एप्पल टीवी प्लस की एक वेबसीरीज़ है, साइलो (SILO) जो आपको 300 साल बाद की एक डिस्टोपियन दुनिया में ले जाती है। यह एक वर्टिकल सोसाइटी है जहाँ लोग कई मंजिलों में बसे हुए हैं। यहाँ मनुष्यों के जीवन को बचाने के नाम पर उनके अधिकारों का शोषण बहुत ही साधारण बात है। जो लोग ज़्यादा जानकारी लेना चाहते हैं, साइलो के बाहर की दुनिया और असलियत के बारे में जानना चाहते हैं उन्हें दूसरों की सुरक्षा के नाम पर मार दिया जाता है। लेकिन इतनी अमानवीय सोसाइटी में भी बच्चों की देखभाल की व्यवस्था बहुत चाक-चौबंद है। साइलो की सोसाइटी में हर जगह कैमरे हैं जिससे लोगों को ‘कंट्रोल’ किया जा सके पर साइलो में बच्चों को इन कैमरों से मुक्त रखा गया है, यहाँ पर हर हाल में बच्चों की देखभाल को सुनिश्चित किया जाता है।
पर बच्चों की इतनी ज़रा सी देखभाल और सुरक्षा परिस्थितियों को भी भारत जैसे आधुनिक लोकतंत्र में गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है। महारानी लक्ष्मीबाई मेडिकल कॉलेज झाँसी में हुई इस दर्दनाक घटना ने इस बात के पुख्ता प्रमाण लाकर रख दिए हैं कि नवजातों की भी ज़िंदगी कोई मायने नहीं रखती। इस सरकारी मेडिकल कॉलेज के नवजात शिशु गहन चिकित्सा इकाई (NICU) में 15 नवंबर को आग लग गई जिसकी वजह से 10 नवजात बच्चों की झुलसकर मौत हो गई, 16 अन्य बच्चे, ज़िंदगी और मौत से जूझ रहे हैं, उनका इलाज चल रहा है। मैं इस घटना को ‘दुर्घटना’ नहीं कहूँगी क्योंकि ऐसा कहना नाइंसाफ़ी होगी। मैं इसे, एक अक्षम नेतृत्व की घोर लापरवाही और ग़ैर जिम्मेदार प्रशासन की मिसाल कहूँगी। यह घटना सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रशासन की लापरवाही और सरकारी निगरानी क्षमता की कमजोरी से पैदा हुई है।
उत्तर प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री, बृजेश पाठक, जो प्रदेश के उप-मुख्यमंत्री भी हैं, उनका कहना है कि आग लगने का कारण ‘शॉर्ट सर्किट’ है। उन्होंने घटना की त्रिस्तरीय जांच का आदेश दिया है जिससे सच सामने आ सके। सवाल यह है और चिंता भी है कि जांच से क्या प्राप्त होगा? क्या प्रशासन इससे कोई सीख लेगा? क्या सरकार स्वास्थ्य से संबंधित और जीवन से संबंधित मामलों को गंभीरता से लेना शुरू करेगी? मुझे बिल्कुल नहीं लगता कि जांच के बाद जो परिणाम आयेगा उससे कोई भी प्रशासन, सीख लेना चाहेगा। 2017 में गोरखपुर के मेडिकल कॉलेज की त्रासदी याद कीजिए। प्रशासन की लापरवाही की वजह से लिक्विड ऑक्सीजन अचानक ख़त्म हो गई थी और 63 बच्चों समेत 81 लोगों ने घुट-घुट कर दम तोड़ दिया था। निष्कंटक लापरवाही का अंदाज़ सोचकर देखिए, एक अस्पताल की सबसे ज़्यादा जरूरी आवश्यकता, ऑक्सीजन ही खत्म हो गई।
घरों में आटा-दाल और मसाला ख़त्म होने से पहले गृहिणी को पता चल जाता है, ख़त्म होने से पहले घर में सामान आ जाता है लेकिन यह प्रदेश जो अमानवीयता और अक्षमता को अपना आभूषण समझ बैठा है वहाँ ऑक्सीजन की कमी से 63 बच्चे मर जाते हैं। नागरिकों की याददाश्त देखिए, किसी को कुछ याद नहीं है। लोग इन दिनों ‘बटेंगे तो कटेंगे’ में व्यस्त हैं। एक समृद्ध लोकतंत्र होता तो मुख्यमंत्री को इस्तीफ़ा देना पड़ता, सरकार पर से विश्वास गिर जाता। लेकिन ग़ुलामी के सैकड़ों साल, लोगों के डीएनए में कुछ इस तरह से समाये हैं कि हर दुर्घटना ‘कॉस्मिक’ और दैवीय कारणों से घटित हुई नजर आती है।
यह न सीखने का परिणाम है और यही कारण है कि अब झाँसी में लापरवाही हुई है। अगर सचमुच जनता के हाथ मजबूत होते तो सीएम योगी आदित्यनाथ को झाँसी आना पड़ता और स्वास्थ्य मंत्री बृजेश पाठक लखनऊ से ही अपने इस्तीफे की घोषणा कर देते। लेकिन शायद यह ‘शून्य’ जवाबदेही का दौर है जहाँ मौत और लापरवाही की इमारत को मुआवजे के पेंट से रंगने की कोशिश की जाती है।
आग से झुलसकर मर चुके बच्चों के परिजन जब पीड़ा के उच्चतम बिंदु पर हैं तब मेडिकल कॉलेज के प्रिंसिपल को यह बताना जरूरी लग रहा है कि वहाँ सबकुछ ठीक था और सुरक्षा के हर प्रोटोकॉल अपनाये गए थे।
प्रिंसिपल की सफाई
प्रिंसिपल ने कहा कि “हमने आग की घटनाओं पर प्रतिक्रिया देने के लिए एक विस्तृत योजना विकसित की थी। मेडिकल कॉलेज को तीन खंडों में विभाजित किया गया था, प्रत्येक की देखरेख एक प्रोफेसर द्वारा की जाती थी। सभी स्टाफ सदस्यों को, अग्नि प्रतिक्रिया प्रोटोकॉल पर प्रशिक्षित किया गया था, जो इस घटना के दौरान मददगार साबित हुआ।” स्वयं उप-मुख्यमंत्री ने अलार्म सिस्टम की ख़ामी और अन्य संभावनाओं को नकारते हुए सब कुछ शॉर्ट सर्किट पर थोप दिया। जबकि इंडिया टुडे, में छपी एक रिपोर्ट कुछ और ही कहानी बयान कर रही है। इसमें कहा गया है कि - अस्पताल की नवजात शिशु गहन चिकित्सा इकाई (NICU) में अग्निशामक यंत्र एक्सपायर हो चुके थे और आग लगने के बाद भी सुरक्षा अलार्म नहीं बजा जिससे बच्चों को बाहर निकालने में देरी हुई। प्रारंभिक जांच के अनुसार, अग्निशामक सिलेंडर पर गैस भरने की तिथि 2019 और समाप्ति तिथि 2020 थी। अगर यह सबकुछ सच पाया जाता है तो 10 बच्चों की मौत की जिम्मेदारी किसकी होगी? कॉलेज प्रशासन के अतिरिक्त, जिला प्रशासन मुख्यतया, जिलाधिकारी को क्यों नहीं पता कि उसके जिले के सबसे महत्वपूर्ण अस्पतालों में से एक में अग्निशामक यंत्र एक्सपायर हो चुके हैं? सारे पाप ‘शॉर्ट सर्किट’ से नहीं धोए जा सकते हैं।
प्रधानमंत्री मोदी ने भी शोक संवेदना व्यक्त की है और भगवान से प्रार्थना की है कि परिजनों को शक्ति दें। क्या उन्हें नहीं लगता कि प्रशासन अपना काम सही से करता तो भगवान से परिजनों के लिए शक्ति मांगने की जरूरत नहीं होती। केंद्र और प्रदेश में चल रही उनकी डबल इंजन की सरकार ने अगर सभी स्वास्थ्य प्रोटोकॉल निभाये होते तो आज 10 बच्चे ज़िंदा होते। उन्हें ख़ुद से सवाल पूछना चाहिए कि जब वो अपना चेहरा दिखाकर यूपी में वोट मांगने आते हैं तो उन्हें इस सरकार की असफलता की कुछ जिम्मेदारी अपने ऊपर भी लेनी चाहिए।
भारत के अस्पताल लापरवाहों के पनाहगार बनते जा रहे हैं। अभी 6 महीने पहले 26 मई, 2024 को पूर्वी दिल्ली के विवेक विहार में न्यू बोर्न बेबी केयर अस्पताल में आग लगने की वजह से सात नवजात शिशुओं की मौत हो गई थी। यहाँ भी अलार्म देरी से बजा था।
9 जनवरी, 2021 को महाराष्ट्र के भंडारा में एक अस्पताल में बच्चों के वार्ड में आधी रात को आग लग गई, जिसमें 10 नवजात जलकर मर गए थे। 12 दिसंबर, 2011 की कोलकाता की घटना बहुत ही भयावह थी। यहाँ के एएमआरआई अस्पताल में लगी आग में 90 मरीजों सहित लगभग 94 लोग जलकर मर गए थे। आग का कारण एक वार्ड के भूमिगत कार पार्क में अवैध रूप से संगृहित ज्वलनशील पदार्थ था, जिसने आग पकड़ ली और एयर कंडीशनर पाइपों के माध्यम से ऊपरी मंजिलों तक फैल गई।
अस्पतालों में लापरवाही की वजह से बड़ी संख्या में होने वाली मौतें भारत के लिहाज़ से ठीक नहीं हैं। उत्तरप्रदेश और बुंदेलखंड जैसे क्षेत्रों के लिए तो बिल्कुल नहीं। सालों के जागरूकता प्रयासों के बाद, बड़ी मुश्किल से भारतीय परिवारों को अस्पतालों में प्रसव कराने पर राजी किया गया है।
इसकी वजह से शिशु मृत्यु दर (IMR) और मातृत्व मृत्यु दर (MMR) दोनों में महत्वपूर्ण कमी आई है। यह कमी इस देश के विकास के लिए मील का पत्थर है। आज़ादी के समय जो शिशु मृत्यु दर 1000 बच्चों के जन्म पर 140 बच्चों की मौत पर था वो 2021 आते-आते 27 मौतों तक सिमट गया है। आज़ादी के समय जो एमएमआर 100,000 बच्चों के जन्म पर 1000 माताओं की मौत का था वो आज 103 पर आ गया है। इस उपलब्धि को कब्रगाह नहीं बनने देना चाहिए। पर यह भी सच है कि अगर इसी तरह अस्पतालों में बच्चों की मौत होती रही, तो लोग फिर से अस्पतालों में सुरक्षित प्रसव करवाना बंद कर देंगे। सुरक्षित प्रसव का विचार जो 75 सालों के अथक प्रयास के बाद अब धरातल में पहुँच चुका है उसे निश्चित ही ऐसी घटनाओं से धक्का लगेगा। परिवार अपने बच्चों को अस्पताल में रखने से डरेंगे क्योंकि कोई भी अपने नवजात बच्चों की मौत अस्पताल में आग से झुलसकर नहीं होने देना चाहेगा। अस्पताल स्वास्थ्य के मंदिर हैं, अगर इसी मंदिर में नवजात बच्चे कभी ऑक्सीजन की कमी से और कभी आग से मरेंगे तो घरों पर कम जानकार दाइयों से प्रसव को बढ़ावा मिलेगा, अंधविश्वास फिर से अपनी जड़ें जमाने लगेगा और भारत फिर से पिछड़कर कमजोर हो जाएगा।
सरकारी अस्पताल सस्ते और सुरक्षित इलाज की गारंटी माने जाते रहे हैं जहाँ आर्थिक शोषण के भय से मुक्त होकर भारत की बहुसंख्यक गरीब आबादी अपना उपचार करवाती है। सच यह है कि लोगों ने अपने बच्चों को सरकारी देखरेख में मरते देखा है, यह सदमा उन्हें सरकार पर भरोसा करने से हमेशा रोकेगा।
मानव विकास रिपोर्ट देखते हुए, बुंदेलखंड जैसे क्षेत्र के लिए तो यह सदमा और भी ख़तरनाक होगा। 2016 में नीति आयोग द्वारा बुंदेलखंड पर मानव विकास रिपोर्ट जारी की गई थी। बुंदेलखंड में साक्षरता दर बहुत कम है। राष्ट्रीय औसत 65.38% के मुक़ाबले यहाँ की मात्र 48.41% आबादी ही साक्षर है। महिला साक्षरता दर की हालत तो और भी ख़राब है। यह मात्र 34.98% है। यहाँ की एक तिहाई आबादी ग़रीबी रेखा से नीचे जीवन जीने को बाध्य है और लगभग 90% आबादी कृषि पर निर्भर है। यह सब भयावह है और ऐसे क्षेत्र में अंधविश्वास का खूंटे की तरह गड़ जाना और पूरे समाज को उसी के चारों और घुमाना बहुत आसान है। बढ़ा हुआ अंधविश्वास महिलाओं के यौनशोषण को बढ़ावा देगा, ग़रीबी को बढ़ाएगा और आने वाली पीढ़ियाँ निरंतर शिक्षा से दूर होती जायेंगी क्योंकि उनके पास गोरखपुर और झाँसी जैसे अनगिनत सरकारी लापरवाहियों के उदाहरण होंगे जिन्हें शोषणकारी लोग इन गरीबों के शोषण में इस्तेमाल करेंगे। इसलिए इस बार मिसाल बननी चाहिए और स्वास्थ्यमंत्री को तत्काल प्रभाव से अपना पद त्याग देना चाहिए जिससे भारत के लोगों के पास जवाबदेही और विज्ञान पर भरोसे का मिश्रित संदेश पहुँचे।