जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) के अध्यक्ष और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए यह सवाल फिर उभरकर सामने आया है कि वे सहयोगी दल बीजेपी से मिलने वाली चोट को कब तक और कितना सहेंगे। अरुणाचल प्रदेश में उनके दल के 6 विधायकों का बीजेपी में शामिल होना चर्चा का विषय बना हुआ है।
जेडीयू विधायकों को बीजेपी में शामिल करवाने को जेडीयू के राष्ट्रीय महासचिव केसी त्यागी ने दुर्भाग्यपूर्ण कहा है। उन्होंने यह भी कहा कि इससे गठबंधन की राजनीति पर असर पड़ता है हालांकि बिहार की राजनीति पर इसके असर से उन्होंने इनकार किया।
जेडीयू के अरुणाचल प्रदेश प्रभारी आफाक अहमद खान ने इस संवाददाता से बातचीत में इस घटना को अनैतिक करार दिया और कहा कि आगे क्या करना है, इस पर पार्टी का शीर्ष नेतृत्व विचार करेगा।
बिहार तक सीमित गठबंधन!
इस बारे में बीजेपी ने बस इतना कहा है कि जेडीयू विधायकों के उनकी पार्टी में शामिल होने के पत्र को स्वीकार कर लिया गया है। लेकिन जेडीयू और बीजेपी ऐसे मौकों पर यह कहते आये हैं कि दोनों के बीच गठबंधन सिर्फ बिहार तक है। हालांकि जेडीयू ने अरुणाचल में बीजेपी की सरकार को समर्थन दे रखा था और दिल्ली में बीजेपी से गठबंधन के तहत दो सीटों पर चुनाव लड़ा था।
बिहार चुनाव से पहले खटपट
बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन में बिहार विधानसभा चुनाव से पहले ही खटपट तब शुरू हो गयी थी जब केन्द्र में उसके साथ रही लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) के अध्यक्ष चिराग पासवान ने नीतीश कुमार को निशाने पर ले लिया था और अलग चुनाव लड़ने की घोषणा की और लड़े भी। इसके अलावा बीजेपी के चुनावी विज्ञापनों से नीतीश कुमार की तसवीरों का गायब रहना और बीजेपी नेताओं के भाषण में नीतीश की कामयाबी को कम आंकने जैसे दूसरे मुद्दे थे। सवाल यह है कि नीतीश कुमार ऐसी चोट कब तक सहेंगे।
चुनाव परिणाम में जब जेडीयू का प्रदर्शन खराब हुआ तब यह सवाल और गहरा गया था। अब अरुणाचल की घटना ऐसे समय पर हुई है, जब 26 दिसंबर से जेडीयू के राष्ट्रीय पदाधिकारियों की दो दिन की बैठक होनी है। रोचक बात यह है कि जब यही सवाल नीतीश कुमार से किया गया तो उन्होंने बस इतना कहा कि अभी हमारी बैठक होने वाली है, वो अलग हो गये हैं।
अरुणाचल में क्या हुआ
अरुणाचल प्रदेश विधानसभा सचिवालय से 23 दिसंबर को जारी बुलेटिन के अनुसार जेडीयू के 6 और पीपुल्स पार्टी ऑफ़ अरुणाचल के एक विधायक बीजेपी में शामिल हो गये। अब अरुणाचल प्रदेश में जेडीयू के पास एक विधायक रह गया है जो विधायक दल का नेता भी है। यह ईंटानगर के विधायक टेची कासो हैं।
26 नवंबर को जेडीयू ने अपने तीन विधायकों डोंगरू सियोंगजू, डी.डब्ल्यू. खरमा और जिक्के टाकू को पार्टी विरोधी कार्यों के लिए कारण बताओ नोटिस दिया था और 14 दिनों के अंदर जवाब मांगते हुए उन्हें पार्टी से निलंबित कर दिया था।
अलग लड़ा था चुनाव
जेडीयू ने 2019 के अरुणाचल विधानसभा चुनाव में बीजेपी से गठबंधन किये बिना 15 सीटों पर चुनाव लड़ा था जिसमें कुछ जगहों पर बीजेपी के उम्मीदवार भी थे। इनमें से 7 उम्मीदवार जीतकर आये थे। सूत्रों के अनुसार, अभी पार्टी छोड़कर गए 6 विधायकों ने तालेम ताबोह को अपना नेता चुना था जिसकी जानकारी जेडीयू नेतृत्व को नहीं दी गयी थी। उस वक्त भी इनके बीजेपी में शामिल होने की चर्चा हुई थी लेकिन तब इन विधायकों ने ऐसी किसी बात से इनकार किया था।
जेडीयू अपने आधिकारिक बयान में चाहे जितनी सावधानी बरत रही हो, उसके सूत्र बताते हैं कि अरुणाचल में बीजेपी 60 में 41 सीट लाकर आसानी से सरकार चला रही थी। ऐसे में उसका जेडीयू को तोड़ना बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व की नीतीश को नीचा दिखाने की चाल है। उनका कहना है कि सब याद रखा जाएगा और मुहब्बत ऐसे थोड़ी होती है।
राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि बीजेपी पहले से ही नीतीश कुमार को उनके ‘सही स्थान’ पर रखने की नीति के तहत चल रही थी और उसमें कामयाब भी हो रही है।
विधानसभा चुनाव से पहले जेडीयू को यह कहने की मशक्कत करनी पड़ी कि बिहार में एनडीए का चेहरा नीतीश कुमार ही होंगे तो बीजेपी के बारे में यह समझा जाता है कि उसने एलजेपी को नीतीश विरोधी रवैया अपनाने के लिए तैयार किया या उसकी हरी झंडी दे दी।
ऐन चुनाव के दौरान काफी विरोध के बाद बीजेपी ने किसी तरह एलजेपी को एनडीए से अलग बताया लेकिन चिराग पासवान खुद को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का हनुमान बताते रहे। एलजेपी ने उन सभी जगहों पर अपने उम्मीदवार उतारे जहां जेडीयू के प्रत्याशी भी थे।
चुनाव परिणामों से यह साफ हुआ कि एलजेपी को कम से कम दो दर्जन जगहों पर इतने वोट मिले, जो जेडीयू की हार का कारण बने। इसके बावजूद बीजेपी ने एलजेपी को एनडीए से अब तक नहीं हटाया है।
चुनाव के दौरान ऐसी भी चर्चा सामने आयी थी कि बीजेपी और उसके सहयोगी संगठनों ने अपने वोट को जेडीयू के उम्मीदवारों के लिए ट्रांसफर कराने में दिलचस्पी नहीं ली जिससे भी उसकी सीटों की संख्या कम हुई।
पहली बार बीजेपी से कम सीट
चुनाव परिणाम के बाद पहली बार ऐसा हुआ कि नीतीश कुमार की पार्टी को बीजेपी से कम सीटें मिलीं। बीजेपी के एक वर्ग ने इसे आधार मानकर नीतीश कुमार की जगह बीजेपी के नेता को मुख्यमंत्री बनाने की बात छेड़ दी हालांकि केन्द्रीय नेतृत्व ने सार्वजनिक रूप से यह कह रखा था कि सीट कम आये तो भी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही होंगे। इसलिए मुख्यमंत्री तो नीतीश कुमार ही रहे लेकिन उनकी टीम बदल दी गयी।
नीतीश के ‘करीबियों’ को हटाया
नीतीश के साथ बीजेपी की ओर से लगातार उप मुख्यमंत्री रहे सुशील कुमार मोदी को हटाकर राज्यसभा भेज दिया गया। नीतीश के खास माने जाने वाले दो और पूर्व मंत्रियों नंद किशोर यादव और प्रेम कुमार को कैबिनेट से बाहर कर दिया गया। इसके बदले नीतीश कुमार को बीजेपी से दो-दो उप मुख्यमंत्री लेने पड़े और वह भी खांटी आरएसएस वाले।
सूत्रों के अनुसार, इस बदलाव के बाद नीतीश कुमार के लिए मंत्रिमंडल विस्तार भी एक सिरदर्द बना हुआ है जो सरकार गठन के लगभग डेढ़ माह बीत जाने के बावजूद नहीं हो पाया है। कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि बीजेपी गृह मंत्रालय की भी मांग कर रही है, जिस वजह से जिच बनी हुई है।
नीतीश के पास उपाय क्या है
नीतीश कुमार 2013 में भी बीजेपी के साथ ऐसी स्थिति का सामना कर चुके हैं लेकिन उस समय उनके अपने विधायकों की संख्या 115 थी और अभी महज 43 है। 2015 में वह लालू प्रसाद से मिलकर चुनाव लड़े और आरजेडी-जेडीयू-कांग्रेस के महागठबंधन को बहुमत 178 सीटें मिली थीं। तब बीजेपी 53 सीटों पर सिमट गयी थी जबकि 2020 में उसे 74 सीटें मिलीं।
बिहार के चुनाव नतीजों पर देखिए चर्चा-
नीतीश की पलटी
नीतीश कुमार ने 14 महीने महागठबंधन की सरकार के मुख्यमंत्री बने रहने के बाद पलटी मारी और एक बार फिर बीजेपी के साथ सरकार बना ली। कई लोगों का यह भी मानना है कि राज्य के दो मामलों- मुज़फ्फरपुर बालिका गृहकांड और भागलपुर के सृजन घोटाले की सीबीआई जांच में करीबियों के नाम आने के कारण नीतीश कुमार सबकुछ सहने पर मजबूर हैं।
लेकिन क्या नीतीश कुमार इतने मजबूर हो गये हैं कि गैंग्स ऑफ़ वासेपुर का मशहूर डायलाॅग दोहराना पड़े - “तेरा खून कब खौलेगा रे फैज़ल।” यह सवाल मैंने जेडीयू के एक युवा नेता के सामने रखा तो उनका जवाब मिला- “समय का इंतजार कीजिए।”
इस बीच पूर्व विधानसभा अध्यक्ष और आरजेडी के एक वरिष्ठ नेता ने नीतीश कुमार से यह कहा है कि वे तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री बनाएं और खुद प्रधानमंत्री पद के लिए विपक्ष के उम्मीदवार बनें। आरजेडी के एक और वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी, जो पहले नीतीश कुमार के भी करीबी रहे हैं, कह रहे हैं कि अगर वे साहस दिखाकर कोई फैसला लेते हैं तो उसका स्वागत करेंगे।
दिलचस्प बात यह है कि अपनी आखिरी चुनावी सभा में नीतीश कुमार की कही वह बात काफी चर्चित रही थी कि यह उनका आखिरी चुनाव है। बिहार की राजनीति में फिलहाल ‘समय’ के इंतजार का समय है।