मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कोरोना टीके को लेकर दो अहम फ़ैसले किए हैं। एक फ़ैसला है 18 साल से अधिक उम्र के हर व्यक्ति को टीका देना। और दूसरा फ़ैसला है मुफ़्त में टीका देना। इन फैसलों की अहमयित को कोरोना की दूसरी वेब, लाचार व्यवस्था, आम लोगों की बेबसी और इन सबके बीच जिम्मेदारी की टोपी-ट्रांसफर पॉलिटिक्स के संदर्भ में समझना होगा।
यह जानना भी जरूरी है कि टीका के शोध, उत्पादन और खरीद की प्रक्रिया से केंद्र सरकार ने कभी राज्य सरकारों को नहीं जोड़ा। मगर, अब वैक्सीन की खरीद से लेकर वैक्सीन लगाने तक की जिम्मेदारी राज्यों पर थोप दी गयी है।
कभी देश में लॉकडाउन को लेकर फ़ैसला लेते वक्त भी केद्र सरकार ने ऐसा ही किया था। राज्यों से पूछा तक नहीं था लेकिन बाद में लॉकडाउन की जिम्मेदारी प्रांतों पर डाल दी गयी। एक बार फिर कहानी दुहरायी जा रही है। अंतर इतना आया है कि इस बार मोदी-शाह की चतुर सियासत को जवाब देने के लिए सामने आ गये हैं अरविंद केजरीवाल।
फ्री वैक्सीन का केजरीवाल मॉडल
फ्री वैक्सीन का केजरीवाल मॉडल सिर्फ पहल नहीं है। यह सियासी तरीके से सियासत का जवाब भी है। इसे समझने की ज़रूरत है। दिल्ली की आबादी है करीब 2 करोड़। देश में 18 साल से कम उम्र के बच्चों की संख्या है 41 प्रतिशत।
यह मान लें कि दिल्ली में भी यही अनुपात है तो 82 लाख आबादी 18 साल से कम उम्र की है। ऐसे में शेष 1 करोड़ 18 लाख की आबादी के लिए डबल डोज का मतलब है 2 करोड़ 36 लाख वैक्सीन की आवश्यक खरीद।
केजरीवाल सरकार ने 1 करोड़ 34 लाख वैक्सीन की खरीद का ही ऐलान किया है। तो क्या 51 लाख लोगों को 1 करोड़ 2 लाख वैक्सीन खुद से खरीदना होगा? बिल्कुल। और, फ्री वैक्सीन का केजरीवाल मॉडल इस 25 फ़ीसदी आबादी को सक्षम मानता है। इसलिए उन्हें फ्री वैक्सीन के दायरे से बाहर रखा है।
दिल्ली का यह केजरीवाल मॉडल अगर 22.5 करोड़ की आबादी वाला उत्तर प्रदेश अपनाना चाहे तो उसे 15 करोड़ वैक्सीन की खरीद करनी होगी। बाकी राज्यों को भी यह मॉडल अपने रास्ते पर चलने को बाध्य करता है।
बीजेपी सरकारें भी इससे बच नहीं सकेंगी। इस हिसाब से अगर पूरे देश में अलग-अलग राज्यों को वैक्सीन की खरीद करनी पड़े, तो उन्हें कुल मिलाकर 88.88 करोड वैक्सीन की खरीद करनी होगी। जाहिर है चुनौती खरीददार की नहीं, वैक्सीन उत्पादक और वैक्सीन की पॉलिसी बनाने वाली केंद्र सरकार की होगी।
बनेगी कब इतनी वैक्सीन?
देश में 99 दिनों में 14 करोड़ लोगों को वैक्सीन लगी है। इसका मतलब है कि हर दिन औसतन 14 लाख 14 हजार 141 लोगों को वैक्सीन दी गयी है। इस हिसाब से 88.88 करोड़ वैक्सीन दिए जाने में 628 दिन लगेंगे। मतलब 1 साल 8 महीना 23 दिन।
इस गणना में उस 25 फ़ीसदी आबादी की ज़रूरत शामिल नहीं है जो अपने दम पर वैक्सीन ले सकते हैं। अगर उन्हें भी शामिल करते हैं तो 18 साल से कम 41 फीसदी आबादी को छोड़कर शेष देश की 59 फीसदी आबादी को डबल डोज की वैक्सीन देने के लिए 1112 दिन लगेंगे। मतलब 3 साल 17 दिन।
इतना समय है देश के पास?
क्या इतना समय है देश के पास? क्या इस समय को कम किया जा सकता है? इसके लिए अब तक क्या कोई कोशिश की गयी है? ये वो सवाल हैं जो दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की ओर से वैक्सीन की खरीद और मुफ्त वैक्सीन के एलान के बाद पैदा हुए हैं। ये सवाल केजरीवाल से नहीं, केंद्र सरकार से पूछे जाएंगे।
सवालों में केंद्र, गुनहगार राज्य!
केंद्र सरकार ने न तो समय रहते वैक्सीन की खरीद के ऑर्डर दिए और न ही तेजी से उत्पादन के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़ा करने में उत्पादकों की कोई मदद की। यहां तक कि सीरम इंस्टीच्यूट को वैक्सीन के लिए कच्चा माल आयात करना था तो इसके लिए अमेरिका से बातचीत करने की जिम्मेदारी भी केंद्र सरकार ने नहीं उठायी।
सीरम इंस्टीच्यूट ने अप्रैल की शुरुआत में 300 करोड़ की वित्तीय मदद मांग रखी थी। वह अनसुनी रह गयी। मैन्युफैक्चरर मांग के मुताबिक वैक्सीन दे तो कैसे दे?
केंद्र सरकार ने वैक्सीन पॉलिसी में ऐसा बदलाव किया कि अचानक प्रदेश की सरकारें गुनहगार दिखने लगीं। छत्तीसगढ़, राजस्थान, झारखण्ड और पंजाब की सरकारों का उदाहरण लें। ये सभी कांग्रेस शासित प्रदेश हैं।
इन प्रदेशों को उत्पादकों ने कहा है कि 18 साल से अधिक उम्र के लोगों को वैक्सीन देने के लिए जो अभियान 1 मई से शुरू किया जा रहा है उसके लिए वे समय पर वैक्सीन की आपूर्ति नहीं कर सकते।
15 मई से पहले आपूर्ति की संभावना से उत्पादकों ने साफ तौर पर इनकार कर दिया है। अब ये सरकारें दबाव में हैं। सवाल यह है कि क्या बीजेपी शासित सरकारों को ऐसी स्थिति का सामना करना नहीं पड़ रहा है?
दिल्ली के सीएम केजरीवाल ने संकट की घड़ी में मुनाफाखोरी पर भी मजबूत सवाल उठाए हैं। वैक्सीन उत्पादकों को यहां तक कह दिया है कि 150 रुपये की कीमत पर केंद्र को बेची जा रही वैक्सीन भी मुनाफा दे रही है और यह समय मुनाफा कमाने की चिंता का नहीं है। वह वैक्सीन की कीमत 150 से भी घटाने की बात कहकर वैक्सीन उत्पादकों और केंद्र सरकार के बीच संभावित सांठगांठ पर भी हमला कर दिया है। एक वैक्सीन की तीन कीमत पर सवाल अब बहुत प्रासंगिक हो चुका है।
केंद्र को क्यों चाहिए बनी वैक्सीन का आधा?
यह अजीब बाध्यता है कि उत्पादन का आधा उत्पादक केंद्र सरकार को बेचेंगे। आधे में राज्य सरकार और निजी अस्पताल की हिस्सेदारी होगी। किसको कितना- इस बारे में कोई स्पष्ट नीति नहीं है। तीन अलग-अलग दाम तय कर दिए गये हैं। मतलब यह कि राज्य सरकारें अधिक कीमत देकर भी इस बात से अनजान रहेगी कि उसे वैक्सीन कब और कितनी मिलेगी।
महत्वपूर्ण बात यह भी है कि जब प्रदेश की सरकारों को ही वैक्सीन का इंतजाम करना है तो केंद्र सरकार को आधे वैक्सीन क्यों चाहिए? यह कहीं से तर्कसंगत और न्यायसंगत नहीं लगता। निश्चित रूप से इससे राजनीतिक पक्षपात के अवसर पैदा होते हैं।
जब कांग्रेस शासित प्रदेश को 15 मई से पहले वैक्सीन दे पाने में मैन्युफैक्चरर सक्षम नहीं हैं तो वे ग़ैर- कांग्रेस शासित राज्यों या बीजेपी शासित राज्यों के लिए ऐसा कर पाने में सक्षम कैसे हो जाएंगे?
अरविंद केजरीवाल ने कांग्रेस शासित राज्यों की तरह दिल्ली सरकार को गुनहगार दिखने से बचाने की रणनीति दिखलायी है। गेंद सीधे केंद्र सरकार और वैक्सीन उत्पादकों के पाले में है। समय पर वैक्सीन देने का दबाव उत्पादकों पर होगा। उत्पादक बेचैन होंगे, तो जिम्मेदारी केंद्र सरकार पर आएगी। केजरीवाल बोल सकेंगे कि केंद्र अपने हिस्से की वैक्सीन उन्हें जरूरत पूरी होने तक दे।