यूपी उपचुनाव: योगी लोकप्रिय या अलोकप्रिय? 

07:11 am Nov 04, 2020 | अनिल शुक्ल - सत्य हिन्दी

उत्तर प्रदेश में (मंगलवार को) 7 विधानसभा सीटों पर पड़ने वाले वोट किसके पक्ष में होंगे इस सवाल का जवाब देने के लिए बीजेपी नाक को सीधे पकड़ने की बजाय उल्टा पकड़ना चाहेगी। अपने साढ़े तीन साल के शासन में क़ानून-व्यवस्था की पिद्दी हालत ने उसे अपने पक्ष में मिलने वाले वोटों की उम्मीदों से तो महरूम कर दिया है, अलबत्ता अब उसकी नज़र इस बात पर टिकी है कि (हर सीट पर) विपक्षी दलों को कितने ज़्यादा वोट मिल पाते हैं

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उनके मैनेजरों की गणना में प्रत्येक विधानसभा में जितने ज़्यादा वोट विरोधी दलों को मिलेंगे (और बंटेंगे) उतना ज़्यादा बीजेपी की जीत को सुनिश्चित करेंगे। ऐसे में टूंडला (फ़िरोज़ाबाद) में कांग्रेस प्रत्याशी के नामांकन के खारिज हो जाने से वे चिंतित हैं तो बुलंदशहर में एक नए विपक्षी (चंद्रशेखर आज़ाद की 'आज़ाद समाज पार्टी') की ‘चमकदार’ उदय ने उसे बड़ी राहत दी है।

सन 2017 के चुनाव में बीजेपी को अप्रत्याशित जीत हासिल हुई थी। 403 में से 313 सीटें जीतने पर पार्टी द्वारा योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर दो कारणों से सुशोभित किया गया था। पहला तो यह कि वह 'हिन्दुत्ववाद’ के अपने चिर-परिचित झंडे को और ज़्यादा बुलंद करके देशव्यापी हवा को बीजेपी के लिए सुनिश्चित करने में मददगार साबित होंगे और दूसरा यह कि सब कुछ ठीक चला तो (कम उम्र होने के चलते) भविष्य के प्रधानमंत्री पद के लिए वह एक मज़बूत दावेदार साबित हो सकेंगे।

इसमें कोई शक नहीं कि इन साढ़े तीन सालों में योगी आदित्यनाथ ने अपने 'हिन्दुत्ववादी' के नैरेटिव को मज़बूती से स्थापित किया है। उनका जोगिया भेष और कठोर मुसलमान विरोधी रुख, हिन्दू वोटर के जनमानस को ख़ासा 'उद्वेलित' करने में सफल रहे हैं। एक प्रशासक के रूप में लेकिन वह 'बड़बोले सम्राट' से अधिक कुछ भी साबित नहीं हो सके हैं। समूचे प्रशासन को नौकरशाही के हाथों में सौंप कर उन्होंने न सिर्फ़ अपनी पार्टी के जन प्रतिनिधियों को दुखी और क्रोधित किया अपितु क़ानून और व्यवस्था के पूरे तौर पर चरमरा जाने से आम मतदाता को भी बुरी तरह निराश और हताश किया है।

इन हालातों से वाक़िफ़ मुख्यमंत्री पूरे चुनाव अभियान में घूम-घूम कर अपने पक्ष में धारा 370, राम मंदिर का निर्माण और लव जिहाद के समूल विनाश के आह्वान पर अपने गाल बजाते रहे लेकिन उनके पास न तो कानपुर में 8 पुलिसकर्मियों की नृशंस ह्त्या का कोई जवाब था न एनकाउंटर के नाम पर दिनदहाड़े विकास दुबे और उसके गैंग के कई लोगों सहित सवा सौ से ज़्यादा लोगों को मौत के घाट उतारे जाने की कोई ईमानदार सफ़ाई। 

योगी सरकार की सबसे ज़्यादा भद्द तो हाथरस में पिटी, जहाँ उनकी समूची मशीनरी न सिर्फ़ एक दलित लड़की के बलात्कार को झुठलाने में पूरी ताक़त लगाती रही, बल्कि घरवालों की अनुपस्थिति में आधी रात को डीजल छिड़क कर अंतिम संस्कार निबटा देने की अमानुषिक कार्रवाई करने से भी बाज़ नहीं आई।

हाथरस, बुलंदशहर, बलरामपुर, आजमगढ़ और कानपुर- 5 ज़िलों में 5 निरपराध महिलाओं की हत्याओं के ख़ून की जवाबदेही मुख्यमंत्री और उनकी सरकार नहीं दे पायी है। सातों सीट पर विपक्ष ताल ठोंक-ठोंक कर इस जवाबदेही की बाबत पूछता रहा लेकिन मुख्यमंत्री और उनकी पार्टी यह सोच कर मौन धारण किये रही कि शायद ऐसा करके वे मतदाता की ताज़ी स्मृति को मिटा पाने में कामयाब हो सकेंगे।

वीडियो में देखिए, विपक्ष कैसे घेरेगा योगी को

'सामंती हुकमरान' होने के आरोप

आज़ादी के बाद की योगी आदित्यनाथ सरकार, प्रदेश की ऐसी पहली सरकार है जिस पर 'सामंती हुकमरान' होने के गंभीर आरोप लगे। उन्होंने किसी तरह की सफ़ाई देने की जगह इस पर बड़ी गर्वोन्नति व्यक्त की। हाथरस के बढ़ते बवाल और हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के बीच में आ जाने से योगी जी इतना भड़भड़ा गए कि अपने सरकारी अधिकारियों के ऊपर से 'जनसम्पर्क' करने की क्षमताओं का विश्वास खो बैठे। उन्होंने बैठे-ठाले मुंबई की एक जनसम्पर्क कम्पनी -'कांसेप्ट पीआर' को राज्य सरकार के लिए अनुबंधित किया।

सरकारी सूत्रों ने दबे स्वर में बताया कि 'पीआर कांसेप्ट' की सलाह के चलते ही उन्होंने अपने ऊपर लगे 'दलित विरोधी' होने के गंभीर दाग़ को पोंछने की कोई राजनीतिक कोशिश करने के बजाय ‘मॉरीशस से 100 करोड़ रुपए लेकर इसके दम पर पूरे सूबे में अपने विरुद्ध अज्ञात लोगों द्वारा जातिवादी षड्यंत्र' करने का नैरेटिव खड़ा करने की कोशिश की। 

इतना ही नहीं बल्कि उन्होंने समूची प्रशासनिक मशीनरी को इसे साबित करने की कोशिश में झोंक दिया। इस मज़ेदार कहानी को गढ़ कर उनकी सरकार सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर करने भी पहुँच गई। हालाँकि केंद्र सरकार के प्रवर्तन निदेशालय ने अगले दिन ही किसी विदेशी धन के इस तरह के आयात का खंडन कर दिया। 

उनकी सरकार इस पूरे बखेड़े में इस्लामिक संगठन 'पॉपुलर फ्रंट ऑफ़ इंडिया' (पीएफ़आई) को भी घसीट लायी। हालाँकि प्रदेश की जनता ने इन सारी 'कहानियों' को क़तई गंभीरता से नहीं लिया। योगी सरकार यह सब इन्हीं उपचुनावों की प्रकट छाया में कर रही थी।

बिहार के चुनावों में बहने वाली रोज़गार और आर्थिक सवालों की आंधी यूपी को भी न झुलसा दे, योगी सहित सम्पूर्ण बीजेपी इसे लेकर बेचैन है। प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री- दोनों कई-कई बार राज्य में रोज़गारों के नए -नए मेले आयोजित करने का ‘संकल्प’ कर चुके हैं। प्रधानमंत्री 20 लाख नए रोज़गार और मुख्यमंत्री ‘प्रवासी रोज़गार आयोग' की घोषणा भी कर चुके हैं। ये घोषणाएँ लेकिन यहाँ भी वैसी ही बेअसर साबित हुई हैं जैसी बिहार में हुई थीं।

उत्तर प्रदेश में आर्थिक ढाँचा बेतरह टूट चूका है। ऐसे में आम आदमी कश्मीर में संवैधानिक धारा 370 और अयोध्या के मंदिर निर्माण की वैचारिक धारा से उद्वेलित हो तो कैसे

उपचुनाव योगी आदित्यनाथ के लिए ज़बरदस्त सिरदर्दी साबित होते हैं चाहे वे लोकसभा के चुनाव हों या विधानसभा के। पिछली लोकसभा की तीनों सीटें तो वह हार ही गए थे, मौजूदा विधानसभा के अक्टूबर 2019 में हुए 11 सीटों के उपचुनाव के समय, उन्होंने एक सीट गँवा दी थी और हाँफते-हूँफते मुश्किल से 7 सीट जीत सके थे। इस बार मामला ज़्यादा विकट है।

ये चुनाव विपक्षी दलों के लिये भी कम झमेले वाले नहीं हैं। जिस तरह बसपा सुप्रीमो मायावती ने भविष्य में बीजेपी के साथ बसपा की गलबहियाँ डालने का एलान किया, उससे उनका मतदाता सकते में आ गया।

ख़ासकर बुलंदशहर जैसी सीट पर जहाँ 'आज़ाद समाज पार्टी' के रूप में चंद्रशेखर आज़ाद उनके प्रबल विरोधी के रूप में अपने प्रत्याशी के साथ मैदान में हैं। पर जब लगा कि घाटा हो सकता है तो मायावती ने एलान किया कि बीजेपी से वह कभी गठबंधन नहीं करेंगी। पर क्या जनता उनकी बात पर भरोसा करेगी। 

7 सीटों के ये उपचुनाव तय करेंगे कि क्या जाटव मतदाता का मायावती की अजीबोग़रीब घोषणाओं से मोहभंग हुआ है या नहीं। और क्या वह नए विकल्पों की ओर आकर्षित हो रहा है साथ ही अल्पसंख्यक मतदाता उनके कितना पक्ष में है। 

आगामी उप चुनाव ऐसे दौर में हो रहे हैं जब हाल के महीनों में कांग्रेस पार्टी नई स्फूर्ति के साथ उभरी है। इसलिए ये चुनाव सामान्यतः कांग्रेस पार्टी और विशेषकर प्रियंका वाड्रा गांधी के लिए विशेष महत्व के हैं। देखना यह है कि टूंडला सीट पर जिस तरह से उनके प्रत्याशी का नामांकन खारिज हुआ है, तैयारियों के ऐसे बचकानेपन से वे अगले 3 हफ़्ते में कितना परिपक्व होकर उभर पाते हैं।

बहरहाल मतदान के दौरान जैसे-जैसे दिन चढ़ेगा, पार्टियाँ बदले हालात में अपना आकलन करने में मशगूल रहेंगी।