दुनिया ने तजुर्बातो हवादिस की शक्ल में
जो कुछ दिया है मुझको दोहरा रहा हूँ मैं
साहिर लुधियानवी का ये शेर एक तरह से उनकी समूची रचनात्मकता, उनकी शायरी, उनके तमाम फ़िल्मी नग्मों का निचोड़ है और बुनियाद भी। मुहब्बत की मिठास से लेकर प्यार में ठोकर खाने, ठुकराए जाने के बेहद निजी दुःख-तकलीफों के एहसास के साथ- साथ समाजी हक़ीक़तों, ज़माने की ऊँच-नीच, ग़रीबी-अमीरी और मज़हब के आधार पर इंसानों में भेद पैदा करने वाली सियासत को लेकर नाराज़गी, तल्खी और बग़ावत का लहजा उनके अपने भोगे हुए, महसूस किये हुए कड़वे सच का नतीजा था, कोई उधार की खामख्याली नहीं। जब वो लिखते हैं-
कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है
कि ज़िन्दगी तेरी ज़ुल्फ़ों की नर्म छांव में
गुजरने पाती तो शादाब हो भी सकती थी
ये तीरगी जो मेरी ज़ीस्त का मुकद्दर है
तेरी नज़र की शुआओं में खो भी सकती थी
मगर ये हो न सका और अब ये आलम है
कि तू नहीं, तेरा ग़म, तेरी जुस्तजू भी नहीं
गुज़र रही है कुछ इस तरह ज़िन्दगी जैसे
इसे किसी के सहारे की आरज़ू भी नहीं
तो अपनी प्रेमिका से बिछुड़ जाने के बाद उसे याद करने की यह दर्द भरी अभिव्यक्ति निजी न रहकर सार्वभौमिक, सार्वकालिक बन जाती है, आज के दौर में भी किसी टूटे दिल की आवाज़ बन जाती है।
साहिर एक ऐसे दिलचस्प शायर और फ़िल्मी नग्मानिगार हैं जिन्होंने प्रेम की निजी पीड़ा से गुज़रते हुए ज़िन्दगी के तमाम सवालों का विस्तार करके उसे पूरी दुनिया की बुनियादी ज़रूरतों से जुड़ी दुःख तकलीफों के इज़हार में बदल दिया और कहा-
ज़िन्दगी सिर्फ़ मुहब्बत नहीं कुछ और भी है
ज़ुल्फो रुखसार की जन्नत नहीं कुछ और भी है
भूख और प्यास की मारी हुई इस दुनिया में
इश्क़ ही एक हक़ीक़त नहीं कुछ और भी है
तुम अगर आँख चुराओ तो ये हक़ है तुमको
मैंने तुमसे ही नहीं सबसे मुहब्बत की है
2021 साहिर लुधियानवी का जन्म शताब्दी वर्ष है। आज अगर वह हमारे बीच होते तो सौ साल के हो गए होते। 8 मार्च 1921 को लुधियाना में पैदा हुए साहिर लुधियानवी का मूल नाम दरअसल अब्दुल हई था। वह एक जागीरदार पिता के बेटे थे जिनकी कई पत्नियाँ थीं लेकिन वारिस दिया सिर्फ़ साहिर की मां ने। मां-बाप में तीखे मतभेद हुए तो सामंती सोच वाले पिता ने इकलौते बेटे को मरवाने की धमकी तक दे डाली। मामला अदालत में पहुँचा तो नन्हे बच्चे ने बाप की दौलत ठुकरा कर मां के साथ रहने का विकल्प चुना।
बचपन की कड़वाहट, अभावों, पिता से नफ़रत, दुनिया की सोच-सुलूक और मां से बेपनाह मुहब्बत ने साहिर की ज़िन्दगी, शायरी और फ़िल्मी नग्मों के लिए वो सांचे तैयार किये जिनमें उनके तमाम चाहने वालों ने अपनी अपनी आपबीती के अक्स देखे और आज भी देखते हैं।
साहिर का अर्थ होता है जादूगर। साहिर लुधियानवी अपने नाम को सार्थक करते हुए नग्मानिगारी के फ़न के जादूगर ही साबित हुए। साहिर लुधियानवी के शुरुआती तेवरों पर फैज़ अहमद फैज़ और मजाज़ लखनवी की शायरी का असर था। फ़िल्म ‘फिर सुबह होगी’ के लिए इस्तेमाल की गयी उनकी नज़्म - ‘वो सुबह कभी तो आएगी’, फैज़ की नज़्म की याद दिलाती है- ‘वो दाग़ दाग़ उजाला, वो शबगजीदा सहर, कि इंतज़ार था जिसका ये वो सुबह तो नहीं।’ उसी फ़िल्म में साहिर ने इक़बाल के कौमी तराने की पैरोडी लिखकर चिराग तले अँधेरा दिखाते हुए विश्व बंधुत्व के खोखले नारे पर भी व्यंग्य किया था-
चीनो-अरब हमारा, हिन्दोस्तां हमारा
रहने को घर नहीं है , सारा जहाँ हमारा
जेबें हैं अपनी ख़ाली, क्यों देता वर्ना गाली
वो संतरी हमारा, वो पासबाँ हमारा
क्या यह आज भी उतना ही सच नहीं है जब हम बात बात पर विश्व गुरु होने का ढोल पीटने लगते हैं?
जब साहिर ने ‘प्यासा’ फ़िल्म में गुरुदत्त के ज़रिये कहा- ‘जिन्हे नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं’ - तो वो नेहरू के सामाजिक-आर्थिक विकास मॉडल की बखिया उधेड़ रहे थे। नेहरू पचास और साठ के दौर के आज़ाद भारत के हीरो थे, आज़ादी के नायकों में से एक थे, आज़ादी के बाद के भारत के निर्माता और भविष्य के स्वप्न दृष्टा कहे जाते थे। साहित्य, संगीत और सिनेमा की दुनिया में भी उस दौर के लोकप्रिय नायकों की तिकड़ी - दिलीप कुमार, राज कपूर और देव आनंद समेत उनके प्रशंसकों की तादाद बहुत थी। लेकिन साहिर ने बेख़ौफ़ होकर उनके विकास मॉडल पर करारा व्यंग्य किया। जो बात तब कही गयी थी, वह आज भी सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास के नारे के बीच भी उतनी ही सच है- ‘जिन्हे नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं’।
लेकिन अब यह सवाल पूछने की हिम्मत कितने गीतकारों, फ़िल्मकारों में है?
आज जब एक बार फिर से धार्मिक कट्टरता की सियासत समाज में साम्प्रदायिकता का ज़हर फैला रही है और समाज को बाँट रही है तब 'धूल का फूल'' के लिए साहिर का लिखा गाना बहुत प्रासंगिक हो गया है-
तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा
इंसान की औलाद है इंसान बनेगा
और वह प्रार्थना जो सार्वभौमिक है, सार्वकालिक है-
अल्ला तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम
सबको सन्मति दे भगवान
देव आनंद की फ़िल्म 'हम दोनों' के लिए लिखी गयी यह प्रार्थना कोई धार्मिक भजन या भक्ति गीत नहीं है लेकिन इसकी आध्यात्मिकता सब धर्मों को सम्बोधित है, सबसे परे है। यह महात्मा गाँधी की प्रार्थना में गायी जाने वाली रघुपति राघव राजा राम, ईश्वर अल्ला तेरो नाम का ही एक तरह से विस्तार है। जब साहिर कहते हैं- ‘बलवानों को दे दे ज्ञान’ - तो बात किसी एक व्यक्ति, समाज या समूह की न होकर समूचे विश्व के लिए एक सन्देश बन जाती है - शांति का, अहिंसा का, सबके कल्याण का, निरस्त्रीकरण का। यह एक बड़े रचनाकार की खासियत है और ताक़त है कि उसका लिखा उसके अपने देखे और भोगे हुए यथार्थ और समय से बहुत आगे जाकर भी ज़िंदा और ज़रूरी बना रहता है।
साहिर के बारे में लिखते हुए निदा फ़ाज़ली का शेर याद आता है-
हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी
जिसको भी देखना हो कई बार देखना
साहिर लुधियानवी की शख्सियत कई परस्पर विरोधी तत्वों से बनी थी। एक प्रतिबद्ध शायर, शाही मिज़ाज़ इंसान, अक्खड़, आत्ममुग्ध, प्रेम के तमाम एहसास अपने गीतों में ढालने का बाकमाल हुनर रखने वाला नग्मा निगार लेकिन निजी ज़िन्दगी में प्रेम को लेकर बेहद असमंजस का शिकार।
साहिर लुधियानवी के बारे में प्रकाश पंडित, निदा फ़ाज़ली, जावेद अख्तर और अमृता प्रीतम के लिखे संस्मरण उनकी शख्सियत के कई विरोधी पहलुओं पर रोशनी डालते हैं। मिसाल के तौर पर अमृता प्रीतम ने लिखा है -
“साहिर को अपने बारे में काम्प्लेक्स था कि वह सुन्दर नहीं हैं।”
निदा फ़ाज़ली ने लिखा है -“साहिर को अपने आप से दीवानगी कि हद तक इश्क़ था और वह अपने सामने दूसरों की तारीफ़ को खुद की बुराई समझते थे और नाराज़ हो जाते थे।”
एक बार साहिर के घर में साहिर के सामने फैज़ और फ़िराक़ की तारीफ़ करने पर साहिर ने नाराज़ होकर निदा को खाने की मेज़ से उठा दिया और घर से जाने को कह दिया। निदा फ़ाज़ली ने अपने संस्मरणों की किताब 'तमाशा मेरे आगे’ में उस वाक़ये का ज़िक्र किया है-
“प्रगतिशील साहित्य के व्यापक संदर्भ में उस रात मुझे साहिर की शायरी उतनी अच्छी नहीं लगी, जितनी रोज़ उन्हें लगती थी। उस रात मेरे होंठों से फ़िराक़ और फ़ैज़ की प्रशंसा में कुछ जुमले निकल गये थे, जो साहिर की मेहमाननवाज़ी की शर्तों को नकारते थे।
अपने ही घर में किसी मेहमान के मुँह से दूसरों की तारीफ़ सुनकर साहिर का नाराज़ होना ज़रूरी था। उस नाराज़गी ने न सिर्फ़ साहिर के लफ़्ज़ों में मेरी औक़ात बताई, बल्कि खाने की मेज़ से भी मुझे उठा दिया। साहिर की ग़ुस्से भरी आवाज़ सुनकर, उनकी माँ अंदर से बाहर आकर दरवाज़े पर खड़ी हो गई थीं और साहिर उनसे मेरी शिकायत कर रहे थे।
‘माँ जी, देखा, मैंने इसकी हालत पर तरस खाया और नतीजे में यह पाया। मेरे ही सामने मेरी बुराई कर रहा है।’
दूसरों की तारीफ़ को वह अपनी बुराई मानते थे।
मैं मेज़ से उठकर दरवाज़े की तरफ़ बढ़ा ही था कि देखा, साहिर मेरे कंधे पर हाथ रखे कह रहे हैं, ‘नौजवान, इतनी रात को जा रहे हो… खाना नहीं खा रहे हो, तो ये रुपये रख लो।’
वह मुझे कुछ देना चाहते थे, लेकिन मैंने नहीं लिया और तेज़ क़दमों से नीचे उतर आया।”
अमृता प्रीतम और साहिर का इश्क़ साहित्य और सिनेमा की दुनिया की सबसे चर्चित प्रेम कहानियों में से है जिसे अमृता प्रीतम ने कभी छुपाया नहीं और साहिर ने कभी खुल कर जताया नहीं। अमृता प्रीतम ने लिखा था- ‘मुझे रब (इमरोज) तो मिल गया लेकिन राँझा (साहिर) नहीं मिलाl’ अपनी आत्मकथा रसीदी टिकट में अमृता प्रीतम ने साहिर के साथ गुज़ारे दिनों को जिस शिद्दत से याद किया है, वह बेमिसाल है। अमृता लिखती हैं-
“लाहौर में जब कभी साहिर मिलने के लिए आता था तो जैसे मेरी ही ख़ामोशी में से निकला हुआ ख़ामोशी का टुकड़ा कुर्सी पर बैठता था और चला जाता था...
वह चुपचाप सिर्फ़ सिगरेट पीता रहता था, कोई आधा सिगरेट पीकर राखदानी में बुझा देता था, फिर नया सिगरेट सुलगा लेता था। और उसके जाने के बाद केवल सिगरेटों के बड़े-बड़े टुकड़े कमरे में रह जाते थे।
कभी… एक बार उसके हाथों को छूना चाहती थी, पर मेरे सामने मेरे ही संस्कारों की एक वह दूरी थी जो तय नहीं होती थी...
तब भी कल्पना की करामात का सहारा लिया था।
उसके जाने के बाद, मैं उसके छोड़े हुए सिगरेटों के टुकड़ों को संभालकर अलमारी में रख लेती थी, और फिर एक-एक टुकड़े को अकेले बैठकर जलाती थी, और जब उँगलियों के बीच पकड़ती थी तो लगता था जैसे उसका हाथ छू रही हूँ...
सिगरेट पीने की आदत मुझे तब ही पहली बार पड़ी थी। हर सिगरेट को सुलगाते हुए लगता कि वह पास है। सिगरेट के धुएँ में जैसे वह जिन्न की भाँति प्रकट हो जाता था...”
मुमकिन है शख्सियत के इन्हीं विरोधी तत्वों की वजह से साहिर के गीतों में जीवन से राग और वैराग्य के बहुत सघन स्वर दीखते हैं। एक तरफ़ इश्क़ के जूनून और बेताबी में डूबी हुई कव्वाली है - ये इश्क़ इश्क़ है इश्क़ इश्क़ तो दूसरी तरफ़ सन्यासी भाव का गीत है- मन रे तू काहे न धीर धरे।
उन्होंने एक तरफ़ दुनिया जीतने का हौसला देते हुए कहा-
तदबीर से बिगड़ी हुई तक़दीर बना ले
अपने पे भरोसा है तो ये दांव लगा ले
तो दूसरी तरफ़ ‘ब्रम्ह सत्यम, जगत मिथ्या’ या माया महाठगिनी के भाव को ही विस्तार देते हुए फलसफाना अंदाज़ में कह दिया-
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है
अब आपको जो भाव अच्छा लगे चुन लें, साहिर के गीतों में हर दौर की ज़िन्दगी का हर रंग मौजूद है इसी कमाल की रेंज और गहराई की वजह से साहिर आज भी बाक़ी फ़िल्मी नग्मानिगारों से अलग नज़र आते हैं।