इंदौर के एक होटल में एम एफ़ हुसैन साहब से सालों पहले हुई लंबी बातचीत दिल के अलग-अलग तहखानों, मेरी अपनी बढ़ती उम्र के साथ अपनी भी याददाश्त खोती स्मृतियों और आदिल भाई के हाथ के नोट्स के जर्जर हो चुके काग़ज़ों में लगभग पच्चीस साल क़ैद रही। ये भी मेरी बदलती नौकरियों, नियुक्तियों के ठिकानों के साथ-साथ एक शहर से दूसरे शहर मसलन इंदौर, अहमदाबाद, भोपाल ,दिल्ली और वहाँ भी एक मकान से दूसरे मकान के साथ-साथ भटकती रही। ख़ुशक़िस्मती यह रही कि बच्चों और दूसरे क़ीमती सामान की तरह उसे भी कभी अपने से अलग नहीं होने दिया।
सोच में लगातार क़ायम रहा कि स्मृतियों में गूंजती हुसैन साहब की आवाज़ और काग़ज़ों पर धुंधली पड़ती जा रही उनसे हुई बातचीत को क़रीने से काग़ज़ पर अब उतार ही देना चाहिए। इस बीच हुसैन साहब चले गए, आदिल क़ुरैशी, शाहिद मिर्ज़ा, राहत इंदौरी सभी एक-एक करके चले गए। ज़िंदगी की आपाधापी इन सब हादसों के बावजूद उसी तरह बनी रही।
हाल ही में एक दिन अपनी फेसबुक वाल पर फ़ोटोग्राफ़र मित्र तनवीर फ़ारूक़ी ने हुसैन साहब को लेकर बहुत ही आत्मीयतापूर्ण संस्मरण लिखा। मैंने उसके कमेंट बॉक्स में बस इतना भर लिख दिया था कि मैं भी उस अब तक अप्रकाशित बातचीत को लिख डालूँगा जो सालों से सहेज कर रखी हुई है। कई मित्रों ने कमेंट बॉक्स की उस टिप्पणी पर भी टिप्पणियाँ कर दीं कि उन्हें उस क्षण की प्रतीक्षा रहेगी।
इसी दौरान तनवीर ने हुसैन साहब के साथ कलागुरु चिंचालकरजी, शाहिद मिर्ज़ा और मेरी तस्वीरें भेज दीं जो उन्होंने हुसैन साहब की 1989-90 में हुई इंदौर यात्रा के दौरान लीं थीं।(बातचीत बाद के सालों की है क्योंकि तब तक उनकी पेंटिंग्स को लेकर बवाल नहीं मचा था जिसका कि ज़िक्र उन्होंने बातचीत के पहले भाग में किया है।) तनवीर की भेजी तस्वीरों का ही उपयोग मैंने हुसैन साहब के साथ बातचीत की पहली किश्त में किया था।इसके बाद मैं अपने आपको रोक नहीं पाया और वक़्त निकालकर तीन किस्तों में सब कुछ प्रस्तुत कर दिया।
हुसैन साहब के साथ हुई बातचीत को पेश करने में अगर कोई ग़लती कर दी गई हो या कोई तथ्यात्मक चूक हो गई हो तो उसे उनके कहे को ठीक से समझ नहीं पाना मानते हुए क्षमा कर दिया जाए।