प्रेमचंद के कालजयी उपन्यास ‘गोदान’ में नायक ‘होरी’ की मौत एक ‘त्रासदी’ है। लेकिन उससे भी त्रासद यह है जिस गाय को वह कभी अपनी आमदनी से न खरीद सका, और उसी चाह में मर भी गया, उसकी मौत के बाद ‘समाज’ उसी गाय को खरीद कर उसे दान देने की परंपरा के उसके ‘कर्तव्य’ के लिए बाध्य करने की कोशिश करता है। गोदान की त्रासदी तो होरी की पत्नी धनिया द्वारा इस ‘कर्तव्य’ को नकारने से ख़त्म हो जाती है लेकिन भारतीय नागरिकों की त्रासदी ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही है।
भारत और भारत के नागरिकों की त्रासदी यह है कि जब देश के 85 करोड़ नागरिक सरकारी राशन पर जीवन व्यतीत कर रहे हों, स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव के चलते हजारों नागरिक हर रोज मारे जा रहे हों, न जाने कितनी गर्भवती महिलाओं का प्रसव अस्पतालों के बाहर सड़क पर होता हो, कमजोर अवसंरचना के कारण सरकारी अस्पतालों में लगी लाइन और प्राइवेट अस्पतालों में सोने के दाम पर मिलने वाला इलाज कई भारतीयों को प्रतिदिन बीमारी से पहले हताशा से मार रहा हो, बेरोजगार प्रतिदिन सड़कों पर लाठियाँ खा रहे हों, जिन छात्रों से देश का निर्माण होना है, सरकार उन्हीं के लिए आयोजित होने वाली प्रतियोगी परीक्षाएँ भी ईमानदारी से न करवा पा रही हो, तब यह मानना पड़ेगा कि सरकार द्वारा अपने नागरिकों को, उनके कर्तव्यों को याद दिलाने की सनक; वास्तव में नागरिकों के अधिकारों को नकार देने की प्रक्रिया का ही हिस्सा है।
नरेंद्र मोदी की अगुआई में चल रही केंद्र सरकार ने ‘राजपथ’ का नाम बदलकर ‘कर्तव्य पथ’ कर दिया है। नाम बदलने में कोई समस्या नहीं है, पहले भी कई सरकारों ने देश के विभिन्न स्थानों के नाम परिवर्तित किए हैं और संभवतया आगे भी जारी रहेंगे। समस्या उस सनक से है जो अंततः भारतीय नागरिकों के लिए त्रासदी बन चुकी है। समस्या है नागरिकों की परेशानी को सुलझाने की बजाय उससे भाग जाने की। और यह एक बार नहीं हुआ बल्कि जब से 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार आई है तब से जारी है।
सरकार की अक्षमता छिपी रहे इसलिए नागरिकों को उनके कर्तव्य याद दिलाए जाते हैं। पहले मध्यम वर्ग के नागरिकों से स्वतः एलपीजी सिलिन्डर पर सब्सिडी छोड़ने का आह्वान किया गया और बाद में दाम इतने अधिक बढ़ा दिए गए कि नागरिकों की कमर टूट जाए। देश में भ्रष्टाचार को ख़त्म करने के लिए नागरिकों का आह्वान किया गया और नोटबंदी लागू कर दी गई। प्रधानमंत्री ने नागरिकों से 50 दिनों तक कष्ट सहने के लिए कहा। लोग अपने देश को प्यार करते हैं इसलिए लोगों ने इस कर्तव्य का पालन किया। लेकिन 50 दिन की बजाय लोगों को महीनों कष्ट झेलना पड़ा, अपने ‘कर्तव्य’ के पालन में सैकड़ों लोग लाइन में लगे-लगे मारे गए और भ्रष्टाचार का अंत करने व काले धन को समाप्त करने का वायदा भी प्रधानमंत्री का झूठ निकला क्योंकि भारतीय रिजर्व बैंक ने माना कि 99.3% रुपया बैंकों में वापस आ गया है। मतलब यह हुआ देश में प्रचलित करन्सी का 99.3% हिस्सा काला धन था ही नहीं! अर्थात मात्र 0.7% रुपये के लिए नरेंद्र मोदी सरकार ने सैकड़ों लोगों की जान की परवाह नहीं की, अर्थव्यवस्था का जो दीवाला निकला उसकी कीमत तो भारत अब भी चुका रहा है।
हद तो तब हो गई जब कोरोना के दौरान पूरे देश में मातम पसरा हुआ था, हर तरफ मौत ही मौत नजर आ रही थी। जिस परिवार में पूछो कोई न कोई मौत कोरोना से हो चुकी थी, या होने वाली थी; तब प्रधानमंत्री को अचानक देश को ‘आत्मनिर्भर’ बनाने की सूझी।
जब लोगों को समुचित स्वास्थ्य के ‘अधिकार’ की ज़रूरत थी तब उन्हें आत्मनिर्भर बनाने पर जोर दिया जा रहा था। प्रधानमंत्री ने ‘आपदा में अवसर’ का नारा दिया। ‘अवसर’! किसके लिए? जिसके परिवार में लोग मर रहे हों उसके तो आँसू ही नहीं थम रहे थे वो क्या अवसर तलाशता?
हाँ यह ज़रूर है कि लाखों लोगों की अचानक हो रही मौत के लिए लाखों की संख्या में कफ़न की आवश्यकता ज़रूर थी। हो सकता है इसी अवसर की बात हो रही हो! या फिर उस अवसर की बात हो रही थी जिसके तहत देश के सबसे बड़े व्यापारियों ने प्रतिदिन एक हजार करोड़ रुपये तक की संपत्ति तब अर्जित की जब देश के लाखों लोग स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में सड़कों पर मर रहे थे?
अब, राजपथ, जो देश की संसद और राष्ट्रपति भवन की ओर जाता है। जहां देश की जनता के प्रतिनिधि बैठते हैं, जहां कभी भी कोई भी अधिकार स्वरूप बाहर जाकर खड़ा हो सकता था, जहां किसानों, मजदूरों और छात्रों ने कई बार जाकर विरोध प्रदर्शन के अपने अधिकार को पुष्ट किया है। उसका ही नाम बदलकर ‘कर्तव्य’ पथ कर दिया गया है। एक बार फिर से अपनी शानों-शौकत पर अरबों फूंकने वाली सरकार भारत के आम नागरिकों को उनके ‘कर्तव्य’ याद दिलाने की सनक में है।
वर्तमान भारत सरकार को यह बात अच्छे से अपने अंदर बैठा लेनी चाहिए कि सरकार कानून बदल सकती है, नए कानून बना सकती है, और चाहे तो देश के सभी मार्गों के नाम कर्तव्य पथ रख सकती है, सभी विरासतों को तोड़कर नई इमारतें बना सकती है, लेकिन जिसे वह कभी नहीं तोड़ पाएगी वह है भारत के संविधान का अधिकारोन्मुख स्वभाव। भारत का संविधान जिसे उन लोगों ने बनाया जिन्होंने अंग्रेजों की ग़ुलामी में अपना जीवन जिया था, जिन्हें नाम मात्र के अधिकार भी नहीं थे, उन्हें अच्छे से पता था कि सैकड़ों वर्षों की ग़ुलामी से जागे भारत को अधिकारों की एक लंबी धूप की आवश्यकता होगी। यह धूप आने वाले 100 वर्षों तक तो नहीं ढलने वाली है। यदि फिर भी सरकार अपने ‘कर्तव्य सनक’ को बरकरार रखती है तो भारत की 140 करोड़ जनता कर्तव्य के इसी तीर को सरकार की ओर मोड़ सकती है। आशा है कि 140 करोड़ ‘कर्तव्य-तीर’ सरकार को सबक़ सिखाने के लिए पर्याप्त होंगे।
आज देश विभाजन के एक अनोखे दौर में है। लगभग हर क्षेत्र में विभाजन ने देश की एकता और विन्यास को तोड़कर रख दिया है। लोग अभी भी इस बात की लगातार अनदेखी कर रहे हैं लेकिन सच यही है कि भारत की 85 करोड़ जनता अर्थात सम्पूर्ण यूरोप जिसमें 44 देश शामिल हैं की कुल जनसंख्या से भी अधिक जनसंख्या हर महीने लाइन में खड़े होकर राशन ले रही है।
विभाजन यह है कि यह बड़ी जनसंख्या शायद कभी भी अच्छा चावल नहीं खा पाएगी, अच्छी दाल और हरी सब्जियां तो सोच से दूर है।
यह त्रासदी नहीं तो और क्या है कि देश का इतना बड़ा हिस्सा न कभी पर्याप्त प्रोटीन डाइट ले पाता है और न ही स्वयं या अपने बच्चों को प्रतिदिन दूध, दही, पनीर, घी, मुहैया करवा पाता है। वहीं दूसरी तरफ सत्ताधारी दल के व्यापारी मित्र अरबों की अकूत संपत्ति प्रतिदिन अर्जित कर रहे हैं।
विभाजन यह है कि एक तरफ सरकार लगातार जीएसटी कलेक्शन बढ़ा रही है तो दूसरी तरफ न ही रोजगार को बढ़ावा दे पा रही है और न ही राज्यों का बकाया पैसा दे पा रही है जो कि संवैधानिक रूप से केंद्र द्वारा राज्यों को देय है। कुछ लोगों के हाथ में आता हुआ अनगिनत पैसा और अनगिनत लोगों की जाती हुई नौकरियाँ, यह स्पष्ट विभाजन सरकारी नीतियों का परिणाम हैं। देश का निर्माण राज्यों से हुआ है इसलिए भारतीय संविधान में संघीय संरचना की अवधारणा पर बल दिया गया है। इसके अतिरिक्त सर्वोच्च न्यायालय ने भी केशवानंद मामले में संघीय संरचना को संविधान का आधारभूत ढाँचा माना है। इन सबके बावजूद लगातार गैर-भाजपाई राज्य सरकारों को केन्द्रीय एजेंसियों के माध्यम से डराने की केंद्र सरकार की रणनीति संविधान के आधारभूत ढांचे में टूटन पैदा कर रही है। इसे रोके जाने की ज़रूरत है।
विभाजन यह है कि आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थानों की फीस इतनी अधिक बढ़ा दी गई है कि आम भारतीय सिर्फ योग्यता के बल पर इन संस्थानों में दाखिला नहीं ले सकता। जब इन संस्थानों के टेस्ट को पास करना ही एकमात्र योग्यता होनी चाहिए तब दूसरी योग्यता आर्थिक आधार पर तय कर दी गई है। भारत सरकार की कैबिनेट में कितने प्रतिशत ऐसे नेता हैं जिन्होंने इन परीक्षाओं को पास किया है? केन्द्रीय विश्वविद्यालयों की फीस में 400% तक की बढ़ोत्तरी शिक्षा के माहौल को बचाने और बनाने का प्रयास है या फिर शिक्षा को चीते की तरह एक विलुप्त प्रजाति बनाने का? कहीं ऐसा तो नहीं कि सिर्फ कुछ लोग ही शिक्षा प्राप्त कर पाएं, सिर्फ कुछ ही हों, जो उच्च संस्थानों तक पहुंचें? यह तो स्वतंत्र भारत की नहीं, औपनिवेशिक काल की नीतियों की इबारत है। सिर्फ कुछ अधिकारियों की हाँ में हाँ मिलाकर नीतियाँ बनाती हुई सरकार कमजोर सरकार ही मानी जाएगी, मजबूत नहीं। और एक कमजोर सरकार विभाजन रोक नहीं सकती।
विभाजन यह है कि देश में कुछ ऐसे वर्ग हैं जहाँ सरकार स्वयं पहुँच रही है जैसे-उद्योगपति, निवेशक आदि, जोकि इतना बुरा भी नहीं! लेकिन देश की अन्य आबादी सरकार तक नहीं पहुँच पाए, उनकी आवाज सरकार तक न पहुँच पाए, इसका पुख्ता इंतजाम किया जा रहा है। जब स्वयं प्रधानमंत्री प्रदर्शनकारियों और आंदोलनकारियों को ‘आन्दोलनजीवी’ बोल चुके हों तब यह विभाजन और भी स्पष्ट हो जाता है कि अब आज इस देश में विरोध की आवाज को न माना जाएगा, न सुना जाएगा और ज़रूरत पड़ी तो दबा ज़रूर दिया जाएगा। ईमेल और अन्य डिजिटल साधनों के पीछे ‘अक्षमता’ और ‘गैर-जिम्मेदारी’ आसानी से छिप जाती है इसलिए यह सरकार शिकायतों को लेकर ऑनलाइन हो चुकी है लेकिन जब बात चुनाव प्रचार की आती है तब यही ‘अनलाइन मॉडल’ धराशायी हो जाता है और प्रधानमंत्री समेत सभी नेता रैलियों पर रैलियाँ करने में जुट जाते हैं। लाखों-करोड़ों शिकायतों के एक जैसे कंप्यूटर-जनित जवाब भेजकर सरकार न सिर्फ अपनी जिम्मेदारियों से भाग रही है बल्कि शिकायत और उनके समाधानों के बीच के विभाजन को लगातार बढ़ा रही है।
विभाजन यह है कि आज जानबूझकर ऐसा माहौल बना दिया गया है कि देशभक्ति धार्मिक अस्मिता से जुड़ गई है। एक खास धर्म के लोगों को लगातार टारगेट करके उनसे उनकी देशभक्ति का जवाब मांगा जाता है। देशभक्ति को गैर-हिंदुओं के खिलाफ एक टूल की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है।
ऐसे ही अनगिनत विभाजन की रेखाएं हैं जिन्हे मेनस्ट्रीम मीडिया प्रतिदिन 24 घंटे मेहनत करके गाढ़ा करता रहता है। ऐसे में इस गाढ़ी लकीर को हल्का करने और अंततः मिटाने के लिए कांग्रेस ने ‘भारत-जोड़ो यात्रा’ की मुहिम शुरू कर एक सराहनीय प्रयास किया है। 7 सितंबर, 2022 से शुरू हुई यह यात्रा भारत के दक्षिणी सिरे, कन्याकुमारी से उत्तरी सिरे, कश्मीर तक जाने वाली है। यात्राएँ इससे पहले भी हुई हैं पर वह रथों पर चढ़कर पूरी हुई यात्राएं थीं जिन्हे मंदिर बनाने और देश में सांप्रदायिक विभाजन की लकीरों को मजबूत बनाने के उद्देश्य से शुरू किया गया था, और वह सभी अपने उद्देश्य में काफी अलग और सफल भी रहीं। कुछ नई यात्राएं भी हुई हैं जिन्हे पूर्ण राजनैतिक उद्देश्यों के लिए ही शुरू किया गया था। लेकिन इससे पहले ऐसी पद यात्रा पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर द्वारा की गई थी। उनकी यात्रा तमिलनाडु से दिल्ली तक की थी। लेकिन चंद्रशेखर की यात्रा और आज की कांग्रेस की यात्रा का मौलिक अंतर देश में प्रत्येक स्तर में व्याप्त विभाजन है। न्यायपालिका के जज को देखकर निर्णय का अंदाजा लगाया जाना, न्यायपालिका में व्याप्त दुर्भाग्यपूर्ण विभाजन है, टीवी चैनल और अखबार के नाम को देखकर ही रिपोर्ट, एडिटोरियल और खबरों का अंदाज़ा लगाया जाना मीडिया का विभाजन है, लगभग सम्पूर्ण मेनस्ट्रीम मीडिया का सरकारी मुखपत्र बन जाना, विपक्ष और जनता के संघर्ष को ऐतिहासिक रूप से कमजोर बना रहा है।
कांग्रेस की यात्रा का उद्देश्य देश के उन सभी नागरिकों तक पहुँचना है जिनकी आवाज़ सुनने वाला कोई नहीं है। ‘भारत जोड़ो यात्रा’ हर उस गरीब, असहाय, शोषित व वंचित तबके के लिए है जिसका स्थान इस देश में या तो राशन की लाइन के लिए सुनिश्चित कर दिया गया है या फिर लठियाँ खाने और अस्पतालों के बाहर लाइन में लगने और बीमारियों से मर जाने के लिए।
मेरे विचार से ‘भारत जोड़ो यात्रा’ इस बात को सुनिश्चित करने के लिए है कि जो मीडिया सरकारी कमियों और देश की बदतर आर्थिक स्थिति को छिपाने व देश को टुकड़े टुकड़े करने के लिए प्रतिबद्ध नजर आ रहा है उसका विकल्प करोड़ों भारतीय नागरिकों को बनाया जाए ताकि जो मीडिया लालच व भय के कारण नफरत फैलाने और देश को विभाजित करने के काम में लगा है उसे देश की एकता व अखंडता से न खेलने दिया जाए।