प्यार, साज़िश, सत्ता, धोखा, उम्मीद और ईर्ष्या ये कुछ ऐसी भावनायें हैं जो समाज के हर वर्ग में किसी न किसी रूप में मौजूद रहती हैं। अंग्रेज़ी के मशहूर लेखक विलियम शेक्सपीयर ने इन्हीं भावनाओं को एक राज दरबार के पात्रों में उतार कर महान नाटक ओथेलो की रचना की। लेकिन ये सारी भावनायें तो भारत के छोटे छोटे गाँवों तक मौजूद हैं।
नाटककार इश्तियाक़ खान ने इन्हीं भावनाओं को एक भारतीय गांव के पात्रों में ढाल कर "शैडो ऑफ ओथेलो" की रचना कर दी। इस नाटक की ख़ास बात ये है कि इसमें एक ही साथ शेक्सपीयर के ओथेलो और उसकी छाया की तरह भारतीय गांव के पात्रों की कहानी चलती रहती है। शेक्सपीयर के ओथेलो में राज सत्ता पर क़ब्ज़ा के लिए साज़िश और षड्यंत्र चलते हैं, जिसमें प्यार भी है, ईर्ष्या भी है, धोखा भी है और हत्या भी है। गांव के पात्रों में यह सब एक नाटक में बेहतर भूमिका के लिए है।
ओथेलो जैसे बड़े कैनवास वाले नाटक को भारतीय रंग में एडाप्ट या रूपांतरित करना आसान नहीं है, लेकिन लेखक इश्तियाक़ खान ने बहुत ही सहज ढंग से दोनों रंगों को बरक़रार रखा है। निर्देशक के तौर पर उन्होंने इसे समकालीन भारतीय समाज और राजनीति से जोड़ कर आधुनिक रंग भी दिया है।
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एन एस डी) के रंग महोत्सव में पेश किए गए इस नाटक में बेहद संजीदा अभिनय ने जान फ़ूंक दी।
कई जगह बेहद चुटीले संवाद ने वर्तमान परिस्थितियों पर व्यंग तो किया ही एक गंभीर नाटक में हास्य का पुट भी डाल दिया। उदाहरण के तौर पर एक पात्र जब ये कहता है कि "विकास हुआ है" तो दूसरा पात्र ये पूछ कर कि "किसके घर" ठहाका लगाने का अवसर देता है। प्रस्तुति की एक बड़ी विशेषता ये भी है कि इसे गंभीर न रख कर रोचक बनाने की कोशिश की गयी।
इश्तियाक़ खान ने भोले, दबंग भय्याज़ी के रूप में, फ़ैज़ मोहम्मद और चंदन की भूमिका में विश्वनाथ चटर्जी ने शानदार काम किया। संयोग से तीनों ही एन एस डी के पूर्व छात्र हैं। प्रस्तुति पर फ़िल्म "ओंकारा" की छाप भी थी। ओंकारा भी ओथेलो का भारतीय रूपांतर था और इस नाटक के पात्र ओंकारा से प्रभावित होकर ही नाटक करने के लिए उत्साहित हुए थे।