2024 का समीकरण तय होने लगा है। नये संसद भवन का उद्घाटन होने वाला है। इस मौक़े पर होने वाले समारोह को लेकर सत्ताधारी बीजेपी के पक्ष और विपक्ष में लामबंदी भी खुलने लगी है। एक तरफ़ 21 दल इकट्ठा हैं जिनके पास 147 सांसद और 96 राज्यसभा सदस्य हैं। ये दल नये संसद के उद्घाटन समारोह का बहिष्कार कर रहे हैं। राष्ट्रपति की गैर मौजूदगी को ये दल लोकतंत्र पर हमला बता रहे हैं। वहीं, दूसरी तरफ बीजेपी के साथ भी विपक्ष से 16 दल सामने आ गये हैं। इनमें से बीएसपी सबसे प्रमुख है।
बीएसपी प्रमुख मायावती ने 21 दलों की ओर से नये संसद भवन के उद्घाटन समारोह के बहिष्कार से खुद को अलग कर लिया है। मायावती ने वह डगर निकाल ली है जो बीजेपी के पास से गुजरती है या फिर उसके घर तक जाती है। मायावती अब उन सियासी दलों का नेतृत्व कर सकती हैं जो उनकी राह पर चलते हुए राष्ट्रीय सियासत में खेमेबंदी या ध्रुवीकरण अधिक स्पष्ट करें। यह समूह बीजेपी के साथ नरम रुख रखने वाला होगा।
जिस गली में तेरा घर ना हो बालमा...
बीएसपी प्रमुख मायावती ने तीन ट्वीट के ज़रिए जो घोषणा की है उसने सियासी जगत में एक बेहद लोकप्रिय गीत की याद दिला दी है- “जिस गली में तेरा घर ना हो बालमा, उस गली से हमें तो गुजरना नहीं। जो डगर तेरे द्वारे पे जाती ना हो उस डगर पर हमें पांव रखना नहीं।“
लोकसभा चुनाव के बाद जब बहुजन समाज पार्टी ने समाजवादी पार्टी से गठबंधन तोड़ने का एलान किया, तब से मायावती का रुख उस राह से गुजरने का क़तई नहीं रहा है जो बीजेपी के द्वारे नहीं जाती हो। बीजेपी के समानांतर चलती विपक्ष की सियासत में कभी मायावती आगे बढ़कर योगदान करती नहीं दिखीं।
राष्ट्रपति के चुनाव में जब मायावती ने द्रौपदी मुर्मू के समर्थन का एलान किया था तब इसे नैतिक और राजनीतिक तौर पर सही माना गया था क्योंकि यह बीएसपी की दलित-वंचित तबके की सियासत को आगे बढ़ाने वाला कदम था। मगर, आज स्थिति उलट है।
मायावती के फैसले के केंद्र में न द्रौपदी पहले थीं न आज हैं
सवाल संसद भवन के उद्घाटन समारोह में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की गैर मौजूदगी और इसके पीछे की सियासी वजह का है लेकिन मायावती ने इस सवाल को सिरे से ठुकरा दिया है। उन्होंने खुले तौर पर कहा है कि मोदी सरकार ने संसद भवन का निर्माण कराया है और इसलिए प्रधानमंत्री मोदी को इसके उद्घाटन का पूरा हक है।
इसमें संदेह नहीं कि नये संसद भवन के उद्घाटन समारोह से जुड़े विवाद में बीजेपी और बीजेपी सरकार को विपक्ष से बड़ा समर्थन मायावती के रूप में मिला है।
मगर, इससे यह बात भी साफ़ होती है कि चाहे राष्ट्रपति चुनाव हो या फिर नये संसद भवन में राष्ट्रपति को न्योता नहीं देने का अवसर- मायावती का रुख द्रौपदी मुर्मू को ध्यान में रखकर न पहले था, न आज है। राष्ट्रीय सियासत में बीजेपी की राह चलती हुई मायावती दिख रही हैं। हालाँकि ऐसा दिखने में एक सतर्कता भी है मगर अक्सर उस सतर्कता की पोल खुल जाती है।
एसपी-बीएसपी गठबंधन टूटने के बाद से चंद उन वाकयों पर नज़र डालें जिससे मायावती की सियासी राह का पता चलता है-
- 2020 में महज 15 विधायकों के दम पर बीएसपी का राज्यसभा चुनाव लड़ना और बीएसपी उम्मीदवार रामजी गौतम का जीत जाना। बीजेपी ने तब 10 सीटों में से 9 सीटों पर जीतने का आंकड़ा होने के बावजूद क्षमता से एक कम यानी 8 उम्मीदवार दिए थे।
- 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में बीएसपी का जनाधार खिसक गया था और पार्टी विधायकों की संख्या के मामले में कांग्रेस की दो सीटों के मुकाबले एक पर आ गयी। आरोप लगते हैं कि बीएसपी के इशारे पर ही पार्टी के वोट बीजेपी में खामोशी से सरक गये।
- 2020 में नये संसद भवन के शिलान्यास के अवसर पर भी मायावती का रुख बहिष्कार करने वाले दलों के मुकाबले अलग था।
- कोविड के दौरान 2021 में विपक्षी दलों ने दो बार एकजुट होकर बयान जारी किया। मायावती इन बयानों से भी दूर रहीं।
- स्टेन स्वामी की न्यायिक हिरासत में मौत के बाद विपक्षी दलों ने राष्ट्रपति को ज्ञापन दिया था। इससे भी बीएसपी दूर रही।
- अप्रैल 2022 में हेट स्पीच पर प्रधानमंत्री की चुप्पी पर विपक्षी दलों ने बयान जारी किया। मायावती ने इसकी भी अनदेखी की।
बीजेपी विरोधी मोर्चा से दूर रहेंगी मायावती
बीएसपी प्रमुख ने लगातार ऐसी एकजुटता से दूर रहने का फैसला किया है जो मोदी सरकार के खिलाफ होती आयी है। नये संसद भवन के उद्घाटन समारोह के बहिष्कार के खिलाफ होकर मायावती ने वास्तव में 2024 के लिए अपनी सियासी राह दिखलायी है। कम से कम यह बात तो साफ़ है कि वह बीजेपी विरोधी किसी मोर्चे का हिस्सा नहीं बनने जा रही हैं।
दिल्ली अध्यादेश के खिलाफ विपक्ष को एकजुट करने की कवायद जो ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल कर रहे हैं, उससे भी मायावती जुड़ेंगी- इसके कोई संकेत नहीं हैं। स्पष्ट है कि कांग्रेस से दूरी बनाकर रखने वाले दल भले ही अपने रुख में परिवर्तन कर रहे हैं लेकिन बीजेपी के लिए नरम रुख रखने वाले दलों में बीएसपी और मायावती सबसे उदार हैं और वह कम से कम अपने रुख में बदलाव करती नहीं दिख रही हैं।