कोरोना वायरस का वह राज जिसका अब पता चला! 

03:33 pm May 01, 2021 | एन.के. सिंह - सत्य हिन्दी

दुनिया की कई प्रसिद्ध संस्थाओं के संयुक्त शोध में पहली बार पता चला कि अब तक ज्ञात अन्य वायरसों से अलग कोरोना वायरस की असली शक्ति है मनुष्य के रक्त के आरबीसी (रेड ब्लड कोर्प्सिल्स) में पाये जाने वाले प्राकृतिक मोलिक्यूल—बिलीवरडीन और बिलीरुबिन- जो शरीर में बने एंटीबाडीज को भी कोरोना के स्पाइक प्रोटीन के साथ बाइंड करने से रोक देते हैं और स्वयं इस प्रोटीन के साथ जुड़ कर इसे सुरक्षित कर देते हैं। साइंस एडवांसेज पत्रिका में छपे शोध में पाया गया कि इस प्रक्रिया में क़रीब 35 -50 प्रतिशत एंटीबाडीज निष्क्रिय हो जाते हैं। मतलब यह कि शरीर में स्वतः या वैक्सीन के ज़रिये बनने वाले एंटीबाडीज का वैसा असर नहीं होता जैसा अन्य बीमारियों के टीकों का होता है।

फ्रांसीसी किर्क इंस्टीट्यूट ने लन्दन की शिक्षण संस्थाओं—इम्पीरियल कॉलेज, किंग्स कॉलेज और यूनिवर्सिटी कॉलेज- के साथ मिलकर क्रायो-एम और एक्स-रे क्रिस्टलोग्राफी का प्रयोग कर वायरस, एंटीबाडीज और बिलीवरडिन के बीच अंतर्क्रियाओं का अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि बिलीवरडिन और बिलीरुबिन कोरोना के प्रोटीन स्पाइक को कवर कर इसे स्थिर कर देता है और एंटीबाडीज के लिए इसके साथ बंधने की गुंजाइश काफी कम हो जाती है। यह बिलीवरडिन स्पाइक प्रोटीन के एन-टर्मिनल डोमेन के साथ बांध जाता है और इसे सुरक्षित कर देता है।

शोध के अनुसार वैसे भी जब वायरस फेफड़ों के रक्त वाहिनियों पर हमला करता है तो इम्यून सेल बढ़ जाते हैं जो बिलीवरडिन मोलिक्यूल में इजाफा करते हैं। यानी एक चक्रीय क्रम पैदा होता है। नतीजा यह होता है कि एंटीबाडीज का बड़ा हिस्सा निष्क्रिय हो जाता है और वायरस फेफड़ों की रक्त कोशिकाओं को क्षतिग्रस्त कर देता जिससे और इम्यून सेल्स बढ़ने लगते हैं। इन दोनों कारणों से आसपास के टिश्यूज में मौजूद बिलीवरडिन और बिलीरुबिन का स्तर बढ़ जाता है। जितना ज़्यादा ये दोनों मोलिक्युल बढ़ते हैं उतना ही वायरस को एंटीबाडीज से छिपने का अवसर मिलता है। यही कारण है कि अन्य सामान्य वायरसों से अलग कोरोना आज पूरी दुनिया के वैज्ञानिकों के लिए सवा साल बाद भी पहेली बना हुआ है।

इस शोध-निष्कर्ष के बाद कोरोना के लिए बनाई जाने वाली वैक्सीन के शोधकर्ताओं को अपना नज़रिया बदलना होगा और चिकित्सा/उपचार के तरीक़े में भी व्यापक बदलाव संभव है। कारण: शरीर में मौजूद इस प्राकृतिक तत्व के व्यवहार को बदलना होगा क्योंकि इस तत्व की जितनी ज़्यादा मौजूदगी होगी उतना ही वायरस को सुरक्षा मिलेगी और एंटीबाडीज प्रभावहीन होगा। मूल शोधकर्ता संस्था फ्रांसिस किर्क इंस्टीट्यूट नोबेल पुरस्कार विजेता फ्रांसिस किर्क के नाम पर बना है जिन्होंने सन 1953 में शरीर में डाईओक्सिरिबोन्युक्लेइक एसिड (डीएनए) का आविष्कार किया। इस आविष्कार ने आनुवंशिकी विज्ञान ही नहीं भौतिकी, चिकित्सा और अपराध-अनुसंधान की दुनिया में क्रांति ला दी। नए शोध से संभव है कोरोना के ख़िलाफ़ कोई संजीवनी मिल सके।

अभी तक वायरस की पहचान, रोग का उपचार, म्यूटेशन प्रक्रिया पर और संक्रामकता पर प्रभावी रोक नहीं लग पाना विज्ञान की ही नहीं मानव-मस्तिष्क की सीमा बताता है।

वैज्ञानिक दो दर्जन से ज़्यादा घातक कोरोना वैरिएंट्स पहचान चुके हैं। सबसे ताज़ा है भारत का दोहरा म्यूटेंट B.1. 617 रोग। इसकी पहचान के लिए आरटी-पीसीआर (रिवर्स ट्रांसक्रिप्शन—पालीमरेस चैन रिएक्शन) को जो चिकित्सा विज्ञान गोल्ड टेस्ट मानता था अब कह रहा है कि यह प्रामाणिक नहीं है। इसके चार मुख्य कारण बताये गए। सैंपल प्रभावित लोकेशन से न लेना, सही समय पर न लेना, वायरस का अपना चरित्र और साइकिल थ्रेशहोल्ड (सीटी) वैल्यू की परिभाषा में मतभेद। वैज्ञानिक अब मानने लगे हैं कि अभी तक उपलब्ध वैक्सीन ज़रूरी नहीं कि हर नए म्यूटेंट पर समान रूप से प्रभावी हो। कुछ माह पहले जब यह विश्वास हो गया कि कोरोना संकट दुनिया में ख़त्म हो रहा है उसी समय ब्रिटेन, दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील में नए वैरिएंट्स मिले जो अमेरिका और भारत सहित कई देशों में फैले। वायरोलॉजी और जेनेटिक विज्ञान की सर्वमान्य अवधारणा थी कि एक ब्लड स्ट्रीम में एक ही वायरस के दोहरे वैरिएंट्स नहीं होते। लेकिन भारत में पाया गया वैरिएंट इसे ग़लत साबित करता हुआ ज़्यादा संक्रामक निकला। वैक्सीन के ज़रिये शरीर में बनी एंटीबाडीज को भी यह धोखा दे सकता है।

लेकिन इन सब से अलग एक शुभ समाचार यह है कि वैज्ञनिकों का एक दल वैक्सीन के एक सर्वथा नए ‘डीएनए प्लेटफ़ॉर्म’ पर फ्यूज़न पेप्टाइड को सक्रिय करने में सफल हुआ है। इसका मानव ट्रायल शुरू हो रहा है। शोधकर्ताओं का मानना है कि यह वैक्सीन कोरोना वायरस के हर वैरिएंट को प्रभावहीन करने में सक्षम होगा क्योंकि यह इ-कोलाई बैक्टीरिया के भीतर प्लाज्मिड के रूप में होगा। इसकी क़ीमत मात्र एक डॉलर होगी। देखना है मानव-विवेक और जिजीविषा इस धूर्त वायरस को कैसे हराती है।

चूँकि नए वैरिएंट में एंटीबाडीज को धोखा देने की तरह की शक्ति पायी गयी है लिहाज़ा टीका चुनते समय यह देखना होगा कि क्या इसमें टी-सेल रेस्पोंस पैदा करने की क्षमता है और है तो कितनी? साथ ही क्या यह टीका बदलते म्यूटेंट्स, स्ट्रेन और वैरिएंट्स पर भी प्रभावी है। इसके अलावा दरअसल मानव शरीर में प्रतिरोधी क्षमता एंटीबाडीज के अलावा टी-सेल की प्रतिक्रिया से भी होती है। लिहाज़ा यह देखा जाना चाहिए कि टीके के चार प्रमुख प्लेटफॉर्म्स – वेक्टर-आधारित, मेसेंजर आरएनए-आधारित, इनएक्टिवेटेड और नॉन-रेप्लिकेबल- में से कौन सा सर्वाधिक सक्रिय एंटीबाडीज के साथ-साथ टी-सेल रिस्पांस पैदा करता है।

वेक्टर-आधारित टीके में जॉन्सन एंड जॉन्सन ने केवल AD 26 वायरस सब-ग्रुप को ही लिया है। लेकिन यूरोपीय नस्ल को छोड़ कर एशियाई-अफ्रीकी नस्ल में पहले से मौजूद एंटी-बॉडीज ऐसे टीकों को प्रभावहीन कर देता है लिहाज़ा कुछ टीके जैसे स्पुतनिक AD 26 के साथ AG 4 सब-ग्रुप का भी प्रयोग कर रहे हैं। वैसे अब पता चला है कि मैसेंजर-आरएनए प्लेटफार्म पर बने टीके क्या भारत के सर्वथा नए स्ट्रेन पर कारगर हैं। भारत सहित दुनिया में सबसे सस्ते और सबसे ज़्यादा प्रयोग में आने वाले एड्नोवायरस-बेस्ड कोविशील्ड ने कुछ जेनेटिक बदलाव कर इस वेक्टर कार्गो को वैक्सीन के रूप में मानव शरीर में दिया है और इसका भी दावा है कि यह टी-सेल रेस्पोंस भी बखूबी पैदा करता है।