की क़ीमत कृत्रिम रूप से बढ़ाई गई, बढ़ने दी गई और उसके आधार पर कर्ज लिया या निवेश किया गया। और इससे भी शेयरों की कीमत बढ़ी, लोगों को भरोसा हुआ, निवेश आया और वे डूब गए। सरकार का यह कहना कि जो पैसे दिए गए वह सीमा में है - अपनी जगह सही है पर उसका अभी कोई मायने नहीं है - सवाल पात्रता का है। क्या ऐसी कंपनी में सरकारी निवेश होना चाहिए जो नियमों का पालन नहीं करती है, जिसके शेयर की कीमत कृत्रिम ढंग से बढ़ाई गई थी। क्या यह निवेश इसलिए नहीं है कि प्रोमोटर प्रधानमंत्री का करीबी है?
हिन्डनबर्ग रिपोर्ट आने के बाद कई दिनों तक चुप और सन्न रहे प्रचारक अब स्टेट बैंक के चेयरमैन का बयान शेयर कर रहे हैं। और उसका प्रचार कर रहे हैं। इसके अनुसार स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (एसबीआई) के चेयरमैन दिनेश खारा ने कहा है कि अडानी समूह के लिए ऋणदाता का जोखिम 27,000 करोड़ रुपये या उसकी ऋण पुस्तिका का 0.8 से 0.9 प्रतिशत आंका गया है और पुनर्भुगतान ट्रैक पर है, जिसका अर्थ है कि अब तक कोई चिंता नहीं है। इसका साफ़ मतलब है कि एसबीआई जितनी बड़ी संस्था है उसके अनुसार 27,000 करोड़ रुपए की राशि उसकी ऋण पुस्तिका का सिर्फ 0.8 से 0.9 प्रतिशत है। पर राशि तो एक-दो नहीं 27,000 और लाख नहीं, करोड़ रुपए है।
यह राशि बहुत बड़ी है और इतनी बड़ी राशि कर्ज देने या निवेश करने के लिए जो सावधानी बरती जानी चाहिए थी बरती गई या नहीं। या बरती भी गई तो क्या किसी की सिफारिश पर या दबाव में दी गई। अगर निवेश या कर्ज देना बिल्कुल सही और नियमानुसार है तो मुद्दा यह है कि दबाव तो नहीं था, सिफारिश तो नहीं थी। और अगर ऐसा कुछ था तो वही भ्रष्टाचार है और उसी की जाँच होनी चाहिए। और मुद्दा यही नहीं है, जांच इस बात की भी होनी चाहिए कि नियमानुसार राशि देने के लिए नियम बदले तो नहीं गए।
आप जानते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में नियम खूब बदले गए हैं और पहले के नियमों को लेकर इस सरकार ने कार्रवाई की है तो अब के नियमों पर कार्रवाई क्यों नहीं? पर वह कौन करेगा? हालांकि, वह अलग मुद्दा है।
एसबीआई के चेयरमैन ने यह भी कहा है, “हमने अडानी को उन परियोजनाओं के लिए ऋण दिया है जिनके पास मूर्त संपत्ति है और पर्याप्त नकदी संग्रह है। वे दायित्वों को पूरा करने में सक्षम हैं। यह हमारी ऋण पुस्तिका का केवल 0.8-0.9 प्रतिशत है।' इसपर मेरा मानना है कि भारत में बैंकों से कर्ज लेना भारी मुश्किल है और किस्तें समय पर न लौटाने पर भारी जुर्माने का प्रावधान है और उस जुर्माने की राशि पर भी जीएसटी लगता है। इसलिए आम आदमी के लिए पूरी प्रक्रिया भारी मुसीबत वाली है। बैंक आमतौर पर संपत्ति को भी कोलैटरल नहीं मानता है और गारंटर तलाशता है जिसकी इतनी कमाई हो कि किस्तें न आने की स्थिति में गारंटर से आसानी से नकद वसूला जा सके।
संपत्ति के बदले कर्ज देना और वसूली न होने पर संपत्ति बेचकर वसूली मुश्किल कार्य है इसलिए बैंक आसान कर्ज देना चाहता है। नौकरी का दबाव न हो तो अधिकारी कर्ज क्यों दें। ऐसे में अगर नेता उनपर दबाव डालकर कर्ज दिलवाएं तो अपने सहयोगियों के कमाने की व्यवस्था करते हैं और उसकी कमाई से हिस्सा लें या नहीं अपनी स्थिति का दुरुपयोग करते हैं। यह भ्रष्टाचार है।
और जब 5 -10 लाख रुपए का कर्ज नहीं मिलता हो तो 27,000 करोड़ रुपए का कर्ज या निवेश साधारण नहीं है वह भी अडानी समूह में जिसके बारे में हिन्डनबर्ग की रिपोर्ट से हंगामा मचा हुआ है।
क्या कर्ज या निवेश करने से पहले बैंकों को इसकी जानकारी थी? नहीं थी तो चूक नहीं है, कोई घाटा न हो तो भी जोखिम लेने के लिए कौन जिम्मेदार है और अगर पता था तो इतनी बड़ी राशि किसके कहने पर दी गई - मुद्दा यह है तो प्रचार ये किया जा रहा है कि कम्युनिस्ट अडानी के पीछे पड़ गए हैं। चोर के पीछे कोई पड़े और कुत्ता भी पड़ता है तो चोर ब्रह्मचारी नहीं हो जाएगा।