7 नवंबर 1920 की बात है, काँग्रेस नेता लाला लाजपत राय मजदूरों की दशा पर बोल रहे थे। उन्होंने कहा कि “संगठित पूंजी ने भारत का रक्त चूस लिया है। आज भारत संगठित पूंजी के नीचे बेहाल पड़ा है।” लाला जी पहले नेता थे जिन्होंने पूंजीवाद और साम्राज्यवाद को एकसाथ जोड़कर देखा था। हो सकता है आज स्वतंत्र भारत के परिप्रेक्ष्य में आजादी के 77 साल बाद ‘साम्राज्यवाद’ शब्द सुनकर कुछ लोगों को अपच हो जाए, लेकिन जिस तरह हरियाणा के मानेसर में ई-कॉमर्स कंपनी अमेज़न में कर्मचारियों के शोषण का मामला सामने आया है उससे लाला जी की चिंता आधुनिक भारत में फिर से जीवित हो उठी है।
अमेज़न के गोदाम (वेयरहाउस) में जो हो रहा है उससे तो लग रहा है कि निवेशक पूंजी की ताकत की आड़ में, और सरकार, निवेश की चाह में भारतीय कर्मचारियों के शोषण को वैधता प्रदान करने में लगे हैं।
अमेज़न वेयरहाउस में कर्मचारियों की दो तरह की टीमें काम करती हैं। एक ‘आउटबाउन्ड टीम’ और दूसरी ‘इनबाउन्ड टीम’। पहली टीम का काम है वेयरहाउस से पैकेट लदी गाड़ियों को बाहर निकालना और दूसरी टीम का काम है वेयरहाउस में आने वाले सामानों को प्राप्त करना। इस जगह पर कार्य करने वाले कर्मचारियों के लिए यह एक नियमित कार्य है, उन्हे यहाँ लगभग 10 घंटे प्रतिदिन कार्य करना होता है। लेकिन बात सिर्फ इतनी ही नहीं है। 14 जून को इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक रिपोर्ट ने पूरे देश को हिला कर रख दिया। अमेज़न के इन गोदामों में कार्य और ‘टारगेट’ के नाम पर अमानवीय परिस्थितियाँ पैदा कर दी गई हैं। रिपोर्ट के अनुसार, अमेज़न के एक कर्मचारी ने बताया कि उन्हे ऐसी ‘शपथ’ दिलाई जाती है कि जब तक टारगेट पूरा नहीं होगा तब तक न ही टॉयलेट जाना है और न ही पानी पीना है। 50 डिग्री तापमान में कर्मचारियों को घंटों तक पानी और टॉयलेट नहीं जाने देना कौन सा आर्थिक मॉडल है?
कर्मचारियों को ऐसे टारगेट दिए जाते हैं जिन्हे पूरा करना लगभग असंभव होता है। एक कर्मचारी ने बताया कि अगर वो दिन में एक भी ब्रेक न लें(लंच और चाय ब्रेक) तब भी 4 गाड़ियों से ज्यादा के सामान को नहीं उतारा जा सकता। लेकिन उन्हे शपथ 6 गाड़ियों के सामान को उतारने की दिलाई जाती है और इस बीच न ही पानी पिया जा सकता है और न ही टॉयलेट जाया जा सकता है। स्वाभाविक रूप से इन अमानवीय परिस्थितियों में सबसे ज्यादा महिला कर्मचारी प्रभावित होती हैं। एक महिला कर्मचारी ने एक्सप्रेस को बताया कि “अगर हम अच्छा नहीं महसूस कर रहे हैं तो हमारे पास या तो वाशरूम जाने का विकल्प होता है या फिर लॉकर रूम! रेस्टरूम जैसी कोई व्यवस्था नहीं है। एक सिकरूम जरूर है जिसमें एक बेड पड़ा हुआ है, वहाँ जाने पर हमें 10 मिनट बाद ही बाहर निकलने को बोला जाता है”।
जरा सोच कर देखिए महिलायें न जाने कितनी सामाजिक लड़ाइयों के बाद अब नौकरी कर पा रही हैं साथ ही न जाने कितनी व्यक्तिगत समस्याओं से गुजरती हैं, ऐसे में उन्हे इन अमानवीय परिस्थितियों में नौकरी करने के लिए बाध्य करना हिंसा नहीं तो और क्या है।
कोई कंपनी किसी कर्मचारी को पानी पीने से रोक दे, उसे वॉशरूम तक नहीं जाने दे, और प्रशासन को इस बात की खबर तक नहीं। यदि इतने सामान्य मानवाधिकारों का ही पालन इतना असंभव बना दिया जा रहा है, तब तो किसी अन्य लाभ की तो आशा ही नहीं की जा सकती। अरबों डॉलर कमाने वाली ये अमेजन कंपनी भारतीय नागरिकों को ‘फोकट’ की चीज समझ रही है? इतनी मेहनत वाले काम के लिए, हर दिन दस घंटे तक कर्मचारियों के जीवन को इस तरह चूसने के बाद सैलरी के नाम पर महज 10 हजार रुपये?
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यदि कंपनियां कर्मचारियों का इस तरह शोषण करती हैं और वो चाहती है कि कम से कम सैलरी में ज्यादा से ज्यादा मुनाफा पा जाएं, ऐसे में देश की सरकार का क्या दायित्व है?
देश का श्रम मंत्रालय क्या कर रहा है? उस क्षेत्र का श्रम इन्स्पेक्टर क्या कर रहा है? खुलेआम कानूनों को तोड़ा जा रहा है और अधिकारी खामोश हैं। फैक्ट्री ऐक्ट 1948 स्पष्ट रूप से कहता है कि- किसी भी कर्मचारी को बिना ब्रेक के लगातार 5 घंटे से अधिक कार्य नहीं करवाया जा सकता है। ऐसे में कोई कंपनी तथाकथित मजबूत सरकार के रहते कानूनों की इस तरह धज्जियां कैसे उड़ा दे रही है? शिकायत तो यह भी है कि मानेसर के वेयरहाउस में कर्मचारियों के बैठने की भी उचित व्यवस्था नहीं की गई है। यह फैक्ट्री ऐक्ट का उल्लंघन है और यदि वहाँ का श्रम इन्स्पेक्टर चाहे तो स्थितियाँ बेहतर की जा सकती हैं, लेकिन ऐसा नहीं हुआ है इसका मतलब है कि प्रशासन कंपनी के साथ मिलकर कर्मचारियों के शोषण में भागीदार बना हुआ है।
भारत के संविधान ने ‘श्रम’ को 7वीं अनुसूची के तहत इसे समवर्ती सूची में रखा है। इसका मतलब ही है कि यदि राज्य सक्षम श्रम कानून नहीं बना पा रहा है तो केंद्र को कर्मचारियों के बचाव में आना चाहिए।
अमेज़न इंडिया के अधिकारी इन आरोपों को नकार रहे हैं और मानने को तैयार नहीं हैं कि उनके वेयरहाउस में अमानवीय परिस्थितियों में काम लिया जा रहा है। लेकिन ऐसा नहीं है कि अमेज़न पर ऐसे आरोप पहली बार लग रहे हैं। अमेज़न को पहले भी अन्य देशों में इस तरह के आरोपों का सामना करना पड़ा है। व्यावसायिक सुरक्षा और स्वास्थ्य प्रशासन (OSHA) संयुक्त राज्य अमेरिका के श्रम विभाग की एक विनियामक एजेंसी है, मूल रूप से इसके पास ही कार्यस्थलों का निरीक्षण और जांच करने की केन्द्रीय शक्ति है।
OSHA ने 2022 और 2023 में अमेज़न में असुरक्षित कार्य स्थितियों को चिह्नित किया था। यह भी पाया गया था कि कर्मचारियों को गंभीर चोटें लग जाने के बावजूद उनका सही से इलाज नहीं कराया गया था।
अमेज़न अपने कार्यस्थल पर अपने कर्मचारियों को लेकर कितना सजग है उसे इस रिपोर्ट से समझा जा सकता है। OSHA की ही एक रिपोर्ट के अनुसार, 2021 में, अमेज़न के गोदामों में प्रति 100 कर्मचारियों पर चोटों की दर 7.7 थी, जबकि अन्य सभी गोदामों में यह दर प्रति 100 कर्मचारियों पर 4.0 थी। वहीं गंभीर चोट के मामले में अमेज़न में यह दर प्रति 100 कर्मचारियों पर 6.8 थी, जबकि अन्य सभी गोदामों में यह दर प्रति 100 कर्मचारियों पर 3.3 थी। यह आंकड़ा इस बात की पुष्टि करता है कि अमेज़न अपने कर्मचारियों की सुरक्षा को लेकर बेहद लापरवाह कंपनी है, अमेज़न में सुरक्षा उपायों पर पर्याप्त खर्च नहीं किया जाता और यह भी कि-
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अमेज़न के लिए कंपनी का ‘टारगेट’ इंसानों की जिंदगी से जरूरी चीज है।
अमेज़न को लेकर जिस किस्म की अमानवीय शिकायतें आ रही हैं उसको देखकर लगता है कि यह कंपनी आज़ाद भारत के फैक्ट्री ऐक्ट-1948 को तो छोड़िए उपनिवेशकाल के फैक्ट्री अधिनियमों का अनुपालन भी नहीं कर सकती है। फैक्ट्री ऐक्ट-1891 के ही प्रावधान देखिए- यह कानून महिला कर्मचारियों को ध्यान में रखकर लाया गया था। इसके अनुसार महिलाओं को प्रतिदिन कम से कम डेढ़ घंटे का ब्रेक देना आवश्यक था। इसके बाद 1911 में आए फैक्ट्री ऐक्ट ने यह व्यवस्था दी कि किसी भी वयस्क पुरुष से किसी भी हालत में 12 घंटे से अधिक काम नहीं कराया जा सकता है, और जबरदस्ती तो बिल्कुल भी नहीं कराया जा सकता, साथ ही कानूनन सभी वयस्क पुरुष हर 6 घंटे के बाद एक आधे घंटे के ब्रेक के अधिकारी होंगे।
और आज आजाद भारत में, तथाकथित मजबूत और डबल इंजन सरकारों के दौर में एक विदेशी कंपनी भारतीय महिलाओं का शोषण करने पर आमादा है। महिलाओं और पुरुषों को उनकी अनैच्छिक क्रियाओं को रोकने के लिए बाध्य किया जा रहा है। ‘शपथ’ और ‘टारगेट’ के नाम पर एक अमानवीय कार्यक्षेत्र का निर्माण कर दिया गया है जहां इंसान का मूल्य अमेज़न के द्वारा डिलीवर किए जाने वाले उत्पादों को ध्यान में रखकर तय किया जा रहा है। कंपनी की इस नीति से सर्विस का स्तर भी गिरता जा रहा है।
टारगेट आधारित कर्मचारी, थकान में गलत उत्पादों को पैक करने में लगा है, कहीं मोबाईल की जगह साबुन मिल रहे हैं तो कहीं पकी हुई लाल ईंट! एक तरफ ग्राहक परेशान है, आर्थिक नुकसान झेल रहा है तो दूसरी तरफ कर्मचारी थकान और शोषण महसूस कर रहा है। सरकारें खामोश हैं और यहाँ से कई हजार किमी दूर बैठा कंपनी का सीईओ अरबों रुपये कमा रहा है। सवाल यह है कि क्या केंद्र सरकार और उसका श्रम मंत्रालय इस शोषण को रोकने के लिए कोई ठोस उपाय करेंगे? या आज के भारत में पूंजी और निवेश का लालच दिखाकर कोई भी कंपनी भारतीय नागरिकों के अधिकारों और सामान्य मानवाधिकारों का हनन करना जारी रखेगा?
(स्तंभकार वंदिता मिश्रा जानी-मानी वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में कार्यरत हैं)