जनता जुमलेबाजों के जुमले भी नहीं समझी

08:02 pm Sep 15, 2024 | एन.के. सिंह

एक ताज़ा घटना से पता चलेगा कि मोदी मॉडल गवर्नेंस की किस्म क्या है. केन्द्रीय वित्त-मंत्री सीतारमण तमिलनाडु में सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम एंटरप्राइजेज (एमएसएमई) से जुड़े लोगों के साथ बैठक कर रही थीं. “समस्या समाधान” के आशय से हुईं इस बैठक में एक मशहूर होटल-चेन के मालिक ने जीएसटी की विसंगतियों की चर्चा थोडा हंसाने वाले अंदाज में की. उनका कहना था “बन पर कोई जीएसटी नहीं है लेकिन अगर उस पर क्रीम लगा दी जाये तो 18 प्रतिशत जीएसटी है. लिहाज़ा ग्राहक कहता है तुम मुझे बन और क्रीम अलग-अलग दे दो, मैं खुद हीं लगा लूँगा”. अगले दिन उन्हें मंत्री के यहाँ जा कर माफी मांगनी पडी. शायद “तोता” बनने की होड़ में सीबीआई हीं नहीं इनकम टैक्स विभाग भी है.

मोदी मॉडल गवर्नेंस के तमाम आयामों में बुलडोजर न्याय का हीं विस्तार राज्य की एजेंसियों का लोगों में दहशत पैदा करना है. एक समुदाय को टारगेट करके बहुसंख्यक समुदाय की तर्क-शक्ति को कुंद करना पूरी दुनिया में ऐसे माडल्स की सफलता की पूर्व-शर्त है.

करीब 90 साल पहले डॉ राधाकृष्णन ने ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में “द वर्ल्डस अनबोर्न सोल” (दुनिया का अजन्मा आत्मा) शीर्षक एक उद्घाटन भाषण कहा था “जब न्यायपरायणता पर अमल स्वयं इसके बूते पर न कर के प्रभु का आदेश मान कर किया जाता है तो इसमें कट्टरवाद की उद्दंडता आ जाती है जो सर्वथा अनीश्वरीय है”. गौ-रक्षा के नाम पर शक के आधार पर भीड़-न्याय में लोगों को मारना हो या मुजफ्फरनगर में मुसलमान द्वारा पीढ़ियों से चलाये जा ढाबे का नाम “संगम शुद्ध भोजनालय” लिखने पर एक शर्म-विशेष के लोगों द्वारा मालिक को नाम बदलने के लिए दबाव डालना हो जिसे एक हालिया त्यौहार के दौरान सरकार के आदेश का भी समर्थन हो या फिर कई गाँव के लोगों खासकर हिंदूवादी संगठनों द्वारा एक संप्रदाय-विशेष के लोगों के अन्दर आने या सामान बेचने के खिलाफ बोर्ड लगवाना हो, यह ईश्वरीय सेवा तो नहीं हो सकती. 

इस क्षेत्र में लम्बे समय से हिन्दू-मुसलमान साथ रहते है लेकिन हाल के दिनों में धर्म-आधारित संगठनों ने यह बताना शुरू किया कि इनकी वजह से बहुसंख्यक लोगों के रोजगार छिन रहे हैं और चोरी की घटनाएँ बढ़ रही हैं. किसी भी समुदाय को अलग-थलग करने का सबसे सहज तरीका होता है उसको खान-पान, उसकी नीयत या उसके आचरण को बृहत् समाज के लिए अहितकार बता देना.

संक्रामक कोरोना काल में इन समुदाय को  “सुपर स्प्रेडर” (प्रमुख रोग विषाणु संवाहक) बताना ) जिसकी स्वास्थ्य विभाग ने कई बार पुष्टि भी की लेकिन जो बाद में गलत निकली), उन्हें खानपान के आधार पर किराये पर मकान न देना, उनसे सामान न खरीदने का अभियान चलाना इस वर्ग की आर्थिक स्वास-नली को काटने जैसा है. इसके ठीक विपरीत एक ताज़ा पहलू तुर्किये में देखने को मिला जहां वैसे तो सेक्युलर (धर्म-निरपेक्ष) और रिपब्लिक शासन प्रणाली है लेकिन इसके राष्ट्रपति अर्दोगन ने दो दिन पहले कहा कि जिन सैनिक स्नातकों ने सेक्युलर शपथ ली है उन्हें सेना की सेवा से निकाला जाएगा ताकि सेना का “शुद्धिकरण” हो सके. शायद अर्दोगन भी इसे ईश्वरीय आदेश मानते होंगें. 

सन 1883 की बात है. विख्यात वैज्ञानिक एडिसन की कंपनी के यूरोपीय इकाई में काम करने वाले टेस्ला नाम के सर्बिया के एक बेहद प्रतिभाशाली अन्वेषक युवा को इकाई के मैनेजर ने सलाह दी कि वह बेहतर करियर के लिए न्यूयार्क जा कर एडिसन से मिले. एडिसन ने इस युवक का टैलेंट देखकर तत्काल मुख्यालय में नौकरी दे दी.

रोजाना 18 घंटे काम करते हुए टेस्ला ने एडिसन से कहा कि वह कंपनी के परम्परागत डायनेमो का डिज़ाइन बदल कर इसे ज्यादा प्रभावी बनाना चाहते हैं. एडिसन को यह प्रोजेक्ट कई सालों का और कोई खास लाभ वाला नहीं लगा लिहाज़ा उसने कहा “अगर तुम यह कर सके तो 50 हज़ार डॉलर का का इनाम देंगें”. टेस्ला ने इसे दिन-रात लग कर एक साल में हीं पूरा कर दिया जो डाइनेमो की दुनिया में ऑटोमेटिक कंट्रोल के साथ बेहद सक्षम था. इस शुभ सूचना को लेकर टेस्ला एडिसन के पास गए. एडिसन खुश हुए और इस डिज़ाइन को तत्काल अमल में लाकर लाभ कमाने लगे. 

टेस्ला ने जब इनाम की बात की तो एडिसन ने कहा “टेस्ला, तुम हम अमरीकियों का जुमला भी नहीं समझते”. टेस्ला ने इसी दौरान एसी करंट का आविष्कार करने की बात की जिसकी एडिसन ने न केवल खिल्ली उड़ाई बल्कि उसे बर्बाद करने की सारी कोशिशें की. अंततः टेस्ला को पिट्सबर्ग के उद्योगपति वेस्टिंगहाउस की शरण में जाना पडा. एसी की अवधारणा और मॉडल आज भी दुनिया में अमल में आता है. लेकिन टेस्ला गरीबी में मरे और एडिसन को महान आविष्कारक माना गया.

करीब 141 साल पुराना यह किस्सा उधृत करने का एक कारण है. एडिसन ने टेस्ला से छल करते हुए कहा “ तुम अमेरिकी जुमला भी नहीं समझते?” भारत में भी प्रजातंत्र का खेल 70 साल से चल रहा है लेकिन जनता को शायद यह लगता था कि चुनाव मंच से किसी ऐसे नेता द्वारा जिस पर पूरा भरोसा किया गया हो, 14 लाख हर गरीब की जेब में देने के वादे का “जुमला” तो नहीं फेंकेगा. लेकिन वो गलत निकले.

(पत्रकार और लेखक एन के सिंह ब्रॉडकास्ट एसिटर्स एसोसिएशन (बीईए) के पूर्व महासचिव हैं।)