पिछली कड़ी में मैंने बताया था कि वे कौनसे राजनीतिक कारण हैं जो इस बार के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में बीजेपी की मदद कर सकते हैं और उसे राज्य में पहली बार सत्ता दिला सकते हैं (पढ़ने के लिए यहाँ टैप/क्लिक करें)। लेकिन साथ में मैंने यह भी कहा था कि राज्य में आम धारणा यही है कि तृणमूल ही वापस सत्ता में आएगी। पुलिस और मीडिया की भी यही राय है। आज हम जानेंगे कि वे कौनसी शक्तियाँ हैं जो तूफ़ानी हवाओं में भी ममता की नाव को पार लगाने में मदद कर रही हैं।
1. विधानसभा चुनावों का ट्रेंड तृणमूल के पक्ष में
कल मैंने लोकसभा चुनाव 2019 के आँकड़ों का ज़िक्र किया था जिनसे पता चलता है कि तब तृणमूल और बीजेपी में केवल 3% का अंतर रह गया था। बीजेपी को 40% और तृणमूल को 43% वोट मिले थे। बीजेपी की सीटें भी काफ़ी बढ़ गई थीं और उसे विधानसभा चुनाव में ममता के लिए बड़ा चैलेंजर के रूप में देखा जा रहा था। राजनीतिक विश्लेषकों और आम लोगों ने भी इसे तृणमूल शासन के प्रति आम लोगों की नाराज़गी के रूप में देखा। लेकिन इसपर बहुत कम लोगों ने ग़ौर किया कि भले ही उस चुनाव में बीजेपी का वोट शेयर 17% से बढ़कर 40% हो गया हो, लेकिन तृणमूल का समर्थन भी 2014 के मुक़ाबले कोई घटा नहीं, बल्कि 3% बढ़ा ही था। 2016 के विधानसभा चुनाव की तुलना में ज़रूर कुछ कमी आई थी लेकिन केवल 2% की।
यानी तृणमूल अपने सर्वाधिक जन-समर्थन से केवल 2% पीछे गई थी, वह भी लोकसभा चुनाव में और ज़रूरी नहीं कि विधानसभा चुनाव में भी यह ट्रेंड रहे। कारण, पिछले कुछ सालों से जितने भी चुनाव हुए हैं, उन सबमें यही देखा गया है कि बीजेपी को लोकसभा चुनाव में जितने वोट मिलते हैं, विधानसभा चुनाव में उससे काफ़ी कम मिलते हैं। यह अंतर तब भी होता है जब लोकसभा और विधानसभा चुनाव एकसाथ होते हैं। जैसे 2019 में तेलंगाना और उड़ीसा में लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ-साथ हुए थे। तब बीजेपी को विधानसभा चुनाव में लोकसभा चुनाव के मुक़ाबले क्रमशः 6% और 12% वोट कम मिले। अगर अलग-अलग समय में हुए चुनावों का विश्लेषण करते हैं तो पता चलता है कि वोटों का यह अंतर हरियाणा में अधिकतम 22% और पंजाब में न्यूनतम 4% देखा गया। यदि दस राज्यों का औसत निकाला जाए तो यह अंतर 10% का आता है (देखें चित्र)।
यानी यह ट्रेंड अगर बंगाल में क़ायम रहा तो बीजेपी का वोट शेयर 40% से 4-5% नीचे जाने की संभावना है और किसी भी दो-दलीय चुनाव में 35% के वोट शेयर से सरकार नहीं बन सकती।
2. मुसलमानों का पूरा सपोर्ट
पिछले दस सालों में राज्य में विपक्षी राजनीति ने कई रंग बदले। कभी कांग्रेस और लेफ़्ट मिलकर लड़े, कभी अलग-अलग और जैसा कि लोकसभा चुनाव में दिखा, बीजेपी तृणमूल की मुख्य प्रतिद्वंद्वी बनकर उभरी। लेकिन इन सबके बीच तृणमूल कांग्रेस के समर्थन में बहुत ज़्यादा अंतर नहीं आया। तृणमूल को 2011 (वि) में 40%, 2014 (लो) में 39%, 2016 (वि) में 45% और 2019 (लो) में 43% वोट मिले। आप देख सकते हैं कि पार्टी को 2011 के मुक़ाबले में 2016 में और 2014 के मुक़ाबले में 2019 में कहीं ज़्यादा वोट मिले। यह तब जबकि इस बीच तृणमूल कांग्रेस के कई नेता भ्रष्टाचार के आरोपों में जेल गए और शासन के स्तर पर ममता ने औसत से कुछ ही बेहतर शासन दिया है।
साल-दर-साल एक औसत सरकार चलाने के बावजूद अगर तृणमूल कांग्रेस का समर्थन घटने के बजाय बढ़ रहा है तो इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि पार्टी को राज्य की 30% मुसलमान आबादी का सॉलिड सपोर्ट हासिल है।
अगर इस मुसलिम आबादी का 80 से 90% हिस्सा तृणमूल को वोट देता है तो पार्टी को बाक़ी 70% आबादी में से केवल 20-25% लोगों का और समर्थन चाहिए अपना पुराना प्रदर्शन दोहराने के लिए। ममता की ग़रीब समर्थक छवि और हाल के उनके कामों को देखते हुए (जिसकी चर्चा हम नीचे करेंगे), यह लक्ष्य मुश्किल नहीं लगता। हालाँकि शुभेंदु अधिकारी और कुछ अन्य लोगों के पार्टी छोड़ने से उसे 20 से 30 सीटों पर कुछ नुक़सान हो सकता है।
3. ममता को टक्कर देने वाला कोई नहीं
जैसा कि ऊपर कहा, ममता बनर्जी की छवि आज भी ग़रीबों की पक्षधर नेत्री की है। आम लोगों से बात करने पर मैंने कई लोगों को यह कहते हुए सुना कि ममता बनर्जी तो ठीक हैं लेकिन उनके साथ के लोग गड़बड़ हैं। यानी तृणमूल नेताओं और कार्यकर्ताओं की करनी का ममता की छवि पर विशेष असर नहीं पड़ रहा।
हाल का राजनीतिक इतिहास बताता है कि जिन-जिन राज्यों में कोई एक तगड़ा स्थानीय चेहरा होता है जैसे उड़ीसा, तेलंगाना, आंध्र, तमिलनाडु, दिल्ली, राजस्थान व पंजाब, वहाँ बीजेपी विधानसभा चुनावों में उतना अच्छा नहीं कर पाती और मोदी का नाम भी कोई जादू नहीं कर पाता। बीजेपी वहीं अच्छा कर पाती है जहाँ विपक्ष बिखरा हुआ है या उसके पास कोई करिश्माई चेहरा नहीं है।
बंगाल में भी आज कुछ वैसी ही स्थिति है। विपक्ष में, ख़ासकर बीजेपी में ऐसा कोई नेता नहीं है जो लोकप्रियता और करिश्मे में ममता बनर्जी को टक्कर दे सके। इस गैप को भरने के लिए सौरभ गांगुली को बीजेपी की तरफ़ से मुख्यमंत्री पद के दावेदार के तौर पर उतारने की बात उठी थी लेकिन सौरभ की बीमारी के चलते ये प्रयास या क़यास अब बंद हो गए हैं।
वीडियो में देखिए, क्या बीजेपी पश्चिम बंगाल में करेगी उलटफेर?
4. लोकहितकारी योजनाओं की बाढ़
2019 के लोकसभा चुनाव में तृणमूल को हराने के लिए जिस तरह विरोधी दलों के समर्थकों और कार्यकर्ताओं ने अपनी विचारधारा को त्यागकर बीजेपी का समर्थन किया था, वह ममता के लिए ख़तरे की घंटी थी। इसके साथ ही कई तृणमूल नेताओं द्वारा आम जनता से काम के बदले दाम वसूलने की ख़बरों ने भी ममता को चौकन्ना किया। उन्हें लगा कि अब जनता के बीच सीधे जाने की ज़रूरत है और जो नाराज़ वोटर हैं या जो भविष्य में नाराज़ हो सकते हैं, उनको मनाने की ज़रूरत है। पिछले कुछ महीनों में उन्होंने कई योजनाएँ लागू की हैं जिनमें स्वास्थ्य साथी (आयुष्मान भारत जैसी योजना) सबसे महत्वपूर्ण है। इसके अलावा हाल ही में उन्होंने दुआरे सरकार (आपके द्वार पर सरकार) जैसे अभियान चलाए ताकि लोगों की दिक़्क़तें तत्काल दूर की जा सकें। कोविड-19 के कारण स्कूल बंद हैं लेकिन उनके परिवारों को किताबें और राशन दिया जा रहा है। बारहवीं के छात्रों को टैब्लेट ख़रीदने के लिए दस हज़ार की राशि दी जा रही है। हाल ही में ममता ने कोरोना का टीका सबको मुफ़्त में देने की भी घोषणा कर दी है। इन सब कामों के चलते लोगों में सरकार या स्थानीय नेताओं के प्रति जो नाराज़गी है, वह कम होने की संभावना है।
5. बांग्ला संस्कृति की रक्षक
ममता बनर्जी शुरू से कहती आ रही हैं कि वे और उनकी पार्टी जिस तरह बांग्ला संस्कृति को समझती हैं, उनका सम्मान करती हैं और उसका महत्व समझती हैं, बीजेपी के दिल्ली से आए नेता न तो उसके बारे में कुछ जानते हैं, न ही उसका महत्व समझते हैं। ख़ुद बीजेपी नेताओं और कार्यकर्ताओं ने अपनी कथनी और करनी से ममता का यह आरोप बार-बार पुष्ट किया है। मसलन, 2019 में बीजेपी कार्यकर्ताओं ने अमित शाह के रोड-शो के दौरान काले झंडे दिखाए जाने के विरोध में ईश्वरचंद्र विद्यासागर की मूर्ति तोड़ दी थी। इसके अलावा हाल में बीजेपी अध्यक्ष नड्डा ने उस मंदिर को चैतन्य महाप्रभु का दीक्षास्थल बता दिया जो उनकी मृत्यु के कई सौ साल बाद बना था। उससे पहले विश्वभारती को टैगोर का जन्मस्थल बताते हुए नड्डा के हैंडल से एक ट्वीट जारी हुआ था जबकि टैगोर कोलकाता में जन्मे थे।
निश्चित रूप से दिल्ली या देश के दूसरे प्रदेशों के बीजेपी नेता बंगाल, बंगाली प्रतिभाओं और यहाँ की संस्कृति के बारे में उतना नहीं जान सकते जितना ममता जानती हैं। इन सबका लाभ उन्हें बंगाली भद्रलोक के समर्थन के रूप में मिल सकता है।
6. तृणमूल का तगड़ा नेटवर्क
दस साल तक शासन करने के कारण राज्य में तृणमूल कांग्रेस का बहुत तगड़ा सामाजिक नेटवर्क बन गया है। सांस्कृतिक कार्यक्रमों से लेकर राजनीतिक कार्यक्रमों तक यह नेटवर्क हर जगह सक्रिय रहता है। इसके मुक़ाबले बीजेपी का संगठन बहुत कमज़ोर है जिसकी झलक उसकी सभाओं में होने वाली गड़बड़ियों में भी मिल रही है। बीजेपी ने प्रतिपक्षी दलों के नेताओं और कार्यकर्ताओं के लिए जिस तरह दरवाज़े खोल दिए हैं, उससे भी पार्टी में अंदरूनी टकराव बढ़ गया है। मतदान के दिन इससे काफ़ी अंतर पड़ सकता है।
7. प्रशांत किशोर का साथ
ममता बनर्जी ने इन चुनावों के लिए प्रशांत किशोर की कंपनी I-PAC कंपनी की सेवाएँ ली हैं। प्रशांत किशोर चुनावी रणनीति के अच्छे जानकार माने जाते हैं और देश में कई दलों को शानदार जीत दिलाने में उनकी भूमिका रही है। ऐसा नहीं है कि प्रशांत किशोर के पास कोई जादू की छड़ी है जिसकी मदद से वे किसी भी पिद्दी को पहलवान बना सकते हैं। अगर ऐसा होता तो यूपी में बीजेपी की जगह आज कांग्रेस की सरकार होती।
प्रशांत किशोर दरअसल किसी भी नेता की छवि चमकाने और जनता के बीच उसकी स्वीकार्यता को बढ़ाने का काम करते हैं। कैसे अपने प्लस पॉइंट को उभारा जाए और विरोधी की कमियों का लाभ उठाया जाए, इसके बारे में वे रणनीतियाँ बनाते हैं। 2012 और 2014 में मोदी के लिए, 2015 में नीतीश के लिए, 2017 में अमरिंदर के लिए, 2019 में जगनमोहन रेड्डी के लिए और 2020 में केजरीवाल के लिए उन्होंने यही काम किया। अब वे ममता की छवि चमकाने का काम कर रहे हैं जो ममता को 'बंगाल का गौरव’ बताने के ऐलान से शुरू हुआ।
प्रशांत किशोर की मदद से तृणमूल कांग्रेस उन प्रतिकूल स्थितियों का असर कम करने की कोशिश कर रही है जिसकी हमने कल चर्चा की थी और जिसकी वजह से उसके वोट कम हो सकते हैं (पढ़ें)। हम यह भी जानते हैं कि लोकसभा चुनावों में बीजेपी का समर्थन आम तौर पर घटता है (देखें ऊपर पॉइंट नं. 1)। अब प्रश्न यह है कि अगर दोनों के ही वोट घटते हैं तो वे किसके पास जाएँगे? क्या लेफ़्ट और कांग्रेस के पास?
अगले चुनाव का नतीजा बहुत-कुछ निर्भर करेगा कांग्रेस और लेफ़्ट के गठबंधन पर। अगर ये पार्टियाँ 2019 में बीजेपी की तरफ़ मुड़े अपने पुराने वोटरों में से थोड़े-बहुत को भी वापस खींच पाती हैं तो वे बीजेपी की सीटें घटाने में कामयाब हो जाएँगी। इसका लाभ तृणमूल को मिलेगा।
2019 के लोकसभा चुनाव में तृणमूल को 163 सीटों पर और बीजेपी को 122 सीटों पर लीड मिली थी। तृणमूल जानती है कि वह पिछली बार का रिकॉर्ड (211 सीटें) नहीं छू पाएगी। उसकी कोशिश होगी कि वह 180 तक सीटें पा जाए और बीजेपी को 100 का आँकड़ा पार न करने दे। प्रशांत किशोर ने हाल के अपने ट्वीट में भी यही बात कही थी और यह भी कहा था कि इस ट्वीट को सँभालकर रख लें।
अगला चुनाव एक तरह से ममता के लिए ही नहीं, प्रशांत किशोर के लिए भी प्रतिष्ठा का सवाल है। जहाँ तक बीजेपी की बात है, यह तो तय है ही कि वह 2016 के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा सीटें पाने जा रही है। अगर वह सत्ता में नहीं आती है, तब भी अपनी बढ़ी हुई सीटों को अपनी उपलब्धि बताकर ख़ुश हो लेगी।