वी शांताराम और ख्वाजा अहमद अब्बास के रिश्ते शुरू में अच्छे नहीं थे। ख्वाजा अहमद अब्बास ने अपनी आत्मकथा ‘आई एम नॉट इन आयलैंड’ में वी शांताराम से अपनी मुलाक़ात और संबंध का ज़िक्र किया है। उन्होंने लिखा है,
“मैं तब शांताराम का बड़ा प्रशंसक नहीं था। मैंने उनके कुछ माइथोलॉजिकल और माइथो-हिस्टोरिकल फ़िल्में देखी थीं। इन फ़िल्मों में मुझे केवल तकनीक पसंद आई थी। शांता आप्टे अभिनीत ‘दुनिया ना माने’ ने मुझे थोड़ा प्रभावित किया था। उसमें भी प्रतीकों का कुछ ज़्यादा इस्तेमाल हो गया था। ख़ासकर तब जब गधे रेंकते हैं और माँ का ध्यान खींचते हैं। मेरे ख्याल से वह कुछ ज़्यादा हो गया था।”
उन दिनों वी शांताराम की निर्माणाधीन फ़िल्म ‘आदमी’ के विज्ञापन लगातार अख़बारों में छपा करते थे। वह फ़िल्म नहीं आ रही थी। इस पर ख्वाजा अहमद अब्बास में अपने स्तंभ ‘द फिफ्थ कॉलम’ में लिखा,
“ऐसा लगता है कि वी शांताराम की फ़िल्म ‘आदमी’ पुणे से मुंबई पैदल आ रही है। मीलों चलने के बाद थक कर वह किसी पेड़ के साए में आराम कर रही है।”
इसका नतीजा यह हुआ कि जब फ़िल्म थिएटर में लगी तो ‘बॉम्बे क्रॉनिकल’ के फ़िल्म क्रिटिक ख्वाजा अहमद अब्बास को निमंत्रण नहीं भेजा गया। बहरहाल, अब्बास को पता चला कि यह फ़िल्म बहुत अच्छी है तो वह टिकट खरीदकर ख़ुद से फ़िल्म देखने गए। अगले दिन फिर से उन्होंने उसे देखा।
ख्वाजा अहमद अब्बास ने लिखा है कि यह फ़िल्म उन्होंने कुल 18 बार देखी। उन्होंने इस फ़िल्म की 7 कॉलम की समीक्षा लिखी। पेज का नाम था ‘मेनली अबाउट मोशन पिक्चर्स’ लेकिन उस हफ्ते उसका नाम दिया गया ‘मेनली अबाउट मोशन पिक्चर कॉल्ड आदमी’।
अब्बास ने सिनेमाई यथार्थवाद के लिए इस फ़िल्म को पाठ कहा। उन्होंने इसकी तुलना महान फ़िल्मकार आईजेनस्टीन और पुदोवकीन की फ़िल्मों से की। अब्बास ने शांताराम की तुलना उस समय के तीन प्रमुख बंगाली निर्देशकों देवकी बोस, नितिन बोस और प्रथमेश बरुआ से भी की और लिखा कि शांताराम का ज़िंदगी में यक़ीन इन सभी से ऊपर है। वह देवकी बोस की लिरिसिज़्म, नितिन बोस की रोमांटिसिज़्म और प्रथमेश बरुआ की पैसिसिज़्म से अलग हैं। किसी एक फ़िल्म की इतनी लंबी समीक्षा तब तक शायद दुनिया के किसी भी साप्ताहिक या दैनिक में नहीं छपी थी।
इस समीक्षा ने पाठकों का ध्यान खींचा और वे फ़िल्म देखने गए कि समीक्षक ने सही लिखा है या नहीं उस समीक्षा की वजह से फ़िल्म के दर्शक बढ़ गए। ईर्ष्यालु निर्माताओं ने शांताराम से पूछा भी कि उन्होंने समीक्षक की मुट्ठी कितने में गर्म की शांताराम ने उनसे कहा कि उन्होंने तो समीक्षक का चेहरा भी नहीं देखा है। वे समीक्षक को बिल्कुल नहीं जानते। बाद में शांताराम ने अब्बास को चिट्ठी लिखी कि हम लोग मिलें और फ़िल्म पर बात करें।
अब्बास ने उन्हें कहा कि हम लोग सेंट्रल सिनेमा में मिलें।‘आदमी’ फ़िल्म अपार भीड़ खींच रही थी। तब फ़िल्में शहर के एक ही थियेटर में रिलीज होती थीं। तब तक अब्बास ने चार-पाँच बार फ़िल्म देख ली थी। फिर भी दोनों साथ फ़िल्म देखने गए और वहाँ से शांताराम और अब्बास के बीच गहरी दोस्ती हुई। अब्बास मानते थे कि शांताराम की फ़िल्मों ने भारतीय सिनेमा में यथार्थवाद की नींव रखी। उन्होंने इस संबंध में लेख लिखे और वक्तव्य भी दिए।
‘आदमी’ के बाद शांताराम की फ़िल्म ‘पड़ोसी’ आई तो ख्वाजा अहमद अब्बास ने उस फ़िल्म के ऊपर एक संपादकीय लिखने की इच्छा संपादक से जताई। उन्होंने संपादक से उसे प्रकाशित करने का आग्रह किया।
इस आग्रह से संपादक बरेलवी इतना चौंके कि उन्होंने ख़ुद पहले फ़िल्म देखी और फिर उन्हें संपादकीय लिखने की अनुमति दे दी। उन्होंने संपादकीय में बहुत थोड़ा बदलाव किया। फ़िल्म की तारीफ़ में उनके विशेषणों को थोड़ा टोन डाउन कर दिया। संभवतः पहले संपादकीय के तौर पर छपे ‘पड़ोसी’ के आलेख को दर्शकों ने बहुत गंभीरता से लिया और वे फ़िल्म देखने गए।
उनकी गहरी दोस्ती प्रोफ़ेशनल संबंध में बदली। शांताराम की फ़िल्म ‘डॉक्टर कोटनीस की अमर कहानी’ ख्वाजा अहमद अब्बास के उपन्यास ‘एंड वन डिड नॉट कम बैक’ पर आधारित थी। यह फ़िल्म भारत और चीन में प्रदर्शित हुई तो दोनों देशों ने एक भारतीय डॉक्टर के समर्पण और त्याग को समझा।