मातृरूपेण संस्थिता
कोई तीस बरस पहले मेरी बीमार मॉं ने मुझसे कहा- ‘मैं पूरे नवरात्रों का उपवास रखती हूँ। अब अस्पताल से यह संभव नहीं होगा। तो फिर तुम इस उपवास को सँभालो’। माता चली गयीं और तब से बिना रुके मैं और वीणा वासंतिक और शारदीय नवरात्र के नौ रोज़ उपवास करने लगे हैं। मातृरूपेण संस्थिता को मानते हुए।
हमारी इस मान्यता के पीछे माँ की शक्ति है। उनकी साधना है। उनका आशीर्वाद है। ‘शक्ति’ को साधने का ही उत्सव है दुर्गा पूजा। हम सबमें ऊर्जा की इकलौती स्रोत है शक्ति। हर किसी को शक्ति चाहिए। सत्ता में आने की, रोज़ी रोटी की, शत्रु से लड़ने की, भूख से लड़ने की। देश का नेता हो या आमजन, सभी को शक्ति चाहिए। यानी सबकी व्याकुलता शक्ति के लिए है। दरअसल, धारणा यह है कि देश में गऊपट्टी में रहनेवालों के पास अध्यात्म तो है पर शक्ति नहीं है। इसलिए शक्ति पाने के लिए हमारे पुरखों ने साल में दो बार नवरात्र पूजा का विधान किया जीवन और समाज की रक्षा के लिए। इन नवरात्रों में शक्ति के उत्सव में आमजन इस कदर लीन होता है कि स्पर्श, गंध और स्वर सबमें शक्ति को महसूस करने लगता है। दुर्गा पूजा का प्राणतत्त्व उसका यही लोकतत्त्व है।
एक हजार साल की पराजित मानसिकता से हममें जो शक्तिहीनता दिखी, उससे इस समाज में ‘शक्ति पूजा’ केंद्र में आ गई। यह आत्महीनता की अवस्था थी। जब भगवान् राम का आत्मविश्वास भी रावण के सामने डिगने लगा। लगा वह युद्ध हार जायेंगे। वह रावण के बल और शौर्य से चकित अपनी जीत के प्रति संशयग्रस्त हो रहे थे। तब उन्होंने भी ‘शक्ति पूजा’ का सहारा लिया। शक्ति पूजा में भी विघ्न पड़े। महाकवि निराला ने राम की मानसिक स्थिति का जीवन्त वर्णन किया है।
रवि हुआ अस्त, ज्योति के पत्र पर लिखा
अमर रह गया राम-रावण का अपराजेय समर।
आज का तीक्ष्ण शरविधृतक्षिप्रकर, वेगप्रखर,
शतशेल सम्वरणशील, नील नभगर्जित स्वर,
प्रतिपल परिवर्तित व्यूह भेद कौशल समूह
राक्षस विरुद्ध प्रत्यूह, क्रुद्ध कपि विषम हूह,
विच्छुरित वह्नि राजीवनयन हतलक्ष्य बाण,
लोहित लोचन रावण मदमोचन महीयान,
राघव लाघव रावण वारणगत युग्म प्रहर,
उद्धत लंकापति मर्दित कपि दलबल विस्तर,
अनिमेष राम विश्वजिद्दिव्य शरभंग भाव,
विद्धांगबद्ध कोदण्ड मुष्टि खर रुधिर स्राव,
रावण प्रहार दुर्वार विकल वानर दलबल,
मुर्छित सुग्रीवांगद भीषण गवाक्ष गय नल,
वारित सौमित्र भल्लपति अगणित मल्ल रोध,
गर्जित प्रलयाब्धि क्षुब्ध हनुमत् केवल प्रबोध,
उद्गीरित वह्नि भीम पर्वत कपि चतुःप्रहर,
जानकी भीरू उर आशा भर, रावण सम्वर।
लौटे युग दल। राक्षस पदतल पृथ्वी टलमल,
बिंध महोल्लास से बार बार आकाश विकल।
वानर वाहिनी खिन्न, लख निज पति चरणचिह्न
चल रही शिविर की ओर स्थविरदल ज्यों विभिन्न।
'राम की शक्तिपूजा' की अन्तिम पंक्तियाँ देखिए-
"साधु, साधु, साधक धीर, धर्म-धन धन्य राम !"
कह, लिया भगवती ने राघव का हस्त थाम।
देखा राम ने, सामने श्री दुर्गा, भास्वर
वामपद असुर स्कन्ध पर, रहा दक्षिण हरि पर।
ज्योतिर्मय रूप, हस्त दश विविध अस्त्र सज्जित,
मन्द स्मित मुख, लख हुई विश्व की श्री लज्जित।
हैं दक्षिण में लक्ष्मी, सरस्वती वाम भाग,
दक्षिण गणेश, कार्तिक बायें रणरंग राग,
मस्तक पर शंकर! पदपद्मों पर श्रद्धाभर
श्री राघव हुए प्रणत मन्द स्वरवन्दन कर।
“होगी जय, होगी जय, हे पुरूषोत्तम नवीन।”
कह महाशक्ति राम के वदन में हुई लीन।
राम की आस्था और जनपक्षधरता को देखते हुए शक्ति ने उन्हें भरोसा दिया—‘होगी जय, होगी जय, हे पुरुषोत्तम नवीन।’ शक्ति असुर भाव को नष्ट करती है। चाहे वह भीतर हो या बाहर। नवरात्र में शक्तिपूजा का मतलब भी यही है कि अपनी समस्त ऊर्जा का समर्पण और सभी ऊर्जा का स्रोत एक शक्ति को मानना।
स्त्री तत्व की जो परम अभिव्यक्ति है उसी के नौ पहलू दुर्गा के रूप में बनाए गए हैं। और नवरात्रि में नौ दिनों तक उसका एक-एक रूप पूजा जाता है। कभी वह ब्रह्मचारिणी है तो कभी स्कंदमाता, कभी महागौरी कभी कालरात्रि। देवी के सभी रूप स्त्री की संभावना के ही प्रतीक हैं। अगर सामान्य स्त्री को अवसर मिले तो वह भी विकसित हो सकती है।
बचपन से हमें घुट्टी पिलाई गई कि जब-जब आसुरी शक्तियों के अत्याचार या प्राकृतिक आपदाओं से जीवन तबाह होता है, तब शक्ति का अवतरण होता है। पर आज की पीढ़ी के लिए शक्ति पूजा गरबा, डांडिया और जात्रा के अलावा और क्या है?
पूजा के नाम पर जबरन चंदा वसूली का एक नया सांस्कृतिक-राष्ट्रवाद पैदा हो रहा है, जिसमें साधना गायब है। दुर्गा पूजा की मौजूदा परंपरा चार सौ साल पुरानी है। बंगाल के तारिकपुर से शुरू हुई यह परंपरा जब बंगाल से बाहर निकली तो सबसे पहले बनारस पहुँची। दिल्ली में 1911 ई. के बाद दुर्गा पूजा का आगमन हुआ, जब यहाँ नई राजधानी बनी। आज़ादी की लड़ाई में पूजा पंडाल राजनैतिक और समाजिक गतिविधियों के मंच बने।
दुर्गा पूजा सिर्फ़ मिथकीय नहीं, यह स्त्री के सम्मान, ताक़त, सामर्थ्य और उसके स्वाभिमान की सार्वजनिक पूजा है। जिस समाज में स्त्री का स्थान सम्मान और गौरव का होता है, वही समाज सांस्कृतिक लिहाज से समृद्ध होता है। ‘अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी।’ इस लाचारी के बरक्स ‘के बोले माँ तुमि अबले’ की हुंकार इस फर्क को साफ़ करती है। गऊपट्टी तो अबला जीवन हाय, तुम्हारी यही कहानी, की लाचारी से जूझ रही थी। इसलिए बंगाल नवजागरण का अगुवा बना। शायद तभी स्त्री की प्रखरता और ताक़त का दूसरा नाम दुर्गा पड़ा। 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की प्रखरता को देखते हुए अटल बिहारी वाजपेयी को भी उन्हें दूसरी दुर्गा कहना पड़ा था।
गुरु गोविंद सिंह ने भी युद्ध से पहले शक्ति की आराधना की थी। सिखों की अरदास शक्ति पूजा से ही शुरू होती है। ‘प्रिथम भगौती सिमरि कै गुरुनानक लई धिआई।’ (अर्थात् मैं उस माँ भगवती को सिमरन करता हूँ, जो नानक गुरु के ध्यान में आई थी) गुरु गोविंद सिंह चंडी को आदिशक्ति मानते थे। दुर्गा पूजा की ऐतिहासिकता बंगाल से जुड़ी है। वहाँ पूजा के दौरान माहौल देख लगता है जैसे समूचे बंगाल में देवी आ गई है। इसीलिए बंगाल में पूजा परंपरा से जुड़ी रहने के बावजूद नवजागरण का हिस्सा रही। हालाँकि नवजागरण आधुनिक आंदोलन की चेतना है और दुर्गा पूजा इसकी ठीक उलट परंपरा। वैसा ही, जैसे महाराष्ट्र में नवजागरण में तिलक महाराज की गणपति पूजा या फिर उत्तर भारत में डॉ. लोहिया का रामायण मेला। तीनों ने समाज में एक सी जागरूकता पैदा की। सांस्कृतिक स्तर पर तिलक और लोहिया दोनों की जडे़ं आधुनिक थीं और पारंपरिक भी। तीनों पूजाओं का चलन आधुनिकता में परंपरा का बेहतर प्रयोग था।
दुर्गा अवतार की कथा के मुताबिक़ असुरों से परेशान सभी देवताओं के तेज से प्रजापति ने दुर्गा को रूप दिया। जिसने अपने पराक्रम से असुरों को समूल नष्ट किया। देवताओं के इस सामूहिक प्रयास की शक्ति असीम थी। वैदिक वाङ्मय में शक्ति के कई नाम हैं। वाग्देवी, पृथ्वी, अदिति, सरस्वती, इड़ा, जलदेवी, रात्रिदेवी, अरण्यानी और उषा। इसके अलावा जयंती, मंगला, काली, भद्रकाली, कपालिनी, दुर्गा, क्षमा, शिवा, धात्री, स्वाहा, स्वधा आदि देवियाँ भी मिलती हैं। नवरात्र यानी नौ पावन, दिव्य, दुर्लभ शुभ रातें। वासंतिक और शारदीय नवरात्र जन सामान्य के लिए है और आषाढ़ीय तथा माघीय नवरात्र गुप्त नवरात्र है। यह सिर्फ़ साधकों के लिए है। पार्वती, लक्ष्मी, सरस्वती के नौ स्वरूप ही नवदुर्गा है।
मेरे बचपन में दुर्गा पूजा और दशहरे का मतलब था। शिखा में नवांकुर बाँधना। (शिखा हमारे नहीं थी तो उसे कान पर रखा जाता था) नीलकंठ देखना और रावण जलाना। नीलकंठ अब दिखते नहीं। शिखा सबकी लुप्त है। रावण बार-बार जलने के बाद फिर पैदा हो जाता है, वह अनंग है अंगरहित। इस अनंग से लड़ने की हमें ताक़त मिले, यही शक्ति साधना के मायने हैं।
(हेमंत शर्मा की फ़ेसबुक वाल से)