अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की क़ीमत 2 नवंबर को 85 डॉलर प्रति बैरल से भी कम था। अब यह 110 डॉलर प्रति बैरल पहुँच गया है। यानी प्रति बैरल क़रीब 25 डॉलर की बढ़ोतरी हुई। यह बढ़ोतरी मोटे तौर पर क़रीब 30 फ़ीसदी है। लेकिन 2 नवंबर के बाद से भारत में पेट्रोल-डीजल की बढ़ोतरी नहीं हुई है। साफ़ है भारतीय तेल कंपनियाँ घाटा सहकर ऐसा कर रही हैं। लेकिन घाटा कब तक सहेंगी? चुनाव तक! क्या इसका मतलब यह नहीं है कि चुनाव बाद पेट्रोल-डीजल महंगा होगा? लेकिन सवाल है कि कितना महंगा होगा?
इसे आप ऐसे समझ सकते हैं। फर्ज करें कि दूध की कंपनियाँ गवालों से 50 रुपये लीटर दूध ख़रीदती हैं तो ग्राहकों को 60 रुपये प्रति लीटर बेचती हैं। लेकिन जब गवालों से दूध 65 रुपये प्रति लीटर ख़रीदती हैं तो जाहिर तौर पर किसी नुक़सान से बचने के लिए इस हिसाब से ग्राहकों को क़रीब 78 रुपये प्रति लीटर दूध बेचना पड़ेगा।
अब यदि इस हिसाब से कच्चे तेल के दाम 30 फ़ीसदी महंगे हुए तो पेट्रोल-डीजल के दाम में कितनी बढ़ोतरी करनी पड़ सकती है इसकी गणना आप ख़ुद ही कर सकते हैं। हालाँकि जानकारों का कहना है कि डीजल और पेट्रोल के दाम 9-14 रुपये प्रति लीटर कर कच्चे तेल के दाम में बढ़ोतरी के नुक़सान से बचा जा सकता है। यानी अब तक डीजल-पेट्रोल इतने महंगे हो जाने चाहिए थे। यदि पिछले 4 महीनों में हुए नुक़सान की भरपाई की जाए तो यह आँकड़ा और बढ़ जाएगा। डीजल-पेट्रोल के दाम सरकार के लिए भी समस्या खड़ी कर सकते हैं।
आख़िरी बार पेट्रोल-डीजल के दामों में 2 नवंबर को बढ़ोतरी हुई थी। आज 2 मार्च है। यानी पिछले चार महीने में कोई बढ़ोतरी नहीं की गई है और इसका नुक़सान तेल कंपनियाँ उठा रही हैं। फाइनेंशियल एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, एसबीआई का आकलन है कि यदि यूक्रेन संकट आगे खींचा तो भारत के खजाने से 1 लाख करोड़ रुपये खाली हो सकता है।
एसबीआई के नोट में कहा गया है कि यदि यूक्रेन संकट के बीच कच्चे तेल का दाम 100 डॉलर प्रति बैरल भी बरकरार रहता है तो महंगाई 52-65 बेसिस प्वाइंट बढ़ जाएगी। आसान शब्दों में कहें तो महंगाई लोगों की कमर तोड़ देगी। यह आम लोगों के लिए तो बड़ा झटका होगा ही, इससे मोदी सरकार के लिए भी कम मुश्किलें नहीं खड़ी होंगी।
सरकार को भी इस मुश्किल का अंदाज़ा है। तभी सरकार अब इस संकट से निकलने के लिए वैकल्पिक उपाय तलाश रही है। समझा जाता है कि डीजल-पेट्रोल के दाम बढ़ने से एकाएक लोगों पर भार ज़्यादा न पड़े इसलिए कर में सरकार कटौती कर सकती है।
अंग्रेज़ी अख़बार 'डेक्कन हेराल्ड' ने सूत्रों के हवाले से ख़बर दी है कि 'अगर सरकार पेट्रोल और डीजल पर केंद्रीय उत्पाद शुल्क में कटौती करके बढ़ोतरी को बेअसर नहीं करती है, तो कीमतों में वृद्धि पर असर पड़ेगा। इसलिए, शुल्क पर कुछ फ़ैसला लिया जा सकता है।'
रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय स्टेट बैंक के अर्थशास्त्रियों द्वारा प्रस्तुत अनुमानों के अनुसार, यदि सरकार पेट्रोलियम उत्पादों पर उत्पाद शुल्क को कम करती है और पेट्रोल और डीजल की कीमतों को बढ़ने से रोकती है, तो उसे प्रति महीने उत्पाद शुल्क का 8,000 करोड़ रुपये का नुक़सान होगा।
मोदी सरकार ने पिछली बार पेट्रोलियम उत्पादों पर उत्पाद शुल्क में 3 मार्च को कटौती की थी। सरकार ने तब फ़ैसला लिया था कि सरकार पेट्रोल और डीजल पर पाँच और 10 रुपये का उत्पाद शुल्क कम करेगी और यह फ़ैसला दिवाली के दिन लागू होगा।
यह फ़ैसला तब लिया गया था जब 2 नवंबर को 13 राज्यों में उपचुनाव के नतीजे आए थे। वे नतीजे बीजेपी के लिए किसी बड़े झटके से कम नहीं थे। 2 नवंबर को पेट्रोल के दाम लगातार सातवें दिन बढ़े थे और दिल्ली में पेट्रोल 110.04 रुपए प्रति लीटर पर पहुँच गया था और डीजल 98.42 रुपए पर था।
पश्चिम बंगाल में चुनाव के दौरान भी इसी तरह से लंबे समय तक डीजल-पेट्रोल के दामों में बढ़ोतरी नहीं हुई थी। पश्चिम बंगाल में चुनाव नतीजे आते ही पेट्रोल-डीजल के दामों में बढ़ोतरी की गई थी।
इससे पहले 2020 में 28 अक्टूबर से 7 नवंबर के दौरान बिहार विधानसभा के चुनाव हुए और 10 नवंबर को नतीजे आए थे। तब 2 सितंबर से 19 नवंबर के बीच पेट्रोल-डीजल के दाम स्थिर रहे थे और फिर 20 नवंबर से 7 दिसंबर तक 15 बार दाम बढ़े थे। दिल्ली और कर्नाटक विधानसभा चुनाव के दौरान भी ऐसा ही रवैया देखने को मिला था।
फ़िलहाल, उत्तर प्रदेश सहित पाँच राज्यों में चुनाव चल रहे हैं। 7 मार्च को चुनाव ख़त्म हो जाएँगे और 10 मार्च को परिणाम आएँगे। समझा जाता है कि चुनाव ख़त्म होने के बाद ही डीजल-पेट्रोल के दाम बढ़ सकते हैं। डीजल-पेट्रोल के साथ ही रसोई गैस, सीएनजी और पीएनजी के दाम भी बढ़ सकते हैं। लेकिन कितने बढ़ेंगे, यह साफ़ तौर पर चुनाव बाद ही पता लग सकता है।