दुनिया के सबसे बड़े व्यापार समझौते में भारत क्यों नहीं?

10:36 am Nov 16, 2020 | सत्य ब्यूरो - सत्य हिन्दी

ऐसे समय जब चीन अपने उत्पाद पूरी दुनिया में बेचने के लिए हर मुमकिन उपाय कर रहा है और अमेरिकी अर्थव्यवस्था को कड़ी टक्कर दे रहा है, एशिया प्रशांत के 15 देशों ने एक व्यापार समझौते पर दस्तख़त किए हैं। समाचार एंजेसी एएफ़पी ने यह जानकारी दी है।

रीज़नल कॉम्प्रेहेन्सिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप (आरसीईपी) नामक इस समझौते में दक्षिण एशिया के 10 देश शामिल हैं। यह व्यापारिक गठजोड़ कुल विश्व अर्थव्यवस्था के 30 प्रतिशत के बराबर होगा। इसमें चीन के अलावा जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड जैसे देश भी हैं, जिनका चीन के साथ खराब रिश्ता है या जो चीन के आर्थिक प्रतिद्वंद्वी हैं। ऑस्ट्रेलिया का इसमें शामिल होना अधिक अहम इसलिए भी है कि कोरोना और उसके बाद से चीन के साथ उसके रिश्ते बहुत तेज़ी से और बहुत ज़्यादा बिगड़े हैं।

भारत क्यों है बाहर

भारत ने शुरुआती दिलचस्पी दिखाने के बाद लगभग साल भर पहले आरसीईपी में शामिल नहीं होने का फ़ैसला किया था। पर्यवेक्षकों का कहना है कि इसका कारण आर्थिक और राजनीतिक दोनों ही है।

आर्थिक कारण यह है कि चीन ही नहीं, मलेशिया, इंडोनेशिया जैसे देशों के सस्ते उत्पादों को रोकना भारत के लिए मुश्किल होगा, भारत उनसे प्रतिस्पर्द्धा में नहीं टिक पाएगा।

लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह है कि इसमें शामिल होने से भारत को बहुत ब़ड़ा निवेश मिल सकता था। भारत अपने कुछ चुनिंदा उत्पादों के लिए बहुत बड़ा बाज़ार भी हासिल कर सकता था।

अमेरिकी दबाव

राजनीतिक कारण यह है कि भारत अमेरिकी दवाब में है। अमेरिका चीन को चुनौती देने के लिए कॉम्प्रेहेन्सिव एंड प्रोग्रेसिव एग्रीमेंट ऑन ट्रांस पैसिफ़िक पार्टनरशिप नामक व्यापार संधि पर काम कर रहा है। वह चाहता है कि भारत इसमें शामिल हो। डोनल्ड ट्रंप ने इसके पहले टीपीपी से अमेरिका को बाहर निकाल लिया था और कहा था नई संधि होगी, जो अमेरिकी हितों की उपेक्षा नहीं कर सकेगी।

जापान और दक्षिण कोरिया के चीन के साथ 36 के आँकड़े ही नहीं है, आर्थिक जगत में ये चीन के प्रतिद्वंद्वी हैं। पर्यवेक्षकों का मानना है कि जापान, दक्षिण कोरिया या ऑस्ट्रेलिया की तरह भारत को भी इस नए व्यापारिक समझौते पर दस्तख़त करना चाहिए था।

चीन से ख़राब रिश्ते

भारत ने इस संधि में शामिल नहीं होने का ऐलान साल भर पहले ही कर दिया था, लेकिन आज चीन के साथ रिश्तों को देख कर लगता है कि निकट भविष्य में भारत की कोई सरकार इस बारे में सोच भी नहीं सकती है।

भारत के बग़ैर भी इस संधि के देशों की कुल आबादी दो अरब के आसपास है। यानी भारत के शामिल न होने पर भी दो अरब का बाज़ार तैयार है।

बहरहाल, इस व्यापारिक क़रार में शामिल देश दूसरे देशों को कम आयात शुल्क पर अपने उत्पाद बेचने देंगे, दूसरे देशों की तुलना में प्रेफरेंसेज यानी तरजीह देंगे। निवेश भी आसाना होगा।

चीनी प्रधानमंत्री ली कछियांग ने आरसीईपी पर दस्तख़त होने के बाद वर्चुअल सम्मेलन में कहा, "मौजूदा अंतरराष्ट्रीय स्थितियों में 8 साल की बातचीत के बाद इस क़रार पर दस्तख़त होने से उम्मीद बंधती है।"

चीन की महात्वाकांक्षा

नैशनल यूनिर्विसटी ऑफ़ सिंगापुर के अलेक्जेंडर कैप्री ने एएफ़पी से कहा, "आरसीईपी पर दस्तख़त के साथ ही बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव और दूसरे क्षेत्रीय व अंतरराष्ट्रीय चीनी महात्वाकांक्षाएं मजबूत हो जाएंगी। इसके बाद चीन इन देशों में बड़े पैमाने पर निवेश कर सकता है और उसके पास अतिरिक्त संसाधन व धन है।"

रीजनल कॉम्प्रेहेन्सिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप के तहत इसमें शामिल देश अगले 20 सालों में कई तरह के सामानों पर सीमा-शुल्क ख़त्म करेंगे। इसमें बौद्धिक संपदा, दूरसंचार, वित्तीय सेवाएं, ई-कॉमर्स और व्याव्सायिक सेवाएं शामिल होंगी।

वियतनाम के प्रधानमंत्री न्यून-शुअन-फ़ूक ने आरसीईपी को 'भविष्य की नींव' बतलाते हुए कहा, "आज आरसीईपी समझौते पर हस्ताक्षर हुए, यह गर्व की बात है। यह बहुत बड़ा क़दम है कि आसियान देश इसमें केंद्रीय भूमिका निभा रहे हैं, और सहयोगी मुल्कों के साथ मिलकर उन्होंने एक नए संबंध की स्थापना की है जो भविष्य में और भी मज़बूत होगा। जैसे-जैसे ये मुल्क तरक़्क़ी की तरफ़ बढ़ेंगे, वैसे-वैसे इसका प्रभाव क्षेत्र के सभी देशों पर होगा।"