एक धर्म या उसके धर्माधिकारी किसी अन्य धर्म की जितनी आलोचना करते हैं और उसके ख़त्म होने का जितना आह्वान करते हैं वो ना चाहते हुए भी खुद की असमर्थता और भय का उसी अनुपात में प्रदर्शन करते हैं। वास्तव में किसी अन्य को भयाक्रांत करना स्वयं के भय का पैसिव (निष्क्रिय) प्रदर्शन है। ऐसे ही एक प्रदर्शन का आयोजन हरिद्वार में ‘धर्म संसद’ के नाम से किया गया।
जहाँ तक जानकारी है, संसद का अर्थ होता है जहाँ बातचीत हो, विमर्श हो। इस लिहाज़ से यह किसी क़िस्म की संसद तो नहीं थी। क्योंकि विमर्श तो अपने स्वभाव में एक सकारात्मक अभिव्यक्ति है जबकि हरिद्वार में जो हुआ वो ‘हेटस्पीच’ (घृणा भाषण) का एक सम्मेलन था। मेरी नज़र में यह अक्षम और असमर्थ लोगों का ऐसा समूह था जो ‘भाषण-विकलांगता’ से पीड़ित था। इस नवीन और ग़ैर-अनुसूचित विकलांगता में पहला उदाहरण है नए-नए महामंडलेश्वर बने यति नरसिंहानंद का। यति सिर्फ़ मुसलमानों के ख़िलाफ़ आपत्तिजनक टिप्पणियाँ नहीं करते हैं बल्कि वो समूची महिलाओं के ख़िलाफ़ भी अभद्र टिप्पणियाँ करते रहे हैं, जिसकी वजह से उनका वास्तविक तीर्थस्थल उत्तर प्रदेश की कोई जेल ही होना चाहिए था लेकिन दुर्भाग्य से वो आज बहुतों के ‘गुरुदेव’ और हिन्दुत्व के नेता उभर बन बैठे हैं और कोई कसर नहीं छोड़ रहे जिससे देश की एकता छिन्न-भिन्न हो जाये।
हरिद्वार में यति ने “शस्त्रमेव जयते” के भाव से कहा “मुसलमानों को मारने के लिए तलवारें पर्याप्त नहीं हैं हमें बेहतर हथियार चाहिए”। यति यहीं नहीं रुके, उन्होंने अन्तरराष्ट्रीय आतंकवादी और लिट्टे प्रमुख प्रभाकरण, जिसने भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या कर दी, उसको लगभग आदर्श मानते हुए कहा कि “मैं उन युवा संन्यासियों को एक करोड़ रुपए दूँगा जो लिट्टे प्रमुख प्रभाकरण का रास्ता चुनने को तैयार हैं”।
धर्म संसद में भाषण-विकलांगता के यति एक मात्र उदाहरण नहीं थे। इसमें निरंजनी अखाड़ा की साध्वी अन्नपूर्णा उर्फ़ पूजा शकुन पाण्डेय, बिहार के धर्मदास महाराज और जूना अखाड़ा के प्रबोधानंदगिरी भी शामिल थे।
तथाकथित मातृशक्ति का दम्भ भरने वाली पूजा शकुन पाण्डेय ने जो भाषण-विकलांगता दर्शाई है वो हिंदुओं का ‘हिटलरीकरण’ करने का एक प्रयास है। उन्होंने मुसलमानों के नरसंहार को प्रोत्साहित करते हुए कहा कि “अगर इनकी (मुसलिमों की) जनसंख्या को ख़त्म करना है तो हम मारने को तैयार हैं और जेल भी जाने को तैयार हैं। अगर हम सौ सैनिक भी बन गए और इनके बीस लाख भी मार दिए तो हम विजयी हैं…कॉपी किताबों को रख दो और हाथों में शस्त्र उठा लो..”।
साध्वी अन्नपूर्णा की इच्छा है कि हिंदू युवा पढ़ाई लिखाई छोड़कर देश के अल्पसंख्यकों, मुसलिमों के नरसंहार में जी जान से लग जाएँ।
अन्य वक्ता जो स्वयं को ‘संत’ कहते हैं उनका कहना है कि “अगर मैं उस समय संसद में होता जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि देश के संसाधनों पर पहला हक़ मुसलमानों का है तो मैं नाथूराम गोडसे का रास्ता अपनाते हुए रिवॉल्वर से उनके सीने में छः गोलियाँ मारता”।
भारत का संविधान जब प्रस्तावना से शुरू होता है तो वो सिर्फ़ ‘हम भारत के लोग’ का आह्वान करता है जिसमें सभी जातियों और धर्मों का समावेश है। प्रस्तावना आगे बढ़कर ‘धर्मनिरपेक्षता’ और भारत की ‘अखंडता’ को सुनिश्चित करते हुए संविधान को आत्मार्पित करती है।
लेकिन इस ‘संत’ समाज के द्वारा संविधान को नकारने का दृष्टिकोण वास्तव में समूचे सामाजिक न्याय और आज़ादी के संघर्ष को नकारने का दृष्टिकोण है। जिस स्वतंत्रता के लिए इस संत समाज ने एक ईंट भी नहीं रखी इस स्वतंत्रता को चोटिल करने का उनका विचार अपने स्वभाव में आपराधिक है।
भारत 1947 के बाद आज जिस स्थिति में है उसमें विज्ञान, साहित्य और तकनीकी का योगदान है। अगर धर्म यही है जो धर्म संसद में दिखा तो निश्चित रूप से आज भारत के टेक्श्चर में धर्म का एक भी धागा नहीं है, यह मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। यदि वेदों में शरीर और जान होती तो आज सभ्यता को वैदिक और सनातन बनाने के नाम पर जो उद्दंडता धर्म संसद में हुई है उसे देखकर वेद खुद से खुद को ढककर अपना अस्तित्व स्वयं मिटा लेते।
भारत समेत पूरी दुनिया में समय-समय पर हेटस्पीच पर विभिन्न न्यायपालिकाओं को सामने आना पड़ा है।
1950 में न्यायपालिका ने ‘बृजभूषण बनाम दिल्ली राज्य’ के मामले में लोकव्यवस्था, अपराध करने के लिए भड़काना और राष्ट्रीय सुरक्षा को हेटस्पीच से जोड़ते हुए अपना निर्णय दिया। और आगे तत्कालीन नेहरू सरकार ने 1951 में पहला संविधान संशोधन करते हुए अनुच्छेद-19 में सुधार किया ताकि “जनहित” के लिए हेटस्पीच को नियंत्रित किया जा सके।
हेटस्पीच को लेकर दार्शनिक जेरमी वॉल्ड्रन का तर्क है कि
“
गरिमा को चोट पहुंचाने वाली हेट स्पीच शरीर पर हुए हमले से ज़्यादा ख़तरनाक है, क्योंकि ऐसे में यह लोकतंत्र द्वारा दिए गए उस ‘अंतर्निहित आश्वासन’ को समाप्त कर देती है जिसके तहत अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक समान धरातल पर होने चाहिए।
जेरमी वॉल्ड्रन, दार्शनिक
इस तरह यह बात साफ़ है कि धर्म संसद का यह कारनामा देश के लोकतांत्रिक ढाँचे में अविश्वास के पहिए को लगाने का ही एक काम है।
प्रवासी भलाई संगठन बनाम भारत सरकार (2014) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने हेटस्पीच करने वालों के ऊपर पहले से कार्यवाही करने से मना कर दिया और कहा कि वर्तमान क़ानून इससे निपटने के लिए पर्याप्त हैं। जबकि सर्वोच्च न्यायालय को इस पर कार्यवाही करके एक प्रेसीडेन्स स्थापित करना चाहिए था। न्यायालय की दुविधा ‘जूडिशियल ओवररीच’ की थी कि कहीं वाक्-स्वतंत्रता पर कोई आँच ना आ जाए।
न्यायपालिका द्वारा वाक्-स्वतंत्रता पर आने वाली आंच को तो उसने बचा लिया पर इसी आंच से कुछ लोग आज देश को हिंसा की आग में झोंकने को तैयार बैठे हैं। शायद न्यायिक रस्सी से बंधी वाक्-स्वतंत्रता वोटबैंक के खुले सांड से कहीं बेहतर होती।
भारत में तमाम क़ानूनी प्रावधान हैं जिनके माध्यम से देश को विभाजित करने की मंशा रखने वाली इन भाषण शृंखलाओं को तोड़ा जा सकता है।
जैसे-भारतीय दंड संहिता की धारा 124A, 153A, 153B, 295A, 298 आदि। क़ानून अपना काम करेगा अगर उसे राजनीतिक नेतृत्व द्वारा अपना काम करने दिया जाए तो।
इस समस्या का समाधान मूलतः राजनीतिक विमर्श में छिपा हुआ है। यह बात न ही असाधारण है और न ही मात्र संयोग कि उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में चुनाव होने जा रहे हैं। भीषण बेरोज़गारी और कमरतोड़ महंगाई से वोटर बीजेपी से लगातार दूर हो रहा है। इसकी पुष्टि चुनाव विश्लेषण द्वारा लगातार बीजेपी के घटते वोटबैंक के रूप में की जा रही है। ऐसे में इस सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता है कि दोनों ही राज्यों में बीजेपी की सरकार न बन पाए।
परंतु वह नैरटिव जिसमें ‘हिंदू ख़तरे में’ और ‘उनकी बढ़ती आबादी’ संभवतः उन लोगों को डरा सके जिन वोटर्स में मुसलिमों या अल्पसंख्यकों को लेकर एक खास भाव देखा जाता है, पर वो विकास कार्यों से असन्तुष्ट हैं, कोरोना प्रबंधन से असन्तुष्ट हैं, उन पर भारी पड़ सकती है। जितना बड़ा आयोजन काशी विश्वनाथ मंदिर कॉरिडर का हुआ उतना बड़ा किसी अवसंरचना प्रोजेक्ट का नहीं हुआ, प्रधानमंत्री को इसी समय गाय पूज्य और माता दिखने लगी है, उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री मथुरा-वृंदावन की मसजिदों को लेकर चिंतित हैं तो हरियाणा की बीजेपी सरकार सदियों से चली आ रही नमाज़ को बंद करने पर आमादा है।
मेरा मानना है कि हाल में हुई धर्म संसद और विभिन्न धर्माधिकारियों के द्वारा मुसलमान के नरसंहार का आह्वान और समय-समय पर राहुल गांधी को लेकर संतों की टिप्पणी यह साबित करती है कि ये सब चुनाव के दौरान का भाजपाई रणनीतिक विस्तार (एक्सटेंशन) ही है। इस विस्तार को आप पॉप-अप के रूप में हर शाम को बीजेपी के प्रवक्ताओं की आँखों में देख सकते हैं। ये संभवतः वही आँखें हैं जिनके लिए दक्षिण अफ्रीकी राजनीतिक विचारक और उपन्यासकार पीटर अब्राहम ने कहा है “प्रेमी की आँखें झूठ बोलती हैं”।
ब्रिटिश पादरी विलियम राल्फ़ इंगे कहा करते थे कि “किसी बच्चे के चरित्र को प्रभावित करने के लिए उचित समय उसके जन्म के सौ वर्ष पहले होता है”।
भारत को स्वाधीनता दिलाने वाले और हमारे संविधान का निर्माण करने वालों ने अपने आचरण और व्यवहार से कई ऐसी पीढ़ियाँ तैयार कीं जिन्होंने पिछले सत्तर सालों तक देश की नींव और ढाँचे को सम्भाले रखा। लेकिन आज जैसा पोषण आने वाली पीढ़ियों के लिए तैयार किया जा रहा है वो उन्हें अपंग और आने वाले समय के लिए अव्यावहारिक बना देगा और वो अव्यावहारिक पीढ़ी भारत को अपंग बना देंगे।
भारत की वर्तमान नरेंद्र मोदी सरकार को सोचना चाहिए कि कोई भी सरकार में सदा नहीं रह सकता। सरकारें आएँगी और जाएँगी, यह देश रहेगा। हेनरी किसिंजर कहते थे कि “शक्ति एक ऐफ्रोडीयस्क है… सरकार चलाने की कला इसमें है कि आने वाले ख़तरों को पहले से पहचान लिया जाये”।
अब प्रश्न यह है कि क्या सरकार धर्म संसद की आड़ में देश के नाज़ीकरण को माप पा रही है या उसका फ़ीता कहीं इलेक्शन रैली में गुम हो गया है।
मुझे नहीं पता ये हेट स्पीच तालिबानियों और नाज़ियों के कितने क़रीब हैं और मुझे यह भी नहीं पता कि 2021 के भारत में ऐसा क्यों हो रहा है।