2020 के विधानसभा चुनाव में अपनी सहयोगी बीजेपी से पिछड़ जाने के बाद से ही राजनीतिक दबाव का सामना कर रहे नीतीश कुमार पुराने सहयोगियों को जोड़ने के काम में जुटे हैं। इसी क्रम में उन्होंने पूर्व केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी का जेडीयू में विलय कराया और बुधवार को कुशवाहा को बिहार विधान परिषद का सदस्य भी मनोनीत कर दिया। हाशिए पर चल रहे कुशवाहा को भी इससे राजनीतिक संजीवनी मिली है।
विलय के बाद कुशवाहा को जेडीयू संसदीय बोर्ड का अध्यक्ष बनाया गया था। इसके अलावा भी जेडीयू के कुछ और पुराने नेताओं को वापस लाने की कोशिश जारी है। नीतीश ने बीते दिनों संगठन की कमान भी अपने क़रीबी आरसीपी सिंह को सौंप दी थी।
नीतीश इस बात को जानते हैं कि बीजेपी से मुक़ाबला करने के लिए अपने सियासी क़िले को मज़बूत करना ही होगा, वरना राज्य में राजनीति करना मुश्किल हो जाएगा। 2020 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 74 जबकि जेडीयू को 43 ही सीटें मिली थीं।
नीतीश को उम्मीद है कि कुशवाहा के साथ आने से उनका कुर्मी-कोईरी-कुशवाहा समीकरण मज़बूत होगा। कुशवाहा के अलावा 11 और नेताओं को बिहार विधान परिषद का सदस्य नियुक्त किया गया है। इनमें छह नेता बीजेपी के और छह जेडीयू के हैं।
सतर्क हैं नीतीश
अरुणाचल के घटनाक्रम के बाद से नीतीश खासे सतर्क हैं। बिहार के राजनीतिक गलियारों में समय-समय पर चर्चा उठती रहती है कि जेडीयू-कांग्रेस में टूट हो सकती है और इनके विधायक बीजेपी के साथ जा सकते हैं। हालांकि ये अभी सिर्फ़ सियासी चर्चाएं ही हैं लेकिन कई राज्यों में दूसरे दलों के विधायकों के टूटकर बीजेपी के साथ जाने के बाद इस आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता कि बिहार भी इसका गवाह बने। अरुणाचल में जेडीयू के छह विधायक बीजेपी में शामिल हो गए थे और जेडीयू ने इसे गठबंधन धर्म के ख़िलाफ़ बताया था।
बिहार की राजनीति को देखकर यह साफ पता चलता है कि बीजेपी नीतीश को दबाव में रखना चाहती है। नीतीश के प्रबल समर्थक माने जाने वाले सुशील मोदी को दिल्ली भेजने, संघ की पृष्ठभूमि से आने वाले दो लोगों को डिप्टी सीएम बनाने और मेवालाल चौधरी के इस्तीफ़े से इस बात की तसदीक होती है।
नीतीश को कैबिनेट के विस्तार के लिए भी लंबे वक़्त तक बीजेपी का मुंह देखना पड़ा था। इससे पहले जब भी नीतीश बीजेपी के साथ रहे, कभी भी इतने कमजोर नहीं दिखाई दिए।
पुराने साथी हैं कुशवाहा
जहां तक कुशवाहा की बात है तो लंबे वक़्त तक नीतीश के साथ राजनीति करने के बाद वह 2013 में उनसे अलग हो गए थे। मार्च, 2013 में उन्होंने आरएलएसपी का गठन किया था और 2014 के लोकसभा चुनाव में बिहार में तीन सीटें जीती थीं। उसके बाद वे मोदी सरकार में मंत्री भी रहे लेकिन 2019 में सीट बंटवारे से नाख़ुश होकर उन्होंने एनडीए छोड़ दिया था। इसके बाद उन्होंने यूपीए के साथ मिलकर लोकसभा का चुनाव लड़ा था लेकिन उनकी पार्टी को कोई सीट नहीं मिली थी।
2020 के विधानसभा चुनाव में कुशवाहा ने कुछ छोटे दलों के साथ मिलकर ग्रैंड डेमोक्रेटिक सेक्युलर फ्रंट बनाया था। इस फ्रंट में बीएसपी, एआईएमआईएम सहित कुछ और दल शामिल थे। कुशवाहा इस फ्रंट की ओर से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार थे।
देखना होगा कि कुशवाहा नीतीश के सियासी क़िले को मजबूत करने में कितना योगदान दे पाते हैं।