रायबरेली में 7 जनवरी 1921 को हुए 'मुंशीगंज किसान हत्याकांड’ की चर्चा भारत के किसानों की उस जीवट को याद करना है जिसके तहत वे बीते कई सालों से दिल्ली सरकार को निशाना बनाते हुए आंदोलन कर रहे हैं। पंजाब के खनौरी बॉर्डर पर दस महीने से किसानों का धरना जारी है और उनके नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल क़रीब डेढ़ महीने से अनशन करते हुए जान दाँव पर लगाये हुए हैं।
फ़सलों के उचित मूल्य की क़ानूनी गारंटी का सवाल देश के किसानों की ‘आज़ादी’ से जुड़ा है। रायबरेली शहर से सट कर बहने वाली सई नदी का पानी एक सौ चार साल पहले यही सपना देखने वाले किसानों के लहू से लाल हुआ था। शहर और मुंशीगंज कस्बे को जोड़ने वाले पुल पर आंदोलनकारी किसानों को घेरकर अंग्रेज़ों के गुर्गे ज़मींदार वीरपाल सिंह के हुक्म पर गोलियों से भून दिया गया था। अंग्रेज़ों के ताबेदार ज़मींदारों के ज़ुल्म और लगान वसूली से उजड़े किसानों के दिलों में बाबा रामचंदर और मदारी पासी जैसे किसान नेताओं ने जो आग भरी थी, उसने किसानों को निर्भय बना दिया था। गाँधी जी के आह्वान पर शुरू हुए असहयोग आंदोलन ने इसे राष्ट्रीय मुक्ति के स्वप्न से जोड़ दिया था। इस गोलीकांड में दर्जनों किसानों की शहादत हुई थी।
पत्रकार शिरोमणि गणेश शंकर विद्यार्थी ने इस घटना की तुलना 13 अप्रैल 1919 को हुए जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड से की थी। अमृतसर के जलियाँवाला बाग़ में उस दिन रौलट एक्ट का विरोध में हो रही जनसभा में मौजूद निहत्थी जनता पर जनरल डायर ने गोलियाँ चलवाई थीं जिसके ख़िलाफ़ देशव्यापी आक्रोश उमड़ा था। मुशीगंज हत्याकांड के समय जवाहरलाल नेहरू सई के पुल से थोड़ी दूरी पर मौजूद थे। उन्होंने ‘दि इंडिपेंडेंट’ अख़बार में 22 जनवरी, 1921 को ‘द रायबरेली ट्रैजडी’ शीर्षक से प्रकाशित अपने लेख में जो लिखा था वह युवा जवाहर की मानसिक स्थिति और किसान आंदोलन की प्रकृति को समझने के लिहाज़ से बेहद महत्वपूर्ण है। नेहरू जी ने लिखा-
“वे बहादुर लोगों की तरह शांत और संकट के सामने अविचलित रहे। उन्हें क्या लग रहा था कि मैं नहीं जानता, पर मेरी भावनाएँ मुझे मालूम थीं। एक क्षण के लिए मेरा ख़ून खौल उठा, मैं अहिंसा मानो भूल गया- पर एक क्षण के लिए ही। उस महान नेता का स्मरण जो कि ईश्वर की कृपा से हमें विजय की ओर ले जाने के लिए भेजा गया है, मुझे आया, और मैंने देखा कि जो किसान मेरे साथ खड़े हैं या बैठे हैं वे कम उत्तेजित हैं, अधिक शांत हैं, मुझसे भी अधिक और कमज़ोरी का क्षण दूर हो गया। मैंने उनसे अहिंसा के बारे में अत्यंत विनम्रता से बोला- मैं, जिसे ख़ुद इसका पाठ उनसे भी अधिक ज़रूरी था- और वे मुझे ध्यान से सुनते रहे और शांति से बिखर गये। नदी के उस पार, ज़रूर आदमी मरे पड़े था या मर रहे थे। वैसी ही यह भीड़ थी, वैसा ही उनका मक़सद था। फिर भी उन्होंने अपने दिल का ख़ून बहा दिया, तिलबिला होने के पहले ही।”
दरअसल, अवध में जारी ‘एका आंदोलन’ के बीच किसानों के प्रतिनिधियों ने इलाहाबाद जाकर मोतीलाल नेहरू से मुलाक़ात की थी जिन्होंने अपने युवा पुत्र जवाहरलाल नेहरू को उनके साथ किसानों की दुर्दशा का हाल जानने भेजा था। नेहरू जी ने अपनी आत्मकथा ‘मेरी कहानी’ में विस्तार से इसका ज़िक्र किया है कि कैसे वे प्रतापगढ़-रायबरेली के ग्रामीण इलाक़ों में पदयात्रा करते हुए किसानों की दुर्दशा और असल हिंदुस्तान की तस्वीर से रूबरू हुए और आज़ादी और किसानों की मुक्ति में जीवन खपाने का उनका संकल्प दृढ़ होता चला गया।
दरअसल, जनवरी की शुरुआत में ज़मींदारों के गुंडों ने किसान आंदोलन को बदनाम करने के लिए ज़मींदारों के कुछ खेतों में आग लगाकर फ़सलें जला दी थीं और कुछ बाज़ारों में लूटपाट भी हुई थी। इन घटनाओं की आड़ में तीन किसान नेता पकड़ लिये गये थे जिससे किसान आक्रोशित थे। 6 जनवरी को रायबरेली शहर से क़रीब दस किलोमीटर दूर फ़ुर्सतगंज में पुलिस ने भीड़ पर गोली चलायी जिसमें छह लोगों की मौत हुई। हालात बिगड़ने का तार पाकर जवाहरलाल नेहरू 7 जनवरी को दोपहर ढाई बजे पंजाब मेल से रायबरेली पहुँचे थे। वे रायबरेली के कांग्रेस कार्यकर्ताओं के साथ मुंशीगंज की ओर बढ़ रहे थे जब उन्हें डिप्टी कमिश्नर की ओर से पेंसिल से लिखा पुर्ज़ा मिला। इस पर लिखा था,
“पंडित जवाहरलाल नेहरू, आपको इस पत्र द्वारा सूचित किया जाता है कि इस ज़िले में आपकी उपस्थिति हमारे लिए अवांछनीय है। आप अगली गाड़ी से वापस चले जायें।”
नेहरू जी ने इसी पुर्ज़े के पीछे उत्तर लिखा,
“मैं जानना चाहता हूँ कि यह बाक़ायदा हुक्म है या सिर्फ़ एक अनुरोध है। अगर यह हुक्म है तो उसे बाक़ायदा आना चाहिए, उसमें धारा इत्यादि देना चाहिए। जब तक ऐसा कोई अंतर नहीं आता, मैं यहीं रहूँगा।”
प्रशासन ने नेहरू जी को मुंशीगंज पुल तक नहीं जाने दिया और न औपचारिक भाषण देने की अनुमति ही दी। वे बस कुछ मिनट ही संबोधित कर पाये जिसमें उन्होंने किसानों से हिंसक न होने की अपील की। मुंशीगंज हत्याकांड में कितने किसान मरे, इसको लेकर कोई निश्चित संख्या तय नहीं हो पायी। लोगों का कहना था कि प्रशासन ने सैकड़ों लाशें नदी में बहा दी।
बहरहाल, नेहरू जी कांग्रेस कार्यकर्ताओं के साथ मृतकों के अंतिम संस्कार और घायलों को अस्पताल पहुँचाने के काम में जुट गये। अगले दिन मोतीलाल नेहरू भी रायबरेली पहुँच गये। पिता-पुत्र ने मिलकर हालात को सँभाला।
इस घटना ने नेहरू परिवार और रायबरेली का रिश्ता हमेशा के लिए जोड़ दिया। संयुक्त प्रांत में क़ानून तोड़कर नमक बनाने का कांग्रेस का पहले कार्यक्रम 8 अप्रैल 1930 को रायबरेली के बेलीगंज स्थित कांग्रेस कार्यालय पर आयोजित किया गया था। इसमें शामिल होने के लिए इलाहाबाद से पं. मोतीलाल नेहरू, कमला नेहरू, विजयलक्ष्मी पंडित के साथ 13 बरस की इंदु भी पहुँची थीं। कौन जानता था कि यह इंदु एक दिन रायबरेली से सांसद और प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी बनकर दुनिया में रोशन नाम करेगी। उस दिन जो नमक बना वह 51 रुपये में बेचा गया था लेकिन रायबरेली की जनता के लिए वह अनमोल था।
‘मुंशीगंज किसान हत्याकांड’ को दुनिया के सामने लाने में गणेशशंकर विद्यार्थी के अख़बार ‘प्रताप’ की बड़ी भूमिका थी जो 1920 से दैनिक रूप से प्रकाशित हो रहा था। इसमें किसान आंदोलन और ताल्लुकेदारों और ज़मींदारों के जु़ल्म और इसके ख़िलाफ़ जारी किसानों के एका आंदोलन की ख़बरें भरी रहती थीं। 7 जनवरी 1921 को गोलीकांड के बाद 13 जनवरी को प्रताप में इसे ‘डायरशाही’ बताते हुए लेख प्रकाशित हुआ। ‘प्रताप’ सरकार और ज़मींदारों के कोप का शिकार पहले से था। इस लेख के बाद ज़मींदार वीरपाल सिंह ने मानहानि का मुक़दमा दायर कर दिया। इस मुक़दमे में विद्यार्थी जी की हार हुई और उन्हें जेल जाना पड़ा लेकिन वे दुनिया के सामने इस बर्बरता को लाने में कामयाब रहे।
मुंशीगंज गोलीकांड के 104 साल बाद देश के किसान और आज़ाद पत्रकारिता अगर वैसे ही ‘दिल्लीश्वर’ के निशाने पर हैं तो कवि धूमिल की तरह यह सवाल तो पूछना ही होगा, “क्या आज़ादी तीन थके हुए रंगों का नाम है जिसे एक पहिया ढोता है या इसका कुछ और भी मतलब होता है!”