दिल्ली में जब मुख्य चुनाव अधिकारी की प्रेसवार्ता चल रही थी उस वक़्त लगभग ढाई हज़ार किलोमीटर दूर देश के दक्षिणी राज्य तमिलनाडु की सरकार बहुत व्यस्त और जल्दी में थी। चुनाव के मॉडल कोड ऑफ़ कंडक्ट के लागू होने के महज आधे घंटे पहले तमिलनाडु की अन्नाद्रमुक सरकार ने वन्नियार समुदाय को स्पेशल 10.5 प्रतिशत कोटा देने का बिल पास कर दिया। कल ही छह तोले तक के सोने के कर्ज को भी माफ़ी दे दी गयी। एक दिन पहले प्रदेश के सरकारी कर्मचारियों का कार्यकाल एक साल और बढ़ा दिया गया।
पिछले दिनों किसानों के 12000 करोड़ से ज़्यादा की कर्ज माफ़ी, कई अन्य अनुदान, सरकारी स्कूल के छात्रों को 7.5 प्रतिशत मेडिकल सीट में कोटा, उससे पहले... यह लिस्ट बहुत लम्बी है और तमिलनाडु की राजनीति जो फ़्रीबीस के लिए काफ़ी नामचीन है उसे आदत है चुनाव से पहले इस तरह के उपहारों की। 1967 में द्रमुक संस्थापक अन्नादुरै के 4.5 किलो चावल एक रुपये में देने से शुरू हुआ यह सिलसिला टीवी, साइकिल, लैपटॉप, मिक्सी, कैश उपहार आदि में बदलता रहा है और दोनों द्रविड़ दल इस मामले में कड़ी प्रतिस्पर्धा में रहे हैं।
प्रदेश की विधानसभा का चुनाव 6 अप्रैल 2021 को होना है। सवाल यह उठता है कि क्या इन सरकारी योजनाओं और ऋण माफ़ी के ज़रिये मुख्यमंत्री ईडाप्पड़ी अपनी कुर्सी बचा पाएँगे? 2016 में जब जयललिता लगातार दोबारा मुख्यमंत्री बनी थीं तब द्रमुक और अन्नाद्रमुक दो दलों की राजनीति के बीच झूलते तमिलनाडु की द्रविड़ राजनीति में नया अध्याय जुड़ा था और 1984 के बाद पहली बार कोई दल प्रदेश में लगातार दोबारा सत्तारूढ़ हो पाया था। इसकी मुख्य वजह जयललिता की अपनी लोकप्रियता और उनके द्वारा शुरू की गयी अम्मा कैंटीन, अम्मा पानी, दवाई और सीमेंट जैसी जनवादी योजनाएँ मानी गई थीं। जिनके चलते आय से ज़्यादा संपत्ति का मामला न्यायालय में अंतिम चरण में होने के बावजूद प्रदेश की जनता ने उनपर भरोसा दिखाया।
क्या ईडाप्पड़ी पलानीसामी जिनको अपनी पार्टी ने अभी हाल में सर्वसम्मति से अपना नेता मानना शुरू किया है प्रदेश की जनता का भरोसा जीत पाएँगे? यदि लोकसभा के हाल के नतीजे देखें तो ऐसा नहीं लगता। 2019 के लोकसभा चुनाव में द्रुमुक ने 39 में से 38 सीट जीतकर प्रदेश में बदलाव के संकेत दिए थे। हालाँकि लोकसभा चुनाव के बाद ईडाप्पड़ी पलानीसामी सरकार जिसके बारे में जयललिता की मृत्यु और शशिकला के जेल जाने के बाद यह कयास लग रहे थे कि सरकार कितने दिन चल पाएगी, उसने अपना अस्तित्व ख़तरे में पड़ते देख मेहनत मशक्कत की और पहले मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री पन्नीरसिलवन के बीच के विवाद को सुलझाया और फिर वे एक जुट होकर प्रदेश में लोकभावन योजनाओं का ट्राइड एंड टेस्टेड फॉर्मूला अपनाने में जुट गए।
यह पहला विधानसभा चुनाव है जब द्रविड़ राजनीति के चिर-परिचित दिग्गज करूणानिधि और जयललिता मैदान में नहीं हैं लेकिन इसका असर द्रमुक की तैयारियों और मेहनत पर नहीं पड़ता दिखता।
बड़े भाई अलागिरी के पार्टी से निष्कासन और द्रमुक नेता करूणानिधि द्वारा उत्तराधिकारी घोषित करने के बाद स्टालिन के नेतृत्व को पार्टी में किसी तरह की कोई चुनौती नहीं थी। 2019 के लोकसभा चुनाव उनके लिये बड़ा टेस्ट था। पर ज़बर्दस्त प्रदर्शन ने उनको पूरी तरह से पार्टी में स्थापित कर दिया। फिर 2021 विधानसभा चुनाव उनके लिये कड़े इम्तिहान की घड़ी है। वे इस तैयारी में पिछले चार सालों से जुटे हैं।
लोकसभा चुनावों में अच्छे प्रदर्शन के बाद द्रमुक के सहयोगी दल वे चाहे कांग्रेस हो या एमडीएमके हो या वीसीके, किसी ने ना नुकुर नहीं की और सीट बँटवारे को स्वीकार कर लिया। कुछ जगहों पर ये दल द्रमुक के चुनाव चिन्ह उगते सूरज पर चुनाव लड़ने के लिए भी तैयार दिख रहे हैं।
2016 की 234 विधानसभा सीट पर अन्नाद्रमुक को 136, द्रमुक 89, कांग्रेस 8, और द्रमुक की सहयोगी आईयूएमएल को एक सीट मिली थी। उपचुनाव में द्रमुक ने 8 सीटें और हासिल कर लीं और इस समय उनके 97 सदस्य विधानसभा में हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में द्रमुक के सत्ता से बाहर रहने का मुख्य कारण कांग्रेस को माना गया था। 2011 के विधानसभा चुनाव में सीट बँटवारे में कांग्रेस 63 सीटों पर लड़ी लेकिन सिर्फ़ 5 पर विजयी रही, तब द्रमुक 119 में से महज 23 पर जीती लेकिन 2016 में द्रमुक 178 सीटों में से 89 पर जीती जबकि कांग्रेस 41 में से 8 सीटें ही निकाल पाई थी। इस बार द्रमुक ने घोषणा की है कि वे लगभग 190 सीटों पर अपने चुनाव चिन्ह पर लड़ेंगे। जाहिर है सबसे बड़े सहयोगी दल कांग्रेस को लगभग 20 सीटें मिलेंगी और बाक़ी के दल बाक़ी की सीटों को शेयर करेंगे।
स्टालिन की ग्राम सभाओं में उमड़ती भीड़ को यदि मानक माना जाए तो विपक्ष ज़्यादा मज़बूत नज़र आता है। भारतीय जनता पार्टी जो सत्तारूढ़ अन्नाद्रमुक साथ होने के बावजूद अपना स्थान बनाने की कोशिश में जुटी है, बहुत सफल वह नहीं दिखती। रजनीकांत के राजनीति में आने या बीजेपी को समर्थन देने की बातें अभी तक सिर्फ़ बातें ही हैं। प्रधानमंत्री की कोयंबटूर रैली में कांग्रेसी नेता कामराज का कटआउट यह इशारा करता है कि बीजेपी का प्रदेश नेतृत्व तमिलनाडु की हक़ीक़त को नहीं झुठला पा रहा है जहाँ तमिल भाषा और तमिल पहचान बीजेपी के एक राष्ट्र, एक भाषा और एक धर्म की थ्योरी के विपरीत बैठती है। कमल हासन शहरों में भीड़ ज़रूर जुटा रहे हैं लेकिन अभिनेता को देखने आने वालों की संख्या वोट में तब्दील होगी, यह लाख टके का सवाल है। अंततः ऐसे में तमिलनाडु में चुनावी घमासान सिर्फ द्रमुक और अन्नाद्रुमक के बीच है।
प्रदेश में वन्नियार समुदाय की क़रीब 10 प्रतिशत आबादी है। चुनाव संहिता जारी होने से ठीक पहले मोस्टबैकवर्ड समुदाय में स्पेशल 10.5 प्रतिशत कोटा वन्नियार समुदाय को देने का बिल पास करके मुख्यमंत्री ईडाप्पड़ी ने वन्नियारों का प्रतिनिधत्व कर रहे अपने सहयोगी पीएमके की पुरानी मांग ही नहीं मानी बल्कि उत्तरी ज़िलों में समीकरण बदलने की कोशिश भी की है जहाँ वन्नियार और दलितों का बाहुल्य है।
पश्चिमी तमिलनाडु जिसमें कोयंबटूर, निलगिरि, तिरुपुर, धर्मपुरी, इरोड, कृष्णगिरी, नाम्माक्कल और सेलम शामिल हैं पिछले एक-डेढ़ दशक से अन्नाद्रुमक के साथ हैं। यहाँ गौंडर समुदाय का बोलबाला है।
पश्चिमी तमिलनाडु की 72 सीटों में से 54 पर गौंडर समुदाय की प्रमुखता है और मुख्यमंत्री भी गौंडर समुदाय से हैं। जयललिता के बाद गौंडर समुदाय का अन्नाद्रमुक में वर्चस्व बढ़ा है और अन्नाद्रमुक यहाँ पर आश्वस्त दिखती है। इसी के मद्देनज़र स्टालिन हर दूसरे सप्ताह यहाँ दिखाई देते थे। यह इलाक़ा मुख्यतः औद्योगिक है और एक दशक पहले द्रुमुक सरकार के दौरान हुई बिजली की कमी से इस व्यवसाय को नुक़सान हुआ था।
प्रदेश की नई सरकार बनाने में मदद करेंगे मध्य और दक्षिणी तमिलनाडु के इलाक़े। जहाँ मध्य तमिलनाडु का किसान बहुल इलाक़ा परम्परागत रूप से द्रमुक समर्थक माना जाता है लेकिन किसानों की ऋण माफ़ी तथा दूसरी वेल्फेयर योजनाओं के चलते अन्नाद्रमुक को भी यहाँ उम्मीदें हैं। अन्नाद्रमुक को दक्षिणी ज़िलों- कन्याकुमारी, तूतीकोरिन और तिरुनेलवेली जैसे अल्पसंख्यक बहुल इलाक़ों में बीजेपी के साथ की वजह से परेशानी हो सकती है।