होली, बनारस, शिव, मस्ती, भंग, तरंग और ठण्डाई ये असम्पृक्त हैं। इन्हें अलगाया नहीं जा सकता। ये उतना ही सच है जितना ‘ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या।’ बनारस की होली के आगे सब मिथ्या लगता है। आज भी लगता है कि असली होली उन शहरों में हुआ करती थी जिन्हें हम पीछे छोड़ आए हैं। ऐसी रंग और उमंग की होली जहॉं सब इकट्ठा होते, खुशियों के रंग बंटते, जहॉं बाबा भी देवर लगते और होली का हुरियाया साहित्य। जिसमें समाज राजनीति और रिश्ते पर तीखी चोट होती। दुनिया जहान को अपने ठेंगे पर रखते।
मुझे यही संस्कार बनारस से मिले हैं। शहर बदला, समय बदला मगर संस्कार कहां बदलते हैं? मैं नोएडा में भी एक बनारस इकट्ठा करने की कोशिशों में लगा रहता हूँ। और साल में एक बार बनारस पूरे मिज़ाज के साथ यहॉं जमा होता है। इस बार (2022 में) की रंगभरी एकादशी पर ऐसा ही हुआ। दोस्त, यार इकट्ठा हुए। उत्सव, मेलजोल, आनंद के लिए। खिलाना पिलाना तो होता ही है। मगर सबसे अहम था कुछ देर के लिए ही सही मित्रों का साथ-साथ होना और साथ-साथ जीना। ऋग्वेद भी कहता है “संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनासि जानताम।” अर्थात हम सब एक साथ चलें। आपस में संवाद करें। एक दूसरे के मनों को जानते चलें।
फाल्गुन शुक्ल पक्ष की एकादशी, रंगभरी एकादशी होती है। कथा है कि शिवरात्रि पर विवाह के बाद भगवान शिव ससुराल में ही रह गए थे। रंगभरी को उनका गौना होता है। गौरी के साथ वे अपने घर लौटते हैं और अपने दाम्पत्य जीवन की शुरुआत होली खेल कर करते हैं। इसीलिए काशी विश्वनाथ मंदिर में रंगभरी से ही बाबा का होली कार्यक्रम शुरू होता है। उस रोज़ मंदिर में होली होती है। दूसरे रोज़ महाश्मशान में चिता भस्म के साथ होली खेली जाती है। शिव यहीं विराजते हैं। सो उत्सव के लिए इससे अधिक समीचीन दूसरा मौक़ा कहॉं होगा! वैसे भी होली समाज की जड़ता और ठहराव को तोड़ने का त्योहार है। उदास मनुष्य को गतिमान करने के लिए राग और रंग ज़रूरी है—होली में दोनों हैं। यह सामूहिक उल्लास का त्योहार है। परंपरागत और समृद्ध समाज ही होली खेल और खिला सकता है। रूखे, बनावटी आभिजात्य को ओढ़नेवाला समाज और सांस्कृतिक लिहाज से दरिद्र व्यक्ति होली नहीं खेल सकता। वह इस आनंद का भागी नहीं बन सकता। साल भर के बंधनों, कुंठा और भीतर जमी भावनाओं को खोलने का ‘सेफ्टी वॉल्व’ है होली।
पिछले पचीस बरस से मैं होली के बहाने मित्रों को इकट्ठा करता हूँ। बनारस में था तो घर में रंगभरी होती थी। लखनऊ आया तो वहॉं भी हर बरस रंगभरी का सिलसिला टूटा नहीं। लखनऊ में भी खानपान और संगीत बनारस का ही होता था। पं छन्नूलाल मिश्र सहित कई गायक इस जमावड़े में गा चुके हैं। जब दिल्ली आया तो यहाँ उस आत्मीयता की जड़ें सूखी मिलीं जो बनारस या लखनऊ में मिलती थीं। मेरे लिए ये एक सांस्कृतिक झटका था। मगर मेरा आयोजन जारी रहा। एकाध बार व्यस्तता और एक साल कोरोना के कारण सिलसिला टूटा। रंगभरी के आयोजन का समय बदला, पर स्वाद नहीं। Supriyo Proshad और मित्र राजीव शुक्ला मुझे इस पार्टी की पूरे साल याद दिलाते रहते हैं। कोरोना के सदमे के बाद इस बार सब जमा थे। पुरानी पीढ़ी से लेकर नई पीढ़ी तक। प्रिंट और टीवी पत्रकारिता का पूरा विमर्श इस सांस्कृतिक उत्सव में मौजूद था। हमारी संस्कृति में उत्सव कलाओं को शोकेस करते हैं। सो होरी भी गाई गई और लोकगीतों के मोती भी बिखरे। पद्मभूषण साजन मिश्र, उनके प्रतिभाशाली बेटे स्वरांश मिश्र, महाकवि डॉ. कुमार विश्वास, पद्मश्री मालिनी अवस्थी, और शास्त्रीय गायिका विद्या शाह ने मिलकर इस उत्सव लोक को जीवन में उतार दिया।
अगर आप वसंत की इस उत्सवी परम्परा को आत्मसात् नहीं करते तो आप समाज के मांगल्य को चुनौती देते हैं। आप इसका स्वागत करिये या न करिये यह आपकी जान नहीं छोड़ेगा। वसंत का यह माहौल किसी को नहीं छोड़ता, चर अचर, जलचर, नभचर, सब को लपेटता है।
पूरे प्रकृति को तहस नहस करता है। ऋषि मुनि भी इसके चपेटे में आ गए। इस मस्ती को जितना दबाएँगे उतना ही विस्तार होगा। क्योंकि यह कामदेव का सखा बसन्त। बिहारी कह गए हैं “तंत्री नाद कवित्त रस सरस राग रति रंग, अनबूडे बूडे, तिरे ज्यों बूडे सब अंग”। इसलिए तनाव छोड़िए, उन्मुक्त होईए, अपने मन और मिज़ाज को स्वच्छन्द कीजिए, समष्टि का आलिंगन कीजिए। ज्यों बूडे सब अंग, यही कहती है रंगभरी।
रंगभरी एकादशी के मूल में उत्सव की परंपरा है सो आयोजन के हर पहलू को परंपराओं से लबालब होना चाहिए। कोशिश रही कि एक दिन के लिए सही, बनारस के जायके को दिल्ली की जुबान पर लाया जाए। सो पार्टी में बनारस के दीना की मशहूर चाट से लेकर पाठकजी की पंचरतनी तक सब मौजूद था। ठण्डाई को ही पंचरतनी कहते हैं। वजह इसमें पॉंच भयंकर चीजें मिलाई जाती हैं। पंचरतनी में भॉंग, काली मिर्च, तूतिया, धतूरा, शंखिया जैसे पाँच प्रचण्ड अवयव होते हैं। पारम्परिक ठण्डाई में पॉंच वेजेटेबिल लौकी, खीरा, खरबूज, तरबूज़ और कोहड़े के बीज भी होते हैं। इन पंचरतनों के साथ ठंडाई का मूल आनंद मिले इसलिए मैंने बनारस से ठंडाई वालों को बुलाया था। सैकड़ों बरस से जिनका यह पुश्तैनी काम है। बनारसी ठसक कायम रखने के लिए ये ठंडाई वाले कोल्डचेन में सुरक्षित दूध और मलाई भी बनारस से ही लाए थे। ठंडाई और भांग का एक अद्भूत आपसी मेल है। भॉंग की तासीर को ठंडा करने के लिए ठंडाई की खोज हुयी। इसकी भी एक कथा है। जब समुद्र मंथन हुआ तो उसमें से निकला विष भगवान शिव ने पीकर अपने गले में धारण कर लिया था। हलाहल विष से उन्हें बहुत गर्मी लगने लगी शरीर नीला पड़ना शुरू हो गया। फिर भी शिव पूर्णतः शांत थे तब देवताओं और वैद्य शिरोमणि अश्विनी कुमारों ने भगवान शिव की तपन को शांत करने के लिए उन्हें जल चढ़ाया और विष का प्रभाव कम करने के लिए विजया (भांग का पौधा), बेलपत्र और धतूरे को दूध में मिलाकर (ठंडाई) भगवान शिव को औषधि रूप में पिलाया। इससे वे विष की गर्मी भी झेल गए थे। तभी से ठंडाई में भांग मिलाकर शिव को भोग लगाते हैं। तभी तो रंगभरी के उत्सव में आए सबने छक कर पी।
रंगभरी के प्रचण्ड आयोजन में विजया, पंचरतनी, मुनक्का, षडरस, रसरंजन का चौचक इंतज़ाम था। लोगों ने इस स्वाद का झमाझम आनन्द भी लिया। हमारी परम्परा में चाट षड रसों का घनीभूत स्वाद है। षड-रस में मधुर, अम्ल, लवण, कटु, तिक्त, कषाय समेत समस्त प्रकार के रस विद्यमान थे। कोई भी भोजन हो, इन छहों रसों की उपस्थिति होनी चाहिए। चाट के साथ ‘रसरंजन’ का भी इंतजाम था। कॉकटेल के लिए रसरंजन नाम नामवर जी के परामर्श से स्वर्गीय डीपी त्रिपाठी ने गढ़ा था। ’रसरंजन’ हिन्दी साहित्य में डीपी त्रिपाठी का अवदान है। वे इस आयोजन के स्थायी भाव होते थे। उनकी बहुत याद आई। खानपान की इस परंपरा का एक सनातन विमर्श भी है। शिव को भंग पसंद है। वे हमेशा उसकी तरंग में रहते हैं। इसलिए बिना भंग कैसी रंगभरी। तभी तो भारतीय वॉंग्मय में भॉंग का दूसरा नाम शिव प्रिया और विजया भी है। शिवजी को प्रिय भांग औषधीय गुणों से भरी पड़ी है। अंग्रेज़ी में इसे कैनाबीस, बीड कहते हैं। जिसमें टेट्राहाइड्रोकार्बनबिनोल पाया जाता है। आयुर्वेद के अनुसार कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, मैंगनीज, विटामिन ई, मैग्नीशिम एवं फास्फोरस समेत कई पोषक तत्व होते हैं। इसे सही मात्रा में लेने से कोलेस्ट्रॉल नियंत्रित रहता है। क्योंकि भॉंग खून को प्यूरिफाई करने का काम करता है। ऋग्वेद और अथर्ववेद दोनों में इसका ज़िक्र है।
अथर्ववेद में जिन पांच पेड़-पौधों को सबसे पवित्र माना गया है उनमें भांग का पौधा भी शामिल है। इसे मुक्ति, खुशी और करुणा का स्रोत माना जाता है। इसके मुताबिक भांग की पत्तियों में देवता निवास करते हैं। अथर्ववेद इसे ‘प्रसन्नता देने वाले’ और ‘मुक्तिकारी’ वनस्पति का दर्जा देता है -
पञ्च राज्यानि वीरुधां सोमश्रेष्ठानि ब्रूमः।
दर्भो भङ्गो यवः सह ते नो मुञ्चन्त्व् अंहसः॥
पॉंच पौधों में सोम श्रेष्ठ है. ऐसी औषधियों के पांच राज्य, दर्भ, (भङ्ग) भांग, (यवः) जौ और (महः) बलशाली धानको (ब्रूमः) हम कहते हैं कि वे हम सबको पापसे बचावे। कहते हैं भांग और धतूरे के सेवन से ही भगवान शिव हलाहल विष के प्रभाव से मुक्त हुए थे। इसलिए शंकर को भांग पसंद है।
होली, ठंडाई, और बनारस… ये महज तीन शब्द नहीं, बल्कि जीवन जीने की कला हैं। इसमें कला भी है, साहित्य भी, विज्ञान और अध्यात्म भी। यहां बरसों से आबाद ठंडाई की दुकानें सत्ता-साहित्य से जुड़े लोगों का अड्डा रही हैं। जयशंकर प्रसाद और रूद्र जी तो बिना भांग की तरंग के सृजन के आयाम ही नहीं खोलते थे। बनारस का मुनक्का प्रसिद्ध है। मुनक्का का सेवन स्वास्थ्यवर्धक होता है। मुनक्के में काजू, किसमिस, पिस्ता, बादाम का पेस्ट और उसी अनुपात में भॉंग होती है। बहुत ही स्वादिष्ट। भॉंग का भाषा की शुद्धता से भी कोई रिश्ता है क्योंकि हिन्दी का पहला व्याकरण लिखने वाले कामता प्रसाद गुरु, संस्कृतनिष्ठ हिन्दी के प्रवर्तक महाकवि जयशंकर प्रसाद, कथाकार रूद्र काशिकेय, महाप्राण निराला और अपने संपादक राहुलदेव जी सभी को भांग पसंद है।
होली प्रेम की वह रसधारा है, जिसमें समाज भीगता है। ऐसा उत्सव है, जो हमारे भीतर के कलुष को धोता है। होली में राग, रंग, हँसी, ठिठोली, लय, चुहल, आनंद और मस्ती है।
इस त्योहार से सामाजिक विषमताएँ टूटती हैं, वर्जनाओं से मुक्ति का अहसास होता है, जहाँ न कोई बड़ा है, न छोटा; न स्त्री न पुरुष; न बैरी, न शत्रु। इस पर्व में व्यक्ति और समाज राग और द्वेष भुलाकर एकाकार होते हैं। किसी एक देवता पर केंद्रित न होकर इस पर्व में सामूहिक रूप से समाज के भीतर देवत्व के गुणों की पहचान होती है। इसीलिए हमारे पुरखों ने होली जैसा त्योहार विकसित किया।
हमारी परम्परा में पर्वों के महत्त्व को समझने का मतलब ऋतु परिवर्तन के महत्त्व को समझना है। बसंत के स्वभाव और प्रकृति के हिसाब से उसका असली त्योहार होली ही है। बसंत प्रकृति की होली है और होली समाज की। होली समाज की उदासी दूर करती है। होली पुराने साल की विदाई और नए साल के आने का भी उत्सव है। यह मलिनताओं के दहन का दिन है। अपनी झूठी शान, अहंकार और श्रेष्ठता बोध को समाज के सामने प्रवाहित करने का मौक़ा है। तमस को जलाने का अनुष्ठान है। वैमनस्य को खाक करने का अवसर है।
होली में हमें बनारस का अपना मुहल्ला याद आता है। महानगरों से बाहर निकले तो गाँव, कस्बों और मुहल्ले में ही फाग का राग गहरा होता था। मेरे बचपन में मोहल्ले के साथी घर-घर जा गोइंठी (उपले) माँगते थे। जहाँ माँगने पर न मिलती तो उसके घर के बाहर गाली गाने का कार्यक्रम शुरू हो जाता। मोहल्ले में इक्का-दुक्का घर ऐसे ज़रूर होते थे, जिन्हें खूब गालियाँ पड़तीं। जिस मोहल्ले की होलिका की लपट जितनी ऊँची उठती, उतनी ही उसकी प्रतिष्ठा होती। फिर दूसरे रोज गहरी छनती। होलिका की राख उड़ाई जाती। मेरे पड़ोसी ज़्यादातर यादव और मुसलमान थे, पर होली के होलियारे में संप्रदाय कभी आड़े नहीं आता था। सब साथ-साथ इस हुड़दंग में शामिल होते। अनवर भाई भी वैसे ही फाग खेलते जैसे पं. गिरधर गोपाल। जाति, वर्ग और संप्रदाय का गर्व इस मौक़े पर ख़र्च हो जाता।
हमारा साहित्य और संगीत दोनों होली वर्णन से पटे पड़े हैं। उत्सवों-त्योहारों में होली ही एकमात्र ऐसा पर्व है, जिस पर साहित्य में सर्वाधिक लिखा गया है। पौराणिक आख्यान हो या आदिकाल से लेकर आधुनिक साहित्य, हर तरफ कृष्ण की ‘ब्रज होरी’ रघुवीरा की ‘अवध होरी’ और शिव की ‘मसान होली’ का ज़िक्र है। राग और रंग होली के दो प्रमुख अंग हैं। सात रंगों के अलावा, सात सुरों की झनकार इसके हुलास को बढ़ाती है। गीत, फाग, होरी, धमार, रसिया, कबीर, जोगिरा, ध्रुपद, छोटे-बड़े खयालवाली ठुमरी, होली को रसमय बनाती है। उधर नजीर से लेकर नए दौर के शायरों तक की शायरी में होली के रंग मिल जाते हैं। नजीर अकबराबादी होली से अभिभूत हैं—‘जब फागुन रंग झमकते हों, तब देख बहारें होली की जब डफ के शोर खड़कते हों, तब देख बहारें होली की।’
वैदिक काल में इस पर्व को नवान्नेष्टि कहा गया, जिसमें अधपके अन्न का हवन कर प्रसाद बाँटने का विधान है। मनु का जन्म भी इसी रोज हुआ था। अकबर और जोधाबाई तथा शाहजहाँ और नूरजहाँ के बीच भी होली खेलने का वृत्तांत मिलता है। यह सिलसिला अवध के नबावों तक चला। वाजिद अली शाह टेसू के रंगों से भरी पिचकारी से होली खेला करते थे।
बौद्ध साहित्य के मुताबिक एक दफा श्रावस्ती में होली का ऐसा हुड़दंग था कि गौतम बुद्ध सात रोज तक शहर में न जा बाहर ही बैठे रहे। परंपरागत होली टेसू के उबले पानी से होती थी। सुगंध से भरे लाल और पीले रंग बनते थे। अब इसकी जगह गोबर और कीचड़ ने ले ली है। हम कहाँ से चले थे, कहाँ पहुँच गए? सिर चकरानेवाले कैमिकल से बने गुलाल, चमड़ी जलानेवाले रंग, आँख फोड़नेवाले पेंट, इनसे बनी है आज की होली।
साहित्य में होली हर काल में रही है। सूरदास, रहीम, रसखान, मीरा, कबीर, बिहारी हर कहीं होली है। होली का एक और साहित्य है—हास्य व्यंग्य का। बनारस, इलाहाबाद और लखनऊ की साहित्य परंपरा इससे अछूती नहीं है। इन हास्य गोष्ठियों की जगह अब गाली-गलौजवाले सम्मेलनों ने ले ली है। जहाँ सत्ता प्रतिष्ठान पर तीखी टिप्पणी होती है। हालाँकि ये सम्मेलन अश्लीलता की सीमा लाँघते हैं, लेकिन चोट कुरीतियों पर करते हैं।
होली सिर्फ उऋंखलता का उत्सव नहीं है। वह व्यक्ति और समाज को साधने की भी शिक्षा देता है यह सामाजिक विषमताओं को दूर करने का भी त्योहार है। बच्चन कहते हैं—‘भाव, विचार, तरंग अलग है, ढाल अलग है, ढंग अलग, आजादी है, जिसको चाहो आज उसे वर लो। होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर लो।’ फागुन में बूढ़े बाबा भी देवर लगते थे। वक्त बदला है! आज देवर भी बिना उम्र के बूढ़ा हो शराफत का उपदेश देता है। अब न भीतर रंग है न बाहर। होली मेरे बालकों का कौतुक है या मयखाने का खुमार। कहाँ गया वह हुलास, वह आनंद और वह जोगिरा सा रा रा रा! कहाँ बिला गई है फागुन की मस्ती! इसे खोजने की कोशिश कर रहा हूँ। रंगभरी एकादशी के इस उत्सव के बहाने एक बार फिर से इसी बिछड़ी हुई विरासत से मुलाकात हुई। प्रेम बढ़ा। अपनापा गहराया। परंपराएँ मिलीं। संस्कार खिले। स्मृतियों के गलियारे से फिर बसंत उतरा। इसी उम्मीद के साथ फिर अगले साल।
आप सबको होली की फाल्गुनी शुभकामनाएं।
पुनश्च: यह पोस्ट मैंने भाँग की तरंग में लिखी है।
(हेमंत शर्मा की फ़ेसबुक वाल से साभार)