भारत के पहले प्रधानमंत्री प. जवाहरलाल नेहरू और संविधान सभा की सबसे बड़ी गलती यह थी कि उन्हे यह नहीं मालूम था कि आजादी के 75 सालों के बाद भी भारत के जनमानस द्वारा ऐसा नेता को चुना जाएगा, जो मूलरूप से आधे सच के प्रतिनिधि होंगे। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पहले लोकसभा और फिर राज्यसभा में, धन्यवाद प्रस्ताव पर भाषण को सुनकर कम से कम यही लगा। भारत की सजग नागरिक होने के नाते यह सच में बहुत विचलित करने वाला है कि देश की बागडोर एक ऐसे व्यक्ति के हाथ में है जिसे सबसे ज्यादा प्यार ‘हाफ ट्रुथ’ से है।
आश्चर्य यह है कि चाहे महात्मा गाँधी का मामला हो या जवाहरलाल नेहरू का या फिर सुभाषचंद्र बोस और वल्लभभाई पटेल का, आरएसएस और भाजपा के पास क्या एक भी सत्य की लकीर नहीं जिस पर वो चल सकें? क्या एक भी ऐसा सत्य नहीं है जिस पर किन्तु परंतु न हो?
राज्यसभा के भाषण को ही लें जिसमें प्रधानमंत्री अपनी सरकार की कमियों से (प्रेस फ्रीडम इंडेक्स-142वाँ, 2021, डेमोक्रेसी इंडेक्स-46वाँ, 2021) लड़ने के लिए जवाहरलाल नेहरू पर गुस्सा निकालते देखे गए। लेकिन जो कहा सब हाफ ट्रुथ था। उन्होंने कहा कि जवाहरलाल नेहरू पर एक आलोचनात्मक कविता लिखने के लिए मजरूह सुल्तानपुरी को एक साल के लिए जेल में डाल दिया गया था। जबकि सच्चाई यह है कि मजरूह सुल्तानपुरी और बलराज साहनी की गिरफ़्तारी उन परिस्थितियों की निरन्तरता थी जो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के द्वितीय सम्मेलन, 1949 के बाद पैदा हुई थी।
1949 के इस सम्मेलन के बाद कम्युनिस्ट पार्टी ने भारत की आजादी को झूठी आजादी कहते हुए भारत के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष का ऐलान किया था। इसी निरन्तरता में मजरूह सुल्तानपुरी ने वो विवादास्पद कविता लिखी। जिस पर महाराष्ट्र सरकार ने उनपर मुकदमा कर दिया था। लेकिन मजरूह सुल्तानपुरी पुलिस के सामने आने के बजाय भूमिगत हो गए।
महाराष्ट्र में उस समय बी. जी. खेर मुख्यमंत्री (उस समय बंबई के प्रधानमंत्री) थे। ये वही बी. जी. खेर हैं जिन्होंने पाकिस्तान के विभाजन के बाद अपनी संविधान सभा की सीट खो देने वाले डॉ. भीमराव अंबेडकर को महाराष्ट्र से कॉंग्रेस के टिकट पर संविधान सभा भेजा था। ये वही बी. जी. खेर हैं जिनकी ईमानदारी और योग्यता के किस्से ब्रिटिश स्पाइ एजेंसी M16 के डीक्लासीफाइड डॉक्युमेंट्स में देखे जा सकते हैं।
अब प्रश्न यह है कि क्या पीएम मोदी मजरूह सुल्तानपुरी, जिन्होंने पी. सी. जोशी की तरह खुद को उस दूसरे कम्युनिस्ट पार्टी सम्मेलन के विचारों से कभी अलग नहीं किया था; का समर्थन करते हैं? क्या पीएम मोदी भारत के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष का समर्थन करते हैं? मुझे व्यक्तिगत रूप से लगता है कि वो ऐसा नहीं करते होंगे। फिर पता नहीं प्रधानमंत्री ने यह सब जानबूझकर कहा या यह उस हाफ़ ट्रुथ का नतीजा था जिसके आज वो ‘प्राइम’ प्रतिनिधि बने हुए हैं।
अपने भाषण में भारत की वर्तमान समस्याओं पर चर्चा करना उन्हे ज्यादा रास नहीं आ रहा था, ऐसा लगा मानों वो पहले ही चुनावी गियर लगा चुके हों और अब उसे बदलना मुश्किल था। क्या वो भूल गए थे कि वो संसद में हैं? और उन्हे राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बोलना है? भारत के पहले प्रधानमंत्री के बारे में प्रधानमंत्री की हैसियत से संसद के उच्च सदन में जो उन्होंने बोला वो प्रधानमंत्री की गरिमा का समापन था। उन्होंने कहा “कॉंग्रेस के साथियों की प्यास बुझाने के लिए आजकल नेहरू को याद करता रहता हूँ”। गोवा की आजादी के मुद्दे को उठाते हुए नेहरू को ‘अहंकारी’ और ‘अपनी छवि चमकाने वाला’ तक कह डाला।
शायद यह नेहरू का ही दोष था कि अशिक्षा प्रधानमंत्री का रूप धारण करके सदन को संबोधित कर रही थी। भारत के प्रधानमंत्री अपने ‘हाफ ट्रुथ’ प्रेम के चलते यह नहीं समझ पाए कि जवाहरलाल नेहरू के पास पीएम मोदी जैसा 75 साल पुराना, व्यवस्थित, स्थापित और सम्मानित लोकतंत्र नहीं था। नेहरू के पास था हजारों भारतीयों की शहादत वाला हिंदुस्तान जिनकी फाँसियों के दृश्य अभी भी आँखों के सामने से नहीं हटे थे, विभाजन की विभीषिका उनके सामने थी, देश को आजादी दिलाने वाला राष्ट्रपिता अपने ही देश के लोगों द्वारा मार दिया गया था।
उनके सामने था एक ऐसा हिंदुस्तान जिसने 200 सालों बाद औपनिवेशिक शासन से परे जाकर पहली बार स्वतंत्र होकर सांस ली थी। उनके साथ आजादी का संघर्ष और उसके मूल्य थे और यह सब उन्हे एक छोटे से असहाय राज्य पर सेना भेजने की इजाजत नहीं देते थे।
हाँ! जिस विश्व के सामने उन्होंने खुलकर ब्रिटिश औपनिवेशिक नीतियों की आलोचना की थी वो उन्ही औपनिवेशिक अवशेषों को पुनः एकत्रित करके गोवा के खिलाफ़ इस्तेमाल नहीं कर सकते थे। उन्हे अपनी छवि की चिंता होती तो 1947 के दौर का कोई ‘पेगासस’ इस्तेमाल करते न कि 15 अगस्त को खुलकर लाल किले से यह घोषणा करते कि वो गोवा में सेना नहीं भेजेंगे। जो भी समाधान होगा वो गाँधीवादी तरीके से होगा और शांति से होगा।
बीते कुछ दिनों से कॉंग्रेस के पूर्व अध्यक्ष सीताराम केसरी पीएम मोदी के प्रिय नेता बन गए हैं। हर बार यह कहना नहीं भूलते कि ‘एक परिवार’ के खिलाफ बोलने के चलते उनके साथ गलत हुआ। क्या इतनी ही चिंता पीएम मोदी को आईपीएस संजीव भट्ट, पत्रकार राणा अयूब और आरएसएस कार्यकर्ता संजय जोशी की भी है? ये वो लोग हैं जिन्होंने विभिन्न मुद्दों पर खुलेआम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के खिलाफ बोला है, और आज उनका हश्र देखा जा सकता है।
संजीव भट्ट, सालों से जेल में हैं, राणा अयूब (गुजरात files की लेखिका) के घर ईडी का छापा पड़ चुका है और संजय जोशी, जो बीजेपी के सबसे युवा संगठन मंत्री बने थे, उनका पूरा करियर तबाह हो चुका है। पूरा गुजरात और अब राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे लोगों की अनकही लिस्ट सामने है जिनका करियर सिर्फ इसलिए खत्म कर दिया गया क्योंकि उन्होंने ‘कुछ लोगों’ के बारे में सच कहने की हिम्मत जुटाई।
प्रधानमंत्री ने कॉंग्रेस की ओर इशारा करते हुए कहा “यह लोकतंत्र आपकी मेहरबानी से नहीं है”। हाँ सही कहा उन्होंने, क्योंकि लोकतंत्र किसी एक की जिम्मेदारी नहीं है। यह तंत्र ही है लोगों का, लोगों के द्वारा, लोगों के लिए। लेकिन वास्तविक प्रश्न प्रधानमंत्री को स्वयं से पूछना है कि आपकी टीम में ऐसा व्यक्ति एक सम्मानित स्थान कैसे पा गया जिसे लगता है कि भारत में ‘टू मच’ डेमोक्रेसी है? लेकिन अच्छा रहेगा यदि प्रधानमंत्री इतिहास पर अपनी नजर रखें।
उन्हे शायद अच्छा न लगे लेकिन तथ्य यह है कि 1927 में साइमन कमीशन के विरोध में कांग्रेसी नेता मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में गठित एक कमेटी ने भारत के लिए लोकतान्त्रिक संविधान की रूपरेखा प्रस्तुत की थी। इस कमेटी में सुभाषचंद्र बोस और ऐनी बेसेंट भी शामिल थी। कॉंग्रेस द्वारा तैयार ड्राफ्ट इतना शानदार था कि उस समय हिंदुस्तान टाइम्स ने अपने एडिटोरियल में लिखा “देश में राष्ट्रीय चेतना का जन्म और सांप्रदायिक अहंकार की अंतिम मौत… हमने अपनी स्वाधीनता का मैग्नाकार्टा तैयार कर लिया है”।
हो सकता है यह भी अच्छा न लगे कि कॉंग्रेस ने ही 1931 के करांची अधिवेशन में, वल्लभभाई पटेल की अध्यक्षता में पहली बार मूल अधिकारों का प्रस्ताव तैयार किया और देश व जनता के सामने रखा। इन मूल अधिकारों का मूल प्रारूप (ऑरिजिनल ड्राफ्ट) प. जवाहरलाल नेहरू ने ही तैयार किया था। राज्यसभा में देश के इतिहास को खोलने के इच्छुक दिखे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपने संगठन के पूर्वजों से पूछना चाहिए कि क्यों उन्होंने आजाद भारत के तिरंगे को स्वीकार नहीं किया और संविधान को मानने में भी वर्षों तक आनाकानी करते रहे?
एक लोकतान्त्रिक संविधान को न मानने के पीछे कारण नेहरू थे या अंबेडकर? देश का इतिहास खोलने की अधीरता उन्हे शिवाजी तक ले जाती है पर वो नेहरू, पटेल और सुभाष पर नहीं ठहरते। उसका कारण साफ है कि शिवाजी उन्हे लोकतंत्र पर शायद कुछ न कह पाएं, शायद उन्हे विरोध प्रदर्शनों और मूल अधिकारों पर कुछ न कह पाएं लेकिन जैसे ही उनका सामना नेहरू से होगा, उन्हे अपने उस कद का एहसास हो जायेगा जिससे वो बचते रहते है।
जब देश को पीएम मोदी से राष्ट्रीय चिंताओं के बारे में सुनना था तब प्रधानमंत्री को यह चिंता थी कि काँग्रेस को “सलाह कौन देता है जी?” अपने सलाहकारों पर फक्र करने वाले प्रधानमंत्री मोदी ने यह नहीं बताया कि उन्हे किसने सलाह दी थी कि बिना किसी चर्चा के कृषि कानूनों को देश की संसद से पारित करवा दिया जाए? किसने सलाह दी थी कि लाखों किसानों को सड़क पर एक साल के लिए रोककर रखा जाए तो अच्छा है। किसने सलाह दी थी कि कानून तब तक वापस न लिए जाएँ जब तक 700 किसान न मर जाएँ?
किसने सलाह दी कि मासूम किसानों पर गाड़ी चढ़ाने वाले आशीष मिश्रा के पिता अजय मिश्रा टेनी को गृहराज्य मंत्री बनाकर रखिए, जबकि देश का किसान इस बात से आहत है। अच्छा होता कि प्रधानमंत्री अपनी सरकार और उसके सलाहकारों पर चर्चा करते।
प्रधानमंत्री को यह भ्रम है कि देश के वैक्सीनेशन कार्यक्रम पर किसी को गर्व नहीं। वो देश के राजनैतिक प्रधान हैं उन्हे भ्रम का अधिकार है लेकिन वास्तविकता यह है कि देश को हर उस चीज पर गर्व है जिससे जनता का हित होता है। लेकिन वैक्सीनेशन कार्यक्रम का गर्व इतने बड़े लोकतंत्र के मुखिया के मुख से अच्छा नहीं लगता, बिल्कुल अच्छा नहीं लगता। जब पीएम कोविड की बात करते-करते आरोप प्रत्यारोप पर चले जाते हैं, इस समय तो संसद में हास्य विनोद भी अच्छा नहीं लगता क्योंकि अभी बहुत दिन नहीं गुजरे
जब यूपी और बिहार की गंगा में हजारों लाशें तैर रही थी, और प्रधानमंत्री बंगाल चुनाव में लाखों की भीड़ पर खुशियां मना रहे थे। मैं यह नहीं कहती कि पीएम को कोविड से मरने वालों पर कोई खुशी थी लेकिन यह तो सच है कि उनमें इतना मानवीय और राजनैतिक विवेक होना चाहिए था कि जब भीड़-भाड़ की वजह से कोरोना लगातार फैल रहा था तब उस भीड़ का अभिवादन करना कोरोना का अभिवादन करना था और यह अभिवादन उस मौत के अभिवादन से भिन्न नहीं था जिसने लाखों भारतीयों को लील लिया।
हश्र क्या हुआ बंगाल चुनाव का? भाजपा बुरी तरह हार गई। कोरोना के दौरान पीएम मोदी की लोकप्रियता रेटिंग बुरी तरह नीचे आ गई। आज भी लोकप्रियता के किताबी आँकड़ें चाहे कुछ भी कह रहे हों लेकिन सोशल मीडिया में उनकी लोकप्रियता लगातार घट रही है। उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव के पहले चरण के मतदान (10 फरवरी) के एक दिन पहले (9 फरवरी) सायंकाल को ANI इंटरव्यू (70 मिनट) के वीडियो को ही ले लीजिए। 3 दिन बाद भी एनडीटीवी यूट्यूब जैसे 11.3 मिलीयन सब्स्क्राइबर वाले प्लेटफॉर्म पर मात्र 89 हजार लोगों ने ही यह इंटरव्यू देखा, संसद टीवी में सिर्फ 29 हजार लोगों ने, स्वयं ANI जिसने यह इंटरव्यू लिया था वहाँ मात्र 17 हजार लोगों ने प्रधानमंत्री जी को देखा।
तथाकथित 18 करोड़ से अधिक कार्यकर्ता वाली पार्टी भाजपा के यूट्यूब चैनल में भी यह वीडियो 3 दिनों में मात्र 1 लाख से कुछ अधिक लोगों ने ही देखा। जबकि वहीं राज्यसभा सांसद मनोज झा के संसद टीवी में दो दिन पहले अपलोड किए गये विडियो को लगभग 1 लाख लोग देख चुके हैं, शशि थरूर के अपने चैनल से उनका संसद का भाषण 1 लाख से अधिक लोगों द्वारा देखा जा चुका है।
सिर्फ लोकप्रियता और चुनाव के लिए राष्ट्र और उसके संस्थानों को भ्रष्ट करने से बचना चाहिए। बदले की राजनीति व्यक्तिगत सुख तो पहुँचा सकती है लेकिन राष्ट्र के अहित को नहीं रोक पाएगी। जिन मजरूह सुल्तानपुरी का ज़िक्र प्रधानमंत्री मोदी ने नेहरू और कॉंग्रेस की नीयत पर शक के नजरिए से किया; इन्ही मजरूह साहब को दादा साहब फाल्के पुरस्कार 1993 में कॉंग्रेस के कार्यकाल में ही दिया गया।
2013 में कॉंग्रेस के कार्यकाल में ही मजरूह के नाम पर डाक टिकट जारी किए गए। प्रसिद्ध बंगाली फिल्मकार ऋत्विक घटक जिन्हे 1970 में पद्मश्री दिया गया, ने गाँधी को अपशब्द कहे थे लेकिन इंदिरा गाँधी ने राजनैतिक विचारधारा से ऊपर उठकर उन्हे उनकी कला के लिए सम्मानित किया। 70 सालों तक अगर काँग्रेस ने ‘बदले की भावना’ से काम किया होता तो न देश बचता न वो संसद जहां आज पीएम मोदी भाषण देते हैं।