पश्चिम बंगाल की राजनीति में झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) का तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के साथ आना बड़ी राजनीतिक घटना है। यह घटना बीजेपी के लिए बेचैन करने वाली है तो टीएमसी के लिए सुकून देने वाली। हेमंत सोरेन ने पश्चिम बंगाल में चुनाव नहीं लड़ने का एलान करते हुए टीएमसी को समर्थन देने की घोषणा को दिशोम गुरु शिबू सोरेन की मर्जी बताया है। समर्थन का यह फैसला ममता बनर्जी के आग्रह पर विचार के बाद लिया गया है।
कांग्रेस-लेफ्ट के लिए जेएमएम के समर्थन का पश्चिम बंगाल में कोई निर्णायक मतलब नहीं है। फिर भी, कांग्रेस के लिए यह इस मायने में ‘झटका’ है कि उसके ही समर्थन से हेमंत सरकार झारखंड में चल रही है। हालांकि शिव सेना भी टीएमसी को समर्थन देने का एलान कर चुकी है जिसकी महाराष्ट्र में महा विकास अघाड़ी सरकार है और कांग्रेस उसमें शामिल है। तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाला राष्ट्रीय जनता दल भी अपने परंपरागत मित्र कांग्रेस को अंगूठा दिखाते हुए ममता बनर्जी का साथ देने का एलान कर चुका है।
हेमंत बदल सकते हैं रुझान
पश्चिम बंगाल की विधानसभा में जेएमएम की मौजूदगी नहीं है। फिर भी इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि आदिवासी वोटरों के रुझान को बदलने की क्षमता हेमंत सोरेन में है। आदिवासियों के प्रभाव वाले जिलों में पुरुलिया, बांकुड़ा, झाड़ग्राम और पश्चिम मिदनापुर प्रमुख हैं। यहां लोकसभा की 6 और विधानसभा की 41 सीटें पड़ती हैं।
2016 के विधानसभा चुनाव में टीएमसी के पास इनमें से 30 सीटें थीं, जबकि 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान बीजेपी को यहां पड़ने वाली विधानसभा सीटों में 33 पर बढ़त हासिल हुई थी।
पश्चिम बंगाल के चुनाव पर देखिए चर्चा-
2019 के लोकसभा चुनाव में बांकुड़ा और पुरुलिया में बीजेपी को 50 फीसदी और मेदिनीपुर में 49 फीसदी व बिशुनपुर में 47 फीसदी वोट मिले थे। घाटाल में 41 फीसदी और झाड़ग्राम में 45 फीसदी वोट बीजेपी ने हासिल किए थे। जाहिर है यह आदिवासियों के बीच बन चुकी बीजेपी की जबरदस्त पैठ का प्रमाण है। मगर, यह बात भी याद रखने की है कि पड़ोसी झारखंड में तब बीजेपी की सरकार थी और 2019 के लोकसभा चुनाव में वहां भी एनडीए ने 14 में 12 लोकसभा सीटें जीत ली थीं।
झारखंड की राजनीतिक परिस्थिति अब बदल चुकी है। यहां बीजेपी की नहीं जेएमएम के नेतृत्व में यूपीए की सरकार चल रही है और हेमंत सोरेन इसका नेतृत्व कर रहे हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में शानदार प्रदर्शन के बावजूद झारखंड में बीजेपी सत्ता से बाहर हो चुकी है।
झारखंड के सीमावर्ती जिलों में आदिवासी वोटरों के बीच हेमंत सोरेन का प्रभाव असर दिखा सकता है। आदिवासी वोटर झारखंड की ही तरह पश्चिम बंगाल में भी बीजेपी के विरोध में वोट डाल सकते हैं। इसी लिहाज से ममता बनर्जी के लिए हेमंत सोरेन के समर्थन की अहमियत है।
6% वोट से बदल जाएगा समीकरण
नि:संदेह पश्चिम बंगाल के लोकसभा चुनाव में आदिवासी वोटरों के बीच बीजेपी की मजबूत पैठ नजर आयी थी। पांच लोकसभा सीटों पर बीजेपी को सबसे ज्यादा वोट मिले थे जबकि टीएमसी को सिर्फ एक लोकसभा सीट घाटाल में बढ़त मिली थी। यहां टीएमसी को 49 फीसदी वोट मिले थे। झाड़ग्राम में टीएमसी को बीजेपी से महज 1 फीसदी कम वोट मिले थे। बिशुनपुर और मेदिनीपुर में बीजेपी से 6 फीसदी वोट पीछे रह गयी थी टीएमसी। पुरुलिया और बांकुडा में दोनों दलों के बीच वोटों का अंतर ज़रूर बड़ा था। टीएमसी 15 और 13 फीसदी वोटों के अंतर से पिछड़ गयी थी।
सिर्फ 6 फीसदी वोटों का फर्क भी अगर जेएमएम के कारण टीएमसी के पक्ष में हो जाता है तो 6 में से 4 लोकसभा सीटों पर टीएमसी की बढ़त हो जाएगी। इसका असर विधानसभा के लिहाज से मोटे तौर पर 24 सीटों पर पड़ेगा। मतलब यह कि 2016 में 30 सीटों पर जीत के अपने प्रदर्शन के आसपास टीएमसी दिखायी देने लगेगी।
कांग्रेस और लेफ्ट को 2019 के लोकसभा चुनाव में आदिवासी बहुल 6 लोकसभा सीटों के अंतर्गत किसी भी विधानसभा सीट पर वोटों में बढ़त हासिल नहीं हो सकी थी। 2016 के विधानसभा चुनाव के नतीजों को भी देखें तो इन इलाकों से वाममोर्चे को 3 और कांग्रेस को 5 यानी कुल 8 सीटें ही मिल सकी थीं। जाहिर है कि जेएमएम का समर्थन इन दलों को मिल भी जाता तो ये नतीजे नहीं दे सकते।
जमीनी स्तर पर चुनाव रणनीति की यह समझ यूपीए में कांग्रेस को जेएमएम के फैसले से सहमत होने को विवश करती है जिसने ‘सांप्रदायिक ताकत को हराने’ का मकसद सामने रखा है।